भू-उपयोग नीति में बदलाव तटीय पर्यावरण के लिए खतरा
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पिछले दो महीनों में राष्टरीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने दो बड़े बदलावों का प्रस्ताव रखा है जिससे देश में निवेश और बुनियादी ढांचे के विकास को गति मिल सकती है। इन बदलावों से पर्यावरणीय और
भू-उपयोग नीति में बदलाव तटीय पर्यावरण को करेगा बदहाल!
पिछले दो महीनों में राष्टरीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने दो बड़े बदलावों का प्रस्ताव रखा है जिससे देश में निवेश और बुनियादी ढांचे के विकास को गति मिल सकती है। इन बदलावों से पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियां भी उभरकर आ सकती हैं। पहला बदलाव मार्च में वन नीति के मसौदे के रूप में सामने आया। अप्रैल में सरकार ने तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित रखने वाले पर्यावरण सुरक्षा नियमों में संशोधन का प्रस्ताव रखा।
इन दो बदलावों से भूमि की दो श्रेणियों में भूमि इस्तेमाल नीति में बदलाव होगा। इनमें 7,000 किमी की तटीय सीमा और 7 लाख वर्ग किमी में फैला वनक्षेत्र शामिल है। इन बदलावों के लिए संसद की मंजूरी की जरूरत नहीं है और इन्हें सरकार अपने स्तर पर ही लागू कर सकती है। सरकार ने 2015 में भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानूनों में संशोधन की कोशिश की थी लेकिन उसे राज्य सभा में विपक्ष के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन भूमि इस्तेमाल नीति में संशोधन करने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी।
वन नीति के मसौदे में पिछली नीति को पूरी तरह पलट दिया गया है। इसमें निजी क्षेत्र को यह अनुमति दी गई है कि वह सरकार के संरक्षण वाले वनों में अपने लिए कच्चा माल उगा सकता है। कागज, लुगदी और लकड़ी आधारित उद्योग पिछले करीब दो दशक से इसकी मांग कर रहा है। कई सरकारों ने इस मांग पर बात आगे बढ़ाई लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा। राजग ने भी 2015 में एक कोशिश की थी लेकिन वह भी इसमें नाकाम रहा।
सरकार के पास लाखों वर्ग किमी वन क्षेत्र है जहां बड़ी संख्या में आदिवासी और वनवासी रहते हैं। अपनी आजीविका के लिए वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों पर निर्भर हैं। 2006 में वन अधिकार कानून के पारित होने से पहले तक भारतीय कानूनों में उन्हें मान्यता नहीं दी गई थी। नई नीति से राज्यों को भारतीय वन कानून, 1927 में ऐसे नियम बनाने की अनुमति मिल जाएगी जो निजी निवेश को बढ़ावा देते हैं। फिलहाल इस बारे में नियमों में कुछ नहीं है।
तटीय इलाकों के संरक्षण के लिए नए मसौदा नियमों को तटीय नियमन क्षेत्र अधिसूचना नाम दिया गया है। इसमें तटीय क्षेत्रों को बुनियादी क्षेत्र और रियल एस्टेट के विकास के लिए खोलने की बात कही गई है। इस तरह समुद्र तट के करीब स्थित जमीन का रास्ता रियल एस्टेट डेवलपरों, होटल उद्योग और बुनियादी ढांचा क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए खुल सकता है।
केंद्र सरकार ने सागरमाला कार्यक्रम के तहत बंदरगाहों से संबधित बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 2025 तक 6,500 अरब रुपये के निवेश की योजना बनाई है। नए मसौदा नियमों में बंदगाह से संबंधित सुविधाओं के विकास के लिए नियमों में छूट से इस निवेश का रास्ता आसान होगा। सरकार के लिए यह तटीय क्षेत्र के विकास की कुंजी खोलने का रास्ता होगा। दुनियाभर में ऐसा हो रहा है और विकासशील देशों में इसकी गति ज्यादा तेज है। कई व्यापक अध्ययनों और अनुमानों में यह बात सामने आई है।
जाहिर है कि पर्यावरणविदों और आदिवासियों के हितों के काम करने वाले कार्यकताओं ने इन बदलावों का विरोध किया है। उनका कहना है कि वन नीति में बदलाव से वन अधिकार कानून के तहत हुई प्रगति पर पानी फिर जाएगा। इस कानून से आदिवासियों और दूसरे वनवासियों के अधिकारों को मान्यता दी गई है। अंग्रेजों के जमाने के कानूनों और नियमों के तहत उन्हें जंगल की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने वाला बताया गया था।
दूसरी ओर तटीय नियमन मसौदा वैज्ञानिक रूप से सीमांकित सुरक्षा क्षेत्र के उपयोग के विचार को कमजोर करता है जो समुदायों और संपत्ति को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाता है। पर्यावरणविदों की दलील है कि तटीय इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास से छोटे मछुआरों की आजीविका प्रभावित होगी और यह भारतीय तटरेखा बढ़ रहे खतरे को नजरअंदाज करता है। वैज्ञानिकों ने भी इस खतरे की पुष्टिï की है।
लेकिन इस मामले में अब तक राजनीतिक विरोध पक्षपातपूर्ण रहा है। वामपंथी दलों और कांग्रेस ने सरकारी जंगलों को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की नीति का विरोध किया है। पूर्व पर्यावरण मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठï नेता जयराम रमेश ने अप्रैल में कहा कि नई नीति केवल निजी क्षेत्र को फायदा पहुंचाती है। हर किसी को इसका विरोध करना चाहिए। लेकिन वामपंथी दलों और कांग्रेस ने तटरेखा के पर्यावरणीय नियमों में ढील देने के प्रस्ताव पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
तटीय राज्यों को रियल एस्टेट और पर्यटन परियोजनाओं के लिए ज्यादा अधिकार मिलेंगे। यही वजह है कि तटीय राज्यों ने मसौदे पर कोई शिकायत नहीं की है चाहे वहां किसी भी पार्टी की सरकार हो। तटीय इलाकों में रियल एस्टेट और पर्यटन उद्योग के तार सभी दलों के राजनेताओं से जुड़े हैं। पहले भी इन राज्यों ने तटीय नियमों को आसान बनाने और ज्यादा अधिकारों की मांग की थी।
तटीय नियमन से संबंधित मसौदे में तटरेखा पर रियल एस्टेट के विकास को शहर स्तर की विकास योजनाओं के साथ जोड़ा गया है। सच्चाई यह है कि पहली बार तटीय इलाकों के इस संबंध में नियम बनने के बाद कई दशकों के दौरान विभिन्न केंद्र सरकारों ने लगातार इन्हें कमजोर किया है। मूल अधिसूचना में अब तक 21 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। राजनीतिक विवेक से भी तटीय क्षेत्रों में विशेष परियोजनाओं के लिए नियमों को तोड़ा मरोड़ा गया है।
वनों और वन संसाधनों तक पहुंच के मामले में भी नियमों में इसी तरह कमजोर किया गया था और इसी प्रकार का राजनीतिक अपवाद देखा गया था। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के दौर में भी पहले वन से संबंधित नियम लागू किए गए और फिर इन्हें निलंबित कर दिया गया। इस तरह कई कोयला खदानों को क्लीयरेंस दिया गया था।
लेकिन इतना तो यह है कि वन और तटीय भूमि के नियमों के संबंध में इन दो बदलावों से पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों का कानूनी ढांचा पूरी तरह बदल जाएगा, वह भी संसद में गए बगैर। सामाजिक चुनौतियां भी उभरकर आ सकती हैं। पहला बदलाव मार्च में वन नीति के मसौदे के रूप में सामने आया। अप्रैल में सरकार ने तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित रखने वाले पर्यावरण सुरक्षा नियमों में संशोधन का प्रस्ताव रखा।
इन दो बदलावों से भूमि की दो श्रेणियों में भूमि इस्तेमाल नीति में बदलाव होगा। इनमें 7,000 किमी की तटीय सीमा और 7 लाख वर्ग किमी में फैला वनक्षेत्र शामिल है। इन बदलावों के लिए संसद की मंजूरी की जरूरत नहीं है और इन्हें सरकार अपने स्तर पर ही लागू कर सकती है। सरकार ने 2015 में भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानूनों में संशोधन की कोशिश की थी लेकिन उसे राज्य सभा में विपक्ष के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन भूमि इस्तेमाल नीति में संशोधन करने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी।
वन नीति के मसौदे में पिछली नीति को पूरी तरह पलट दिया गया है। इसमें निजी क्षेत्र को यह अनुमति दी गई है कि वह सरकार के संरक्षण वाले वनों में अपने लिए कच्चा माल उगा सकता है। कागज, लुगदी और लकड़ी आधारित उद्योग पिछले करीब दो दशक से इसकी मांग कर रहा है। कई सरकारों ने इस मांग पर बात आगे बढ़ाई लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा। राजग ने भी 2015 में एक कोशिश की थी लेकिन वह भी इसमें नाकाम रहा।
सरकार के पास लाखों वर्ग किमी वन क्षेत्र है जहां बड़ी संख्या में आदिवासी और वनवासी रहते हैं। अपनी आजीविका के लिए वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों पर निर्भर हैं। 2006 में वन अधिकार कानून के पारित होने से पहले तक भारतीय कानूनों में उन्हें मान्यता नहीं दी गई थी। नई नीति से राज्यों को भारतीय वन कानून, 1927 में ऐसे नियम बनाने की अनुमति मिल जाएगी जो निजी निवेश को बढ़ावा देते हैं। फिलहाल इस बारे में नियमों में कुछ नहीं है।
तटीय इलाकों के संरक्षण के लिए नए मसौदा नियमों को तटीय नियमन क्षेत्र अधिसूचना नाम दिया गया है। इसमें तटीय क्षेत्रों को बुनियादी क्षेत्र और रियल एस्टेट के विकास के लिए खोलने की बात कही गई है। इस तरह समुद्र तट के करीब स्थित जमीन का रास्ता रियल एस्टेट डेवलपरों, होटल उद्योग और बुनियादी ढांचा क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए खुल सकता है।
केंद्र सरकार ने सागरमाला कार्यक्रम के तहत बंदरगाहों से संबधित बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 2025 तक 6,500 अरब रुपये के निवेश की योजना बनाई है। नए मसौदा नियमों में बंदगाह से संबंधित सुविधाओं के विकास के लिए नियमों में छूट से इस निवेश का रास्ता आसान होगा। सरकार के लिए यह तटीय क्षेत्र के विकास की कुंजी खोलने का रास्ता होगा। दुनियाभर में ऐसा हो रहा है और विकासशील देशों में इसकी गति ज्यादा तेज है। कई व्यापक अध्ययनों और अनुमानों में यह बात सामने आई है।
जाहिर है कि पर्यावरणविदों और आदिवासियों के हितों के काम करने वाले कार्यकताओं ने इन बदलावों का विरोध किया है। उनका कहना है कि वन नीति में बदलाव से वन अधिकार कानून के तहत हुई प्रगति पर पानी फिर जाएगा। इस कानून से आदिवासियों और दूसरे वनवासियों के अधिकारों को मान्यता दी गई है। अंग्रेजों के जमाने के कानूनों और नियमों के तहत उन्हें जंगल की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने वाला बताया गया था।
दूसरी ओर तटीय नियमन मसौदा वैज्ञानिक रूप से सीमांकित सुरक्षा क्षेत्र के उपयोग के विचार को कमजोर करता है जो समुदायों और संपत्ति को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाता है। पर्यावरणविदों की दलील है कि तटीय इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास से छोटे मछुआरों की आजीविका प्रभावित होगी और यह भारतीय तटरेखा बढ़ रहे खतरे को नजरअंदाज करता है। वैज्ञानिकों ने भी इस खतरे की पुष्टिï की है।
लेकिन इस मामले में अब तक राजनीतिक विरोध पक्षपातपूर्ण रहा है। वामपंथी दलों और कांग्रेस ने सरकारी जंगलों को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की नीति का विरोध किया है। पूर्व पर्यावरण मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठï नेता जयराम रमेश ने अप्रैल में कहा कि नई नीति केवल निजी क्षेत्र को फायदा पहुंचाती है। हर किसी को इसका विरोध करना चाहिए। लेकिन वामपंथी दलों और कांग्रेस ने तटरेखा के पर्यावरणीय नियमों में ढील देने के प्रस्ताव पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
तटीय राज्यों को रियल एस्टेट और पर्यटन परियोजनाओं के लिए ज्यादा अधिकार मिलेंगे। यही वजह है कि तटीय राज्यों ने मसौदे पर कोई शिकायत नहीं की है चाहे वहां किसी भी पार्टी की सरकार हो। तटीय इलाकों में रियल एस्टेट और पर्यटन उद्योग के तार सभी दलों के राजनेताओं से जुड़े हैं। पहले भी इन राज्यों ने तटीय नियमों को आसान बनाने और ज्यादा अधिकारों की मांग की थी।
तटीय नियमन से संबंधित मसौदे में तटरेखा पर रियल एस्टेट के विकास को शहर स्तर की विकास योजनाओं के साथ जोड़ा गया है। सच्चाई यह है कि पहली बार तटीय इलाकों के इस संबंध में नियम बनने के बाद कई दशकों के दौरान विभिन्न केंद्र सरकारों ने लगातार इन्हें कमजोर किया है। मूल अधिसूचना में अब तक 21 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। राजनीतिक विवेक से भी तटीय क्षेत्रों में विशेष परियोजनाओं के लिए नियमों को तोड़ा मरोड़ा गया है।
वनों और वन संसाधनों तक पहुंच के मामले में भी नियमों में इसी तरह कमजोर किया गया था और इसी प्रकार का राजनीतिक अपवाद देखा गया था। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के दौर में भी पहले वन से संबंधित नियम लागू किए गए और फिर इन्हें निलंबित कर दिया गया। इस तरह कई कोयला खदानों को क्लीयरेंस दिया गया था।
लेकिन इतना तो यह है कि वन और तटीय भूमि के नियमों के संबंध में इन दो बदलावों से पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों का कानूनी ढांचा पूरी तरह बदल जाएगा, वह भी संसद में गए बगैर।
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