अधर में व्यापार संगठन
चार दशक पहले अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन का एजेंडा प्रस्तुत करते हुए अपने व्यावसायिक हितों को साधने का प्रयत्न किया था। इससे पहले अमेरिका सदैव अलगाववादी रहा, और उसने बहुपक्षीय व्यापार का कभी समर्थन नहीं किया। 2001 की दोहा वार्ता को गहराई से देखने पर यह भी शक होता है कि शायद अमेरिका ने जानबूझकर उसमें ऐसी शर्तं रखी थीं कि कोई देश उन्हें मान ही न सके। ओबामा प्रशासन का उद्देश्य तो यूरोप और चीन जैसे प्रतियोगियों की तुलना में अपनी ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप को बढ़ावा देना रहा। इसलिए उसने विश्व व्यापार संगठन को पुनः सक्रिय करने के बारे में कभी नहीं सोचा।
अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में विवादों के समाधान के लिए बनी अपीलीय संस्था में नए सदस्यों की भर्ती पर रोक लगा रखी है। वर्तमान में, इस संस्था में सात में से चार सदस्य ही काम कर रहे हैं, जिनमें से तीन 2019 तक सेवानिवृत्त हो जाएंगे। एक अकेले सदस्य के दम पर संगठन के विवादों को सुलझाना संभव नहीं है। इसके अलावा संस्था के कोरम को पूरा करने के लिए तीन सदस्यों का होना जरूरी है। इसको लेकर अमेरिका की आलोचना भी हो रही है, क्योंकि विवाद समाधान की प्रक्रिया में भी उसका हस्तक्षेप बना रहता है।
चीन का बढ़ता प्रभुत्व
2013 से विश्व व्यापार संगठन पर चीन का प्रभुत्व कुछ बढ़ता हुआ लग रहा है। दरअसल, 2001 में चीन के संगठन में प्रवेश के साथ ही उसे नियम आधारित प्रणाली से बहुत लाभ हुआ, जबकि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को चीन का प्रभुत्व एक बाधा लगने लगा था। अपने पहले विवाद ने ही चीन को एक व्यापक अनुभव प्रदान कर दिया, और वह अमेरिका व यूरोप के प्रति सजग रहने लगा। अब चीन, यूरोपियन यूनियन, भारत एवं कुछ अन्य देशों के साथ बहुपक्षीय व्यापार का प्रबल समर्थक बना हुआ है।
हाल ही में यूरोपियन यूनियन और चीन के बीच हुए समझौते के पीछे, एकतरफा और सुरक्षात्मक व्यापार नीति का विरोध बताया जा रहा है। लेकिन चीन के ऊपर व्यापारिक विश्वासघात को लेकर लगे लांछनों को देखते हुए, इसका सफल होना मुश्किल लगता है। विश्व की बदलती स्थितियों के साथ ही बहुपक्षीय संस्थाओं को भी इन परिवर्तनों को आत्मसात करना पड़ेगा। इसके साथ ही उभरती अर्थव्यवस्थाओं और विकासशील देशों को आगे बढ़कर बहुपक्षीय स्तर पर चलने वाली संस्थाओं को आकार देना चाहिए। शायद ऐसा करके विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं के अस्तित्व को बचाया जा सके।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित लीला चोकस्ने और जेम्म जे. नेदुम्परा के लेख पर आधारित। 6 अगस्त, 2018
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