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अभिषेक कुमार सिंह
क्रिकेट के महानतम बल्लेबाजों में से एक सचिन तेंदुलकर के सुपुत्र अर्जुन हाल में जब भारत की अंडर-19 क्रिकेट टीम में जगह बनाने में सफल रहे तो क्रिकेट के वंशवाद के उठे रहे आरोपों का एक जवाब उनके कोच अतुल गायकवाड़ ने दिया। उन्होंने कहा कि लोगों को अर्जुन के नाम में जुड़े तेंदुलकर सरनेम की बजाय उनके ऑल-राउंड खेल को देखना चाहिए। हालांकि, इस जवाब से आगे की आलोचनाएं तभी शांत होंगी, जब मैदान में अर्जुन अपने पिता से आगे जाकर प्रतिभा दिखाएंगे। मगर, यदि वे क्रिकेट की बजाय उस फुटबॉल में जगह बनाने और कोई कमाल दिखाने की कोशिश करते तो न सिर्फ भविष्य में वह अपने सरनेम से जोड़कर देखे जाने वाली निगाहों से बच जाते, बल्कि हो सकता है कि देश में क्रिकेट के सामने लगभग निस्तेज खेल उस फुटबॉल को भी थोड़ी तवज्जो मिल जाती, जिस विश्व कप की शुरुआत रूस में हो रही है।
क्रिकेट के मुकाबले दूसरे तमाम खेलों की हमारे देश में क्या हैसियत है, इसकी एक मिसाल हाल ही में मिली है। यह उदाहरण भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील छेत्री का उस मार्मिक अपील के रूप में दिखा, जो उन्होंने फुटबॉल प्रेमियों से केन्या के साथ हुए मैच को देखने के लिए एक वीडियो के रूप में इस संदेश के साथ जारी की थी कि फैंस उनका मैच देखने स्टेडियम में आएं। फुटबॉल के दर्शकों ने इस चर्चित अपील का मान रखा और स्टेडियम भर दिया। सुनील छेत्री ने भी दम लगाया और उस मैच में केन्या को 3-0 से शिकस्त दी। यूं कह सकते हैं कि ये वाकया सार्थक-सकारात्मक परिणतियों के साथ खत्म हुआ, लेकिन यहां विचारणीय प्रश्न है कि क्रिकेट हमारे देश को क्या दे रहा है जो दूसरे खेलों में नहीं है।
क्रिकेट के महानतम बल्लेबाजों में से एक सचिन तेंदुलकर के सुपुत्र अर्जुन हाल में जब भारत की अंडर-19 क्रिकेट टीम में जगह बनाने में सफल रहे तो क्रिकेट के वंशवाद के उठे रहे आरोपों का एक जवाब उनके कोच अतुल गायकवाड़ ने दिया। उन्होंने कहा कि लोगों को अर्जुन के नाम में जुड़े तेंदुलकर सरनेम की बजाय उनके ऑल-राउंड खेल को देखना चाहिए। हालांकि, इस जवाब से आगे की आलोचनाएं तभी शांत होंगी, जब मैदान में अर्जुन अपने पिता से आगे जाकर प्रतिभा दिखाएंगे। मगर, यदि वे क्रिकेट की बजाय उस फुटबॉल में जगह बनाने और कोई कमाल दिखाने की कोशिश करते तो न सिर्फ भविष्य में वह अपने सरनेम से जोड़कर देखे जाने वाली निगाहों से बच जाते, बल्कि हो सकता है कि देश में क्रिकेट के सामने लगभग निस्तेज खेल उस फुटबॉल को भी थोड़ी तवज्जो मिल जाती, जिस विश्व कप की शुरुआत रूस में हो रही है।
क्रिकेट के मुकाबले दूसरे तमाम खेलों की हमारे देश में क्या हैसियत है, इसकी एक मिसाल हाल ही में मिली है। यह उदाहरण भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील छेत्री का उस मार्मिक अपील के रूप में दिखा, जो उन्होंने फुटबॉल प्रेमियों से केन्या के साथ हुए मैच को देखने के लिए एक वीडियो के रूप में इस संदेश के साथ जारी की थी कि फैंस उनका मैच देखने स्टेडियम में आएं। फुटबॉल के दर्शकों ने इस चर्चित अपील का मान रखा और स्टेडियम भर दिया। सुनील छेत्री ने भी दम लगाया और उस मैच में केन्या को 3-0 से शिकस्त दी। यूं कह सकते हैं कि ये वाकया सार्थक-सकारात्मक परिणतियों के साथ खत्म हुआ, लेकिन यहां विचारणीय प्रश्न है कि क्रिकेट हमारे देश को क्या दे रहा है जो दूसरे खेलों में नहीं है।
खास तौर से रूस में आयोजित हो रहे फीफा वर्ल्ड कप को लें तो पूछा जा सकता है कि आखिर फुटबॉल का हमारे मुल्क में कोई खास रोमांच और करिअर क्यों नहीं है। हमारी नजर में भले ही क्रिकेट एक महान खेल बन चुका हो पर सच्चाई यही है कि दुनिया के लेवल पर क्रिकेट कहीं नहीं ठहरता। इसकी मिसाल देखना चाहें तो हाल में फोर्ब्स द्वारा जारी दुनियाभर में सबसे ज्यादा कमाई करने वाले सौ खिलाड़ियों की लिस्ट पर नजर डाल सकते हैं। इसमें शामिल इकलौते भारतीय खिलाड़ी क्रिकेटर विराट कोहली हैं। क्रिकेट के मुरीद इस पर अपने कंधे थपथपाकर कह सकते हैं कि हमारे देश में इसलिए क्रिकेट को इतनी तवज्जो मिली हुई है, पर इसके दूसरे पहलू पर वे गौर करेंगे तो पाएंगे कि सौ खिलाड़ियों की इस सूची में विराट कोहली 83वें स्थान पर हैं। विराट एक साल में क्रिकेट की सारी चमक-दमक के बावजूद 161 करोड़ रुपये कमा पाए, जबकि इसी लिस्ट में पहले नंबर पर आए अमेरिकी मुक्केबाज फ्लॉयड मेवेदर की सालाना कमाई विराट से दस गुने से ज्यादा 1913.3 करोड़ रुपये बताई गई। यही नहीं, इन सौ खिलाड़ियों में से 40 बास्केटबॉल के हैं, 18 रग्बी (अमेरिकन फुटबॉल) के, 14 बेसबॉल के, 9 फुटबॉल के और पांच गोल्फ खिलाड़ी हैं। इनके अलावा टेनिस और बॉक्सिंग के चार-चार खिलाड़ी कमाई के बल पर इस लिस्ट में शामिल हैं। ऐसे में समझ नहीं आता कि हम इस लिस्ट में विराट के शामिल होने का जश्न मनाएं या चिंता करे कि वह भारत के समूचे खेल जगत से अकेले खिलाड़ी हैं, जिसकी कमाई देश में सबसे ज्यादा है, बशर्ते सरकार उसमें से एक-तिहाई हिस्सा लेने का कोई जतन न करे।
असल में, भारत में क्रिकेट को मिलते प्यार और तवज्जो का ही नतीजा है कि अन्य खेलों और खिलाड़ियों की हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। सिर्फ भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में ही क्रिकेट को लेकर जो पागलपन है, उसने बाकी खेलों को कहीं का नहीं छोड़ा है। वह तो आईपीएल जैसे सिनेमाई-ड्रामाई और हकीकत में खेल का कोई वास्तविक भला न करने वाले आयोजनों ने भारत में क्रिकेट की चांदी करा रखी है, वरना आज की तारीख में पांच दिवसीय टेस्ट मैच देखने की कूवत भला किसमें बची थी। यही वजह है कि दक्षिण एशिया से बाहर तकरीबन हर जगह क्रिकेट का खुमार उतार पर है। इसकी बजाय वहां फुटबॉल, बॉक्सिंग, रग्बी, बेसबॉल और टेनिस, बैडमिंटन आदि की तूती बोल रही है। खास तौर से जिस फुटबॉल को हम रत्ती भर नहीं पूछते, बाहर के देशों में उसकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से चढ़ रहा है।
नि:संदेह फुटबॉल का एक अलग आकर्षण है। लगता है फुटबॉल के खेल में ही कुछ खास बात है। असल में यह एक सरल-सा खेल है, जिसमें टीम भावना और रणनीति के अलावा एक अकेले व्यक्ति की ऊर्जा और उल्लास का उछाल भी देखने को मिलता है। इसमें मनुष्य की गति, स्फूर्ति, चपलता और दूसरों को छकाने को जो कौशल है, वह किसी और खेल में नहीं। न तो तकनीक का इस खेल में कोई खास दखल है, न ही बाजार का। टीवी पर क्रिकेट मैचों के प्रसारण की तरह यहां मिनट-मिनट पर विज्ञापन देखने को नहीं मिलते और टेनिस जैसा स्टाइल स्टेटमेंट भी नजर नहीं आता। फुटबॉल अमीर-गरीब की खाई और गोरे-काले का भेद मिटा देती है। लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे अपेक्षाकृत गरीब इलाकों से महान फुटबॉलर निकलते रहे हैं। सच कहें तो यह खेल जीवन को भरपूर जीने की आकांक्षा का प्रतीक है। इसलिए हर चार साल पर आने वाले इस महाकुंभ का हर किसी को इंतजार रहता है। अगर दूसरे विश्वयुद्ध के दौर को छोड़ दें तो तमाम रंजिशों और कूटनीतिक घेरेबंदी के बावजूद विभिन्न देश इसमें शामिल होते रहे हैं।
गौरतलब है कि फेडरेशन इंटरनेशनल द फुटबॉल एसोसिएशन (फीफा) का गठन 1904 में पेरिस में हुआ था। सन् 1920 के दशक में इसके अध्यक्ष जूल रिमे और फ्रांस के फुटबॉल प्रशासकों ने दुनिया की बेहतरीन फुटबॉल टीम तय करने के लिए प्रतियोगिता कराने का विचार किया। 1929 में फीफा ने एक प्रस्ताव पारित करके विश्व कप फुटबॉल आयोजित कराने का फैसला किया। इस तरह 1930 में इसकी शुरुआत हुई। तब से लेकर आज तक इसके लिए दीवानगी लगातार बढ़ी है।
दरअसल, हमारे देश में फुटबॉल ही नहीं, कई खेलों की संभावनाओं को ठीक से खोजा नहीं गया है। अगर दर्शकों तक खेल पहुंचे, प्रशिक्षण सुविधाएं हों और खेल में पैसा हो तो उससे खेल का स्तर भी सुधरेगा और उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी। क्रिकेट से बाहर हॉकी, फुटबॉल, निशानेबाजी, तीरंदाजी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, ये ऐसे खेल हैं, जिनमें भारत बड़ी ताकत बन सकता है, बशर्ते कि व्यवस्थित कोशिशें की जाएं। इन तमाम खेलों में आज हम वहां हैं, जहां से एक कदम आगे बढ़ने पर हम बड़ी ताकत बन जाएं। व्यावसायिक लीगें इस नजरिये से काफी महत्वपूर्ण हो सकती हैं, क्योंकि दर्शकों को खेल तक लाने के अलावा वह नई प्रतिभाओं को भी आकर्षित कर सकती है। उम्मीद करें कि जैसे सद्प्रयासों से क्रिकेट को देश में एक मुकाम दिलाया गया है, वैसी ही कुछ कोशिशें फुटबॉल और बाकी खेलों में शुरू होंगी। और इसके लिए सुनील छेत्री को कोई मार्मिक अपील नहीं करनी पड़ेगी।
असल में, भारत में क्रिकेट को मिलते प्यार और तवज्जो का ही नतीजा है कि अन्य खेलों और खिलाड़ियों की हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। सिर्फ भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में ही क्रिकेट को लेकर जो पागलपन है, उसने बाकी खेलों को कहीं का नहीं छोड़ा है। वह तो आईपीएल जैसे सिनेमाई-ड्रामाई और हकीकत में खेल का कोई वास्तविक भला न करने वाले आयोजनों ने भारत में क्रिकेट की चांदी करा रखी है, वरना आज की तारीख में पांच दिवसीय टेस्ट मैच देखने की कूवत भला किसमें बची थी। यही वजह है कि दक्षिण एशिया से बाहर तकरीबन हर जगह क्रिकेट का खुमार उतार पर है। इसकी बजाय वहां फुटबॉल, बॉक्सिंग, रग्बी, बेसबॉल और टेनिस, बैडमिंटन आदि की तूती बोल रही है। खास तौर से जिस फुटबॉल को हम रत्ती भर नहीं पूछते, बाहर के देशों में उसकी लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से चढ़ रहा है।
नि:संदेह फुटबॉल का एक अलग आकर्षण है। लगता है फुटबॉल के खेल में ही कुछ खास बात है। असल में यह एक सरल-सा खेल है, जिसमें टीम भावना और रणनीति के अलावा एक अकेले व्यक्ति की ऊर्जा और उल्लास का उछाल भी देखने को मिलता है। इसमें मनुष्य की गति, स्फूर्ति, चपलता और दूसरों को छकाने को जो कौशल है, वह किसी और खेल में नहीं। न तो तकनीक का इस खेल में कोई खास दखल है, न ही बाजार का। टीवी पर क्रिकेट मैचों के प्रसारण की तरह यहां मिनट-मिनट पर विज्ञापन देखने को नहीं मिलते और टेनिस जैसा स्टाइल स्टेटमेंट भी नजर नहीं आता। फुटबॉल अमीर-गरीब की खाई और गोरे-काले का भेद मिटा देती है। लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे अपेक्षाकृत गरीब इलाकों से महान फुटबॉलर निकलते रहे हैं। सच कहें तो यह खेल जीवन को भरपूर जीने की आकांक्षा का प्रतीक है। इसलिए हर चार साल पर आने वाले इस महाकुंभ का हर किसी को इंतजार रहता है। अगर दूसरे विश्वयुद्ध के दौर को छोड़ दें तो तमाम रंजिशों और कूटनीतिक घेरेबंदी के बावजूद विभिन्न देश इसमें शामिल होते रहे हैं।
गौरतलब है कि फेडरेशन इंटरनेशनल द फुटबॉल एसोसिएशन (फीफा) का गठन 1904 में पेरिस में हुआ था। सन् 1920 के दशक में इसके अध्यक्ष जूल रिमे और फ्रांस के फुटबॉल प्रशासकों ने दुनिया की बेहतरीन फुटबॉल टीम तय करने के लिए प्रतियोगिता कराने का विचार किया। 1929 में फीफा ने एक प्रस्ताव पारित करके विश्व कप फुटबॉल आयोजित कराने का फैसला किया। इस तरह 1930 में इसकी शुरुआत हुई। तब से लेकर आज तक इसके लिए दीवानगी लगातार बढ़ी है।
दरअसल, हमारे देश में फुटबॉल ही नहीं, कई खेलों की संभावनाओं को ठीक से खोजा नहीं गया है। अगर दर्शकों तक खेल पहुंचे, प्रशिक्षण सुविधाएं हों और खेल में पैसा हो तो उससे खेल का स्तर भी सुधरेगा और उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी। क्रिकेट से बाहर हॉकी, फुटबॉल, निशानेबाजी, तीरंदाजी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, ये ऐसे खेल हैं, जिनमें भारत बड़ी ताकत बन सकता है, बशर्ते कि व्यवस्थित कोशिशें की जाएं। इन तमाम खेलों में आज हम वहां हैं, जहां से एक कदम आगे बढ़ने पर हम बड़ी ताकत बन जाएं। व्यावसायिक लीगें इस नजरिये से काफी महत्वपूर्ण हो सकती हैं, क्योंकि दर्शकों को खेल तक लाने के अलावा वह नई प्रतिभाओं को भी आकर्षित कर सकती है। उम्मीद करें कि जैसे सद्प्रयासों से क्रिकेट को देश में एक मुकाम दिलाया गया है, वैसी ही कुछ कोशिशें फुटबॉल और बाकी खेलों में शुरू होंगी। और इसके लिए सुनील छेत्री को कोई मार्मिक अपील नहीं करनी पड़ेगी।
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