‘नौकरियों में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं’,
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अदालत ने कहा कि यह पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है कि उन्हें आरक्षण या पदोन्नति में आरक्षण देना है कि नहीं देना है। इसलिए राज्य सरकारें इसको अनिवार्य रूप से लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का दावा करना मौलिक अधिकार नहीं है। लिहाजा कोई भी अदालत राज्य सरकारों को एससी-एसटी को आरक्षण देने का निर्देश नहीं दे सकती है। अदालत ने कहा कि यह पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है कि उन्हें आरक्षण या पदोन्नति में आरक्षण देना है कि नहीं देना है। इसलिए राज्य सरकारें इसको अनिवार्य रूप से लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकारें जब आरक्षण देना चाहती हैं तो सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए डेटा जुटाने को बाध्य हैं।
शुक्रवार को जस्टिस एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर भरोसा किया। “राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने के लिए किसी व्यक्ति के पास कोई मौलिक अधिकार नहीं है। अदालत राज्य सरकारों को आरक्षण देने के लिए कोई भी निर्देश देते हुए मानदंड जारी नहीं कर सकती है।”
अदालत ने कहा कि SC/ST के पक्ष में आरक्षण प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 16 के प्रावधान इसको सक्षम बनाते हैं और राज्य सरकारों के विवेक में निहित होते हैं। लेकिन राज्य सरकार को सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है। पीठ ने कहा, “राज्य पदोन्नति के मामलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण बनाने के लिए बाध्य नहीं है।”
पीठ ने उत्तराखंड सरकार के लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियंता (सिविल) के पदों पर पदोन्नति में एससी और एसटी को आरक्षण से संबंधित मामलों को एक साथ निपटाते हुए ये व्यवस्था दी। उच्च न्यायालय ने राज्य को एससी-एसटी के प्रतिनिधित्व के संबंध में पहले मात्रात्मक डेटा एकत्र करने और फिर कॉल करने का निर्देश दिया था, जबकि उत्तराखंड सरकार ने आरक्षण नहीं देने का फैसला किया था।
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