Saturday, 1 February 2020

अर्थशास्त्र के नोबेल से गरीबी मिटाने पर फिर फोकस ( दैनिक भास्कर

अर्थशास्त्र के नोबेल से गरीबी मिटाने पर फिर फोकस
  ( दैनिक भास्कर 18 अक्टूबर)

पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में गरीबों की संख्या में बहुत कमी आई है। इसमें भारत व चीन ने सबसे ज्यादा योगदान दिया है। 1995 और 2018 के बीच शिशु मृत्युदर भी 50 फीसदी से घटी है। स्कूल जाने वाले बच्चे 56 से बढ़कर 80 फीसदी हो गए हैं। किसी भी पैमाने से यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। लेकिन, भारत जैसे देश के लिए गरीबी अब भी बहुत बड़ी चुनौती है। अब भी 70 करोड़ से ज्यादा लोग कई तरह की गरीबी का सामना कर रहे हैं- आमदनी, सेहत और शिक्षा संबंधी गरीबी। दुनियाभर में हर साल 50 लाख से ज्यादा बच्चे बुनियादी मेडिकल सुविधा के अभाव में मर जाते हैं। बचे हुए बच्चों में से आधे से ज्यादा पढ़ने, लिखने और हिसाब लगाने की बुनियादी शिक्षा के बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं। इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार ने अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्धारकों का फोकस फिर गरीबों पर ला दिया है। विजेताओं- अभिजीत बनर्जी, उनकी पत्नी एस्तर डल्फो और माइकल क्रेमर ने गरीबी विरोधी नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए अपने शोध में रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल (आरसीटी) नामक पद्धति अपनाई।
यह तकनीक एक सदी से भी ज्यादा समय से दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल में इस्तेमाल होती रही है पर इन अर्थशास्त्रियों ने इसका उपयोग कई देशों के गरीबों के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए किया। इससे नीति के किसी एक आयाम पर ध्यान केंद्रित करना संभव होता है। जैसे भारत सहित विकसित देशों में खराब शिक्षा की समस्या को लें। कई बच्चों के पास किताबें नहीं होती और वे भूखे ही स्कूल जाते हैं। फिर सरकारी स्कूलों में एक ही टीचर एक साथ कई अलग-अलग ग्रेड के बच्चों को पढ़ाता है। सवाल है कि बच्चों की शिक्षा किस बात में बदलाव से बेहतर होगी अधिक किताबें, अधिक शिक्षक या बच्चों को दोपहर का मुफ्त भोजन देने से? क्रेमर ने जवाब तलाशने के लिए केन्या में कई आरसीटी प्रयोग किए। स्कूलों को बेतरतीब तरीके से तीन भिन्न समूहों में बांटकर एक को किताबें तो दूसरे को मुफ्त भोजन दिया और तीसरे को दोनों में से कुछ नहीं दिया। पता चला कि किताबें व भोजन देने से तीसरे ग्रुप की तुलना में कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
बनर्जी और डफ्लो ने मुंबई व वडोदरा में धीमी गति से सीखने वाले बच्चो को शिक्षण सहायक मुहैया कराए गए। बच्चों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा। उसके बाद से भारतीय स्कूलों में कई बच्चों को ऐसी शिक्षण सहायता पहुंचाने के कार्यक्रम शुरू हुए हैं।
इसी तरह उन्होंने डॉक्टरों के लिए प्रोत्साहन व जवाबदेही के अभाव का अध्ययन किया, जो सरकारी डॉक्टरों की गैर-मौजूदगी के रूप में दिखाई दे रहा था। पाया गया कि डॉक्टरों को जवाबदेह बनाकर प्रदर्शन सुधारा जा सकता है। क्रेमर व सहयोगियों ने अपने शोध में पाया कि परजीवियों से होने वाले संक्रमण में कृमि नाशक उपायों की कीमत में थोड़ी वृद्धि से भी मांग बहुत घट जाती है। ये नतीजे स्वाभाविक हैं खासतौर उनके लिए जो विकासशील देशों से वाकिफ हैं। हालांकि, शोध की उपयोगिता नीतिगत प्रभावों को ठीक-ठीक आंकने और यह समझने में है कि किसी नीति को कारगर बनाने में कैसे बदलाव किया जाए। जब अपने बच्चों का टीकाकरण कराने वाले परिवारों को मुफ्त में दालें दी गईं तो टीकाकरण 6 फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुंच गया।
एक अन्य प्रयोग में डफ्लो व क्रेमर ने बताया कि लोग आधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को लेकर उदासीन रहते हैं। कम लागत की प्राकृतिक खाद जैसे आसान उपाय भी छोटे खेतों के मालिक अपनाने से उदासीन रहते हैं, फिर चाहे उन्हें बहुत फायदा मिलने की संभावना क्यों न हो। उन्होंने प्रयोगों से दिखाया कि स्थायी के बजाय अस्थायी सब्सिडी ज्यादा असरदार होती है। जैसे यदि टॉयलेट बनाने के लिए थोड़े समय की सब्सिडी होती तो लोग तेजी से टॉयलेट बनवाते, क्योंकि उन्हें सब्सिडी गंवाने का डर होता। हालांकि नीति निर्धारिकों को रिसर्च और नीति निर्धारण को सीधे जोड़ने में सावधानी बरतनी चाहिए। जैसे मध्याह्न भोजन से सीखने का स्तर न बढ़ने का मतलब यह नहीं कि मध्याह्न भोजन रोक देना चाहिए। इसी तरह यह दलील की अल्पावधि के कॉन्ट्रेक्ट के जरिये शिक्षकों का प्रदर्शन सुधारा जा सकता है। यही स्कूलों के निजी क्षेत्र में होता है। पर औसत सरकारी व प्राइवेट स्कूल एक जैसे होते हैं। इसी तरह निजी अस्पताल कॉन्ट्रेक्ट पर डॉक्टर रखते हैं पर वे इतने महंगे होते हैं कि ज्यादातर भारतीयों की पहुंच से बाहर होते हैं। सारे सोच-विचार के बाद तीव्र आर्थिक प्रगति और अच्छी सार्वजनिक सेवाएं ही गरीबों की स्थिति सुधारने की कुंजी है। अब भारत घोर गरीबी में रहने वाली सबसे बड़ी आबादी वाला देश नहीं रहा है। जाहिर है पिछले तीन दशकों में हुई तीव्र प्रगति इसकी वजह है।

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