#स्त्री #का #हक!!
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#संपादकीय(#जनसत्ता)
सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला स्त्रियों की एक बड़ी जीत है। यों तो हमारे संविधान ने जाति, धर्म, भाषा, लिंग आदि आधारों पर हर तरह के भेदभाव की मनाही कर रखी है। लेकिन हम देखते हैं कि सामाजिक असलियत कुछ और है। समाज में अनेक प्रकार के भेदभाव होते हैं, और इनमें सबसे ज्यादा व्यापक भेदभाव स्त्रियों के प्रति होता है। यह वैयक्तिक और पारिवारिक स्तर पर तो होता ही है, संस्थागत तौर पर भी होता है। केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर का मामला इसी तरह का है, जहां दस साल से पचास साल की आयु की स्त्रियों के प्रवेश पर पाबंदी रही है। मासिक धर्म से जुड़ी एक रूढ़ धारणा के आधार पर जमाने से थोपे गए या चले आ रहे इस प्रतिबंध को हटाने की मांग दशकों से होती रही है। लेकिन अब जाकर इसमें सफलता मिली है। सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश पर चले आ रहे प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए बुधवार को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मंदिर सार्वजनिक संपत्ति हैं; यदि पुरुषों को प्रवेश की अनुमति है तो फिर महिलाओं को भी मिलनी चाहिए; पूजा करना महिलाओं का संवैधानिक हक है और मंदिर में कोई भी जा सकता है। यह फैसला देकर अदालत ने हमारे संवैधानिक प्रावधानों की ही पुष्टि की है।
हमारा संविधान लैंगिक आधार पर किसी अवसर से वंचित किए जाने की इजाजत नहीं देता। यही नहीं, कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत हमारे संविधान की एक मौलिक विशेषता रही है। अदालत का ताजा फैसला इसी के अनुरूप आया है। लेकिन इन संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद सबरीमाला में स्त्रियों के प्रवेश पर पाबंदी चलती रही, तो इसकी खासकर दो वजहें हैं। एक यह कि पूजा-पाठ और धार्मिक रीति-रिवाज के मामलों में पारंपरिक मान्यताएं ही काफी हद तक नियम-निर्धारण का काम करती रही हैं। दूसरे, हमारे संविधान ने भी धार्मिक स्वायत्तता का भरोसा दिलाया हुआ है। लेकिन समय के साथ जब पारंपरिक मान्यताओं के साथ द्वंद्व शुरू हुआ तो सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों को भी प्रवेश की अनुमति देने की मांग जोर पकड़ती गई। अलबत्ता सबरीमाला मामले में केरल सरकार का रवैया एक-सा नहीं रहा। मसलन, राज्य सरकार ने 2015 में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था, लेकिन 2017 में विरोध किया था। सबरीमाला मामले को महत्त्वपूर्ण मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे पिछले साल पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया। इस तरह के दो और चर्चित मामले थे- एक शनि शिंगणापुर का, और दूसरा, हाजी अली दरगाह का। अलग-अलग समुदाय से ताल्लुक रखने वाले इन दोनों धार्मिक स्थानों पर स्त्रियों के जाने की मनाही थी।
जब पाबंदी हटाने की मांग वाली याचिकाओं पर मुंबई उच्च न्यायालय में सुनवाई शुरू हुई तो प्रबंधकों और न्यासियों ने पारंपरिक मान्यताओं के अलावा धार्मिक स्वायत्तता के संवैधानिक प्रावधान की भी दलील पेश की थी। लेकिन उच्च न्यायालय ने वे सारी दलीलें खारिज कर दीं, और कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को तरजीह देते हुए पहले शनि शिंगणापुर में और फिर हाजी अली दरगाह में स्त्रियों के प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया। अब वैसा ही फैसला सर्वोच्च अदालत ने सबरीमाला के मामले में सुनाया है। इससे जाहिर है कि भले संविधान ने धार्मिक स्वायत्तता की गारंटी दे रखी हो, पर इसकी सीमा है; धार्मिक स्वायत्तता वहीं तक मान्य है जब तक वह संविधान-प्रदत्त नागरिक अधिकारों के आड़े नहीं आती। इस फर्क को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए ताकि परंपरा और धार्मिक रीति-रिवाज कहीं भी सामाजिक समानता और नागरिक अधिकारों की अवहेलना का जरिया न बन पाएं।
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