Tuesday, 28 August 2018

Daily Editorial 28 August 2018 अमेरिकी धौंस और ब्रिक्स की भूमिका

Daily Editorial
28 August 2018
अमेरिकी धौंस और ब्रिक्स की भूमिका

स्रोत: द्वारा शशांक: हिंदुस्तान

दुनिया की अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स देशों की भूमिका क्या बदलने वाली है? यह सवाल 27 जुलाई 2018 को खत्म हुए ब्रिक्स के 10वें शिखर सम्मेलन के बाद कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। इस संगठन के सभी सदस्य देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) की गिनती उभरती आर्थिक ताकतों में होती है और इन्हें आर्थिक उदारीकरण का खासा लाभ भी मिला है। मगर अब अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों की ‘संरक्षणवादी नीतियों’ का शिकार यही देश सबसे ज्यादा हो रहे हैं। संभवत: इसीलिए ब्रिक्स सम्मेलन में सभी सदस्य देश उदारीकरण से इतर नीतियां तलाशने और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी नई जगह बनाने पर राजी हुए हैं।

इस समय दुनिया के कारोबार को संरक्षणवाद और ‘ट्रेड वार’ खासा प्रभावित कर रहे हैं। खासतौर से संरक्षणवाद कई देशों में जडे़ जमाता जा रहा हैं। शरणार्थी समस्या के बाद यूरोप इन नीतियों की ओर बढ़ा था  और अपने दरवाजे दूसरे देशों के लिए बंद करने की वकालत की थी। बाद में, अमेरिका ने इसे भरपूर हवा दी, जबकि वह वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण का अगुवा देश रहा है। यह सच है कि अमेरिका में बेरोजगारी बढ़ी है, लेकिन यह भी समझना होगा कि किन्हीं उदार आर्थिक नीतियों ने नहीं, बल्कि घरेलू नीतियों ने अमेरिका में रोजगार संकट को बढ़ाया है।

‘ट्रेड वार’ भी इसी दरम्यान पनपा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मुल्क को आर्थिक मुश्किलों से निकालने के लिए चीन के खिलाफ टैरिफ (अतिरिक्त शुल्क) लगाए हैं। चीन भी अपना जवाब दे रहा है और इस मसले को विश्व व्यापार संगठन में ले गया है। फिलहाल तो यह जंग अमेरिका और चीन के बीच सिमटी हुई है, लेकिन इससे हमारा व्यापार भी प्रभावित हो रहा है। चीन के मुकाबले विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्र्चंरग) में हमारी भागीदारी कम होने के बाद भी इसकी आंच हम तक पहुंची है। नतीजतन, हमने भी जवाबी शुल्क लगाए हैं और विश्व व्यापार संगठन में अर्जी दी है।

ऐसे में ब्रिक्स देशों की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। अभी तक ये देश वैश्वीकरण से मिलने वाले फायदों का ही गुणा-भाग कर रहे थे।  मगर अब जब ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकल चुका है, यूरोप की आर्थिक प्रगति ठहर चुकी है, इटली-यूनान जैसे देश मुश्किल हालात में हैं और पश्चिमी देश तमाम तरह की कारोबारी बंदिशें लगा रहे हैं, तब यह जरूरी हो जाता है कि ब्रिक्स आगे बढ़कर इन चुनौतियों को स्वीकारे और अपने लिए नई राह तलाशे। जोहानिसबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में 27 जुलाई 2018 को खत्म हुई बैठक में इसी पर सहमति बनी है कि किन-किन देशों पर भरोसा करके ब्रिक्स देश आगे बढ़ें। इसमें सफलता की उम्मीद ज्यादा है, क्योंकि तमाम देशों की सहमति पूर्व में विश्व व्यापार संगठन को लेकर रही है। जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही जिस तरह फ्रांस, यूरोप और ब्रिक्स देश आगे बढ़े थे, उससे लगता है कि इस बार भी बात बन जाएगी। हां, यूरोप को साथ लाने की कोशिश हमें छोड़नी नहीं चाहिए, चाहे वह अभी संरक्षणवाद की कितनी भी वकालत क्यों न कर रहा हो?

जरूरत जल्द से जल्द क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी)  को मूर्त रूप देने की है। यह 16 देशों (10 आसियान राष्ट्र और छह एशिया-पैसिफिक देश) के बीच एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है। इस पर सहमति मिलने के बाद न सिर्फ हमारे व्यापार को नई दिशा मिलेगी, बल्कि कुशल श्रमिक व पेशेवरों को भी रोजगार के नए अवसर हासिल होंगे। हमारी कोशिश मुक्त व्यापार की संकल्पना को एशिया में साकार करने की भी होनी चाहिए। इससे ‘ट्रेड वार’ के गति पकड़ने पर हम ज्यादा प्रभावित नहीं होंगे। हालांकि हमें यह काम चीन के साथ कोई गुट बनाए बिना करना होगा, वरना लंबी अवधि में यह हमारे लिए नुकसानदेह हो सकता है।

चौथी औद्योगिक क्रांति की चर्चा भी ब्रिक्स सम्मेलन की उपलब्धि मानी जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी चर्चा अपने भाषण में की। अगर ब्रिक्स देश इस दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो हम आने वाले वर्षों में कई सारे बदलाव के गवाह बनेंगे। चौथी औद्योगिक क्रांति में कौशल व डिजिटल विकास का दिमागी शक्ति से मिलन होगा। इसका हमें काफी फायदा मिल सकता है, क्योंकि भारत सॉफ्टवेयर सर्विस में तेजी से आगे बढ़ा है। हमारी कई सेवाएं अमेरिकी और पश्चिमी देशों को मिलती रही हैं। मगर जिस तरह से हमारे पेशेवरों के सामने वीजा संबंधी दुश्वारियां खड़ी की गई हैं, उसमें बेहतर विकल्प यही है कि ब्रिक्स के दूसरे सदस्य देशों या विकासशील मुल्कों के साथ साझेदारी करके हम आगे बढ़ें।  ब्रिक्स में इसकी चर्चा होने से भारतीय कंपनियां इस दिशा में सक्रिय हो सकेंगी।

ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद भी एक बड़ा मसला था। वहां आतंकवाद के खिलाफ हरसंभव लड़ाई लड़ने पर भी सहमति बनी है। अभी तक चीन जैसे सदस्य देश पाकिस्तान को मदद देकर परोक्ष रूप से इस लड़ाई में अपनी पूरी भागीदारी नहीं निभा पा रहे थे। मगर जिस तरह से अब बीजिंग पर आतंकी जमातों के हिमायती होने का आरोप लगने लगा है, मौजूदा तस्वीर बदलने की उम्मीद बढ़ गई है। पाकिस्तान में भी सत्ता-परिवर्तन हुआ है। इमरान खान वहां के नए वजीर-ए-आजम बनने वाले हैं। उन्होंने अपने हालिया भाषणों में पाकिस्तान को एक स्वच्छ मुल्क बनाने की बात कही है, जिससे लगता है कि वह आतंकी जमातों के खिलाफ कुछ ठोस काम करेंगे। हालांकि उन्होंने सीधे-सीधे किसी का नाम नहीं लिया है, पर चीन व अन्य देशों से संबंध आगे बढ़ाने के लिए वह दहशतगर्दों पर नकेल लगा सकते हैं।

‘बेस्ट प्रैक्टिस फॉलो’ पर सहमति बनना भी गौर करने लायक है।  इसके तहत एक-दूसरे देशों की अच्छी आदतों या कार्यक्रमों को अपने यहां उतारने की बात कही गई है। जैसे, भारत से निकला योग दुनिया के तमाम देशों में फैल गया है। अच्छी बात है कि ‘नॉलेज शेयरिंग’ (ज्ञान साझा करना) की तरफ ब्रिक्स देशों ने गंभीरता दिखाई है। इसकी वकालत भारत हमेशा से करता रहा है।

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