महिला आरक्षण और कब
मुद्दा क्या है
• लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के लिए संविधान संशोधन करने का यह सबसे अच्छा समय है।
• महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन 108 वां विधेयक राज्यसभा में पहले से पारित है।
• यह विधेयक 2010 में राज्यसभा में पारित हुआ, पर तब यह लोकसभा में पारित नहीं हो पाया था और 2014 में लोकसभा भंग होने के साथ ही यह रद्द हो गया था। चूंकि राज्यसभा स्थायी सदन है, इसलिए यह बिल अभी जिंदा है।
• अब लोकसभा इसे पारित कर दे, तो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह कानून बन जाएगा।
• 2019 के लोकसभा चुनाव नए कानून के तहत हो सकते हैं और नई लोकसभा में 33 फीसदी महिलाएं आ सकती हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए अब सिर्फ एक साल का समय बचा है।
महिलाओं की स्तिथि
• दरअसल भारतीय समाज कई स्तरों में विभाजित है। लिंगभेद यहां का अकेला विभाजन नहीं है।भारत में सभी औरतें समान नहीं हैं।
• मिसाल के तौर पर एक हिंदू सवर्ण शहरी महिला स्त्री होने का भेद तो झेलती है, पर उन भेदभावों को नहीं झेलती, जो एक दलित या ओबीसी या ग्रामीण महिला झेलती है।
• निचली जातियों की महिलाएं एक साथ पुरुष सत्ता और जाति का बोझ झेलती हैं।
• ग्रामीण या कम पढ़ी-लिखी या गरीब महिलाओं के मामले में यह बोझ कई गुना बढ़ जाता है।
• संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में दलित महिलाएं सवर्ण महिलाओं से 14.6 साल पहले ही मर जाती हैं। यदि जनगणना के जरिये ओबीसी के आंकड़े जुटाए जाएं, तो ऐसे ही परिणाम आ सकते हैं।
• मुमकिन है कि ओबीसी की स्थिति दलितों से थोड़ी कम भयावह हो। अल्पसंख्यक महिलाओं की स्थिति भी बुरी है।
महत्वपूर्ण पहलू
1. ऐसी आशंका है कि इन विभाजनों का ख्याल रखे बगैर यदि महिला आरक्षण विधेयक पारित किया जाता है, तो लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर ज्यादातर शहरी सवर्ण अमीर महिलाएं आ जाएंगी, क्योंकि निचली और मझौली जाति की महिलाएं अभी उस स्तर पर नहीं पहुंची हैं कि शहरी सवर्ण महिलाओं के मुकाबले में जीत पाएं।
2. हालांकि इसकी पुष्टि के लिए कोई आंकड़ा या तथ्य नहीं है, पर यह आशंका कायम है। एक आशंका यह भी है कि महिला आरक्षण से लोकसभा और विधानसभाओं का सामाजिक चरित्र बदल जाएगा।
3. 1990 के बाद से भारतीय राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार के बाद लोकसभा और विधानसभाएं ज्यादा समावेशी बनी हैं। इससे भारतीय लोकतंत्र में विविधता आई है।
4. कुछ लोगों को आशंका है कि महिला आरक्षण विधेयक का मौजूद स्वरूप इस बदलाव को खारिज कर देगा और लोकसभा और विधानसभाओं में सवर्ण वर्चस्व कायम हो जाएगा।
आगे का मार्ग
• पर ये सब सिर्फ आशंकाएं हैं। अगर वर्तमान सरकार अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में महिला आरक्षण विधेयक पारित करना चाहती है, तो उसे एक नया विधेयक संसद में लाना चाहिए।
• इस विधेयक में उन आशंकाओं का समाधान करने की कोशिश होनी चाहिए, जिनकी वजह से कुछ दल इसका विरोध कर रहे हैं। जरूरी नहीं कि सरकार विरोधियों की बात मान ही ले, पर सरकार को सभी दलों की राय लेकर आम सहमति बनानी चाहिए।
• आम सहमति से अगर यह कानून बना, तो सबसे अच्छा होगा। लेकिन आम सहमति को महिला आरक्षण न देने का बहाना नहीं बनाना चाहिए।
• इस मामले में सबसे जरूरी है कि सरकार अपना पक्ष रखे और उस पर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हो।
• लोकसभा में सत्ताधारी गठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल है, यानी वर्तमान सरकार को वह दिक्कत नहीं है, जो पूर्ववर्ती सरकार को थी।
• पूर्व सरकार का अपना बहुमत नहीं था और कई समर्थक दल महिला आरक्षण विधेयक को मौजूदा रूप में पारित करने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन मौजूदा लोकसभा में न सिर्फ सत्ताधारी गठबंधन का बहुमत है, बल्कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भी महिला आरक्षण के समर्थन में है।
• इसके अलावा वामपंथी दल भी महिला आरक्षण लागू करना चाहते हैं। ऐसे में यह सरकार पर है कि वह महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल लाए।
• इसके बिना भारत में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व संभव नहीं दिखता।
• इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन की रिपोर्ट के मुताबिक, संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में दुनिया के 193 देशों में भारत का स्थान 148वां है।
• भारत इस मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है। क्या वर्तमान सरकार महिला आरक्षण बिल संसद में पारित कराने की कोशिश करेगी?
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