Saturday, 1 February 2020

गुटनिरपेक्षता और हमसंपादकीय ( हिन्दुस्तान)

गुटनिरपेक्षता और हम
संपादकीय ( हिन्दुस्तान) :-

शुक्रवार को अजरबैजान में शुरू हो रहे गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में इस बार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं जा रहे हैं। इस सम्मेलन में जो भारतीय प्रतिनिधिमंडल जा रहा है, उसकी अगुवाई उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू करेंगे। यही पिछली बार 2016 के वेनेजुएला सम्मेलन में भी हुआ था। उस समय भी प्रधानमंत्री नहीं गए थे और उनकी जगह प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था। यह खबर महत्वपूर्ण इसलिए है कि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक रहा है और नई दिल्ली में चाहे किसी भी दल की सरकार हो, प्रधानमंत्री के वहां जाने की रवायत हमेशा बनी रही। इसके पहले तक एक ही अपवाद था, जब चौधरी चरण सिंह गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में नहीं गए थे, क्योंकि उनकी सरकार गिर चुकी थी और वह तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर पद का दायित्व निभा रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगातार दो बार गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में न जाना इसी लिहाज से बड़ी खबर है और अगले कुछ समय तक इसकी तरह-तरह से व्याख्या चलती रहेगी।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन का जन्म तब हुआ था, जब दुनिया पूरी तरह से अमेरिकी और सोवियत खेमे में बंटी थी। पर बहुत से ऐसे देश थे, जो इनमें से किसी भी गुट में शामिल होने को तैयार नहीं थे। ऐसे में, भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासिर और यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिब ब्रोज टीटो ने ऐसे देशों का संगठन खड़ा किया, जो अपने को किसी भी गुट से जोड़कर नहीं देखते थे और इसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नाम दिया गया। कुछ ही साल में यह दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण संगठन बन गया, जब तीसरी दुनिया के ज्यादातर देश इसमें शामिल हो गए थे। लेकिन बाद में जब सोवियत संघ खत्म हुआ और इसके चलते अमेरिकी गुट बेमतलब हो गया, तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बने रहने पर भी सवाल उठने लगे। इस सम्मेलन ने तीसरी दुनिया का पैरोकार बनने की लगातार कोशिश की, जिसमें वह काफी हद तक कामयाब भी रहा। लेकिन फिर भी ध्रुवीकरण के खात्मे ने उसके सामने पहचान का एक संकट तो खड़ा कर ही दिया था।
हालांकि इस तरह के संकट दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सामने भी आते रहे हैं। मसलन, जी-7 संगठन का गठन जिस उद्देश्य से हुआ था, वह कुछ ही समय में खत्म हो गया था, लेकिन विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने अपने इस संगठन के लिए एक नई भूमिका तलाश ली थी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन को इस भूमिका की अभी भी तलाश है। एक उम्मीद थी कि जैसे इस संगठन ने रंगभेद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया था, वैसे ही अब यह आतंकवाद के खिलाफ खड़ा हो सकता है, पर ऐसा नहीं हुआ।
यह भी कहा जा सकता है कि भारत की गुटनिरपेक्ष प्रतिबद्धता उस नेहरू युग की नीति है, जिससे भारतीय विदेश नीति अब दूर जा रही है। लेकिन सच यही है कि भारत ने इससे किनारा नहीं किया है। भारतीय प्रतिनिधिमंडल अभी भी वहां जा रहा है और तीसरी दुनिया के उस बड़े मंच से दूरी बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती, जिसमें भारत की हमेशा बड़ी भूमिका रही हो। पर यह भी सच है कि पिछले कुछ साल में दुनिया जिस तेजी से बदली है, उसमें भारत की प्राथमिकताएं बदल गई हैं, लेकिन इसे नीति का बदलना शायद अभी नहीं कहा जा सकता।

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