Thursday 14 June 2018

जवाबदेही-पारदर्शिता हो पहली शर्त (दैनिक ट्रिब्यून)

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हर्षदेव
प्रशासनिक पदों पर निजी क्षेत्र से सीधे नियुक्तियों के केंद्र सरकार के फैसले पर बहस छिड़ गई है। इसके पक्ष में अतीत में इसी तरीके से की गई नियुक्तियों का तर्क दिया जा रहा है तो संदेह और सवाल भी उठाए जा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि यह बेहद संवेदनशील मामला है और केवल राजनीतिक दलीलों के सहारे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता।
इस पहल के पक्ष में अतीत की अनेक नियुक्तियों के उदाहरण भी हैं। विजय केलकर 1998-99 में सीधे वित्त सचिव बनाए गए। (जीएसटी का ढांचा उन्हीं ने बनाया है।) उससे पहले मनमोहन सिंह 1972 में इसी तरह नियुक्त किए गए। मोंटेकसिंह अहलूवालिया भी वित्त सचिव बनाए गए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष और आर्थिक सलाहकारों का नियोजन तो इसी तरीके से किया जाता रहा है।
स्पष्ट है, यह नई शुरुआत नहीं है, और न प्रशासनिक सुधारों की जरूरत पहली बार महसूस की गई है। इन सुधारों का ध्यान 1960 के दशक में तब आया, जब औद्योगिक प्रबंधन निकाय गठित करके तंत्र को कुशल बनाने के लिए 1959 में तीन विशेषज्ञ- लवराज कुमार, पी.एल. टंडन और वी. कृष्णमूर्ति नियोजित किए गए। नौकरशाहों की लॉबी इससे खासी परेशान हुई। कदम-कदम पर अड़ंगे लगाए। इस अनुभव से ही 1965 में प्रशासनिक सुधार आयोग का विचार पनपा। जनवरी, 1966 में मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में आयोग बना। उपप्रधानमंत्री बनने पर उनकी जगह के. हनुमंथैया ने ली। आयोग ने 1975 तक कुल 20 हिस्सों में 13 रिपोर्ट दीं, जिनमें 537 सिफारिशें की गई थीं। 2003 और 2004 में फिर क्रमशः सुरिंदर नाथ आदि की अध्यक्षता में आयोग गठित हुए। इन आयोगों की कितनी सिफारिशें लागू हुईं, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।
भाजपा सांसद उदितराज ने सीधे नियुक्तियों के जरिए आरक्षण की अनदेखी की मंशा का शक जताया है। उनका कहना है कि यदि ऐसा हो तो आरक्षण के नियमों का पालन करते हुए ही हो। सीपीएम के सीताराम येचुरी ने कहा है कि विश्वविद्यालयों में भी सरकार ने अपारदर्शी तरीके से नियुक्तियों का सिलसिला बना लिया है। कांग्रेस के पी. चिदंबरम ने इसे नौकरशाही को वफादार रखने की कोशिश करार देते हुए मांग की है कि पहले पूरी योजना विस्तार से बताई जाए और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।
संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से चुने जाने वाले व्यक्ति विभिन्न शैक्षिक पृष्ठभूमि से आते हैं। उनका सामान्य ज्ञान अन्य से बहुत बेहतर होता है और साथ ही बुद्धिचातुर्य भी। अनुभव और समय उनको विशिष्ट बनाता चलता है और वे वरिष्ठता के पायदान चढ़ते जाते हैं। फिर भी, उनके पास किसी भी विषय की विशेषज्ञता नहीं होती है, जबकि आज उसकी पहले से कहीं ज्यादा आवश्यकता है। आज समूची प्रशासनिक व्यवस्था पर बाज़ार और पूंजी की गहरी पकड़ है। शासन-प्रशासन इन महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तनों के कारण पूर्व की तुलना में अधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण होता गया है। इस दृष्टि से हर विषय की बारीकियों और पेचीदगियों की गहरी जानकारी भी अनिवार्य हो गई है। इस दायित्व का निर्वाह अपने क्षेत्र में प्रवीणता प्राप्त व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव है।
ब्रिटेन, अमेरिका, बेल्जियम, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में प्रशासनिक कुशलता के लिहाज से विशेषज्ञों की नियुक्तियां आम हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में सफल व्यक्ति हरफनमौला नहीं हो सकता। हाल के वर्षों में अनेक नए कार्यक्षेत्रों का उदय हुआ है। इनमें आईटी, पर्यावरण, अक्षय ऊर्जा, बौद्धिक सम्पदा और जलवायु जैसे कुछ विषय खास तौर पर हैं। ऐसे सभी विशेषज्ञता प्रबंधन की दरकार वाले क्षेत्र प्रशासनिक से अधिक तकनीकी ज्ञान की मांग करते हैं।
नौकरशाहों को इस फैसले से तकलीफ होना स्वाभाविक है। लेकिन यदि उनकी कार्यनिष्ठा, ईमानदारी, समर्पणभाव की बात करें तो उनके लिए उत्तर देना भी कठिन हो जाएगा। सच्चाई यह है कि चयन होने के बाद नौकरशाह बनते ही उनका दिमाग दो ही बातों पर टिक जाता है—मलाईदार महकमा और सत्ताधारियों से गहरा रसूख। हर्ष मंदर और अशोक खेमका जैसे कितने बाबू हैं, जिन्हें समर्पित माना जा सकता है। शोध करने वालों का कहना है कि नौकरशाह की एक साल की औसत कमाई 50 से 100 करोड़ के बीच होती है। यूपी की नीरा यादव या फिर मध्य प्रदेश के युगल अरविन्द और पत्नी टीनू जोशी की याद तो होगी। नीरा यादव सपा के एक नेताजी की आंखों का तारा बनकर रहीं। और अरविन्द दम्पति तो भ्रष्टाचार की मिसाल बन गया। अथाह संपत्ति बरामद की गई, जो जानने वालों के मुताबिक उनके खजाने का एक हिस्सा ही था। इस हिस्से में भी दिल्ली-गुवाहाटी और भोपाल में 26 फ्लैट, सैकड़ों बीघा कृषि और गैर-कृषि भूमि, कई किलो सोना या सोने के गहने और करोड़ों की नकदी शामिल है। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने पिछले दिनों भ्रष्ट नौकरशाहों की सूची वेबसाइट पर डाल दी थी और उनकी जांच करने की जरूरत बताई थी। बाद में उसे हटा लिया गया। सरकार ने 2017 में संसद में बताया था कि 48 नौकरशाहों पर भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे हैं, लेकिन ये तो हांडी के चावल का नमूना मात्र हैं।
इन तमाम तर्कों और प्रश्नों के दृष्टिगत प्रशासनिक पदों पर सीधे नियुक्तियों की पहल सार्थक और कारगर नतीजे दे सकती है, लेकिन यहां हर लिहाज से बहुत ही अहम सवाल है, इस पूरी प्रक्रिया की पारदर्शिता और जवाबदेही का।
सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून।

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