Saturday 1 February 2020

नए तेवर वाली प्रभावी विदेश नीति

नए तेवर वाली प्रभावी विदेश नीति

हर्ष वी. पंत , (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से दावोस में कश्मीर को लेकर दिए गए बयान पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने जैसी दो-टूक प्रतिक्रिया व्यक्त की, उससे यह स्पष्ट है कि भारतीय विदेश नीति में नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल जैसी ऊर्जा न केवल कायम रहने वाली है, बल्कि वह अपने नए तेवर दिखाने को भी तैयार है। नए जनादेश के बाद केंद्रीय सत्ता की दोबारा कमान संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अपना महत्वाकांक्षी खाका खींचने में देरी नहीं की। उन्होंने विदेश मंत्री जैसे प्रमुख राजनीतिक पद पर पूर्व राजनयिक एस. जयशंकर की नियुक्ति करके तमाम लोगों को हैरान किया, मगर इसने विदेश नीति को लेकर उनकी गंभीरता को भी व्यक्त किया। यह नियुक्ति करते समय शायद उन्हें वैश्विक मोर्चे पर उथल-पुथल का बखूबी भान था, जिसमें भारतीय विदेश नीति को अपनी प्राथमिकताएं तय करना बेहद जरूरी था। इसके लिए किसी मंझे हुए कूटनीतिज्ञ की दरकार थी।
जयशंकर की नियुक्ति के साथ ही मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि विदेश नीति उनकी सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में होगी। यह जरूरत तब और ज्यादा महसूस हुई, जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला किया। चूंकि यह मसला घरेलू मोर्चे के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हो गया, इसलिए भारतीय पक्ष को बेहतर तरीके से रखना बहुत जरूरी था। वैश्विक बिरादरी को यह समझाना बेहद आवश्यक था कि भारत ने यह फैसला किन परिस्थितियों में उठाया। इसमें जयशंकर की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही।
विदेश नीति के व्यापक मोर्चे को देखें तो भारत बड़ी शक्तियों को साधने और दुनिया के तमाम अन्य कोनों में अपनी पैठ बनाने में जुटा हुआ है। पिछले साल आभास हुआ कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते मुश्किल दौर में है। अमेरिका ने भारत को मिला जीएसपी का दर्जा छीन लिया था। इसके पीछे यही वजह बताई गई कि भारत इसके बदले अपने बाजार में अमेरिका को उचित अवसर प्रदान नहीं कर रहा। अमेरिका ने भारत से होने वाले शुल्क मुक्त निर्यात की राह मुश्किल बनाने के साथ ही इस्पात एवं एल्युमिनियम पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। भारत ने भी अमेरिकी बादाम एवं सेब जैसे 28 उत्पादों के लिए आयात शुल्क बढ़ाकर जवाबी कार्रवाई की।
इसके बाद सितंबर में मोदी के अमेरिकी दौरे में भारत के सबसे महत्वपूर्ण व्यापार सहयोगी के साथ कारोबारी रिश्तों पर जमा बर्फ कुछ पिघली। वहां मोदी ने वाशिंगटन को यही संदेश दिया कि परस्पर लाभ के किसी भी समझौते के आधार पर नई दिल्ली व्यापक सक्रियता के लिए तैयार है। ट्रंप को आश्वस्त कर उन्होंने द्विपक्षीय रिश्तों में गिरावट को थामा। साथ ही कश्मीर के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के एक बड़े वर्ग की आशंकाओं को भी दूर किया। यह मोदी का दौरा ही था कि भले ही दोनों पक्ष किसी अहम व्यापार समझौते को लेकर सहमत नहीं हो पाए हों, लेकिन भारत को लेकर ट्रंप के सुर अवश्य सकारात्मक रूप से बदल गए और अब इसके आसार दिखने लगे हैैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारत दौरे पर आ सकते हैं।
चीन के साथ सक्रियता बढ़ाने की दिशा में भी मोदी के प्रयास जारी रहे। इसी सिलसिले में मामल्लपुरम में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ दूसरी अनौपचारिक बैठक हुई। इससे पहले 2018 में डोकलाम गतिरोध के बाद इस कड़ी में चीन के वुहान में हुई पहली बैठक में दोनों देशों के बीच तल्खी कुछ कम हुई थी। नई दिल्ली में अब यह स्वीकृति आम होती जा रही है कि चीन भारतीय हितों पर आघात करने की कूटनीतिक एवं राजनीतिक कीमत चुकाने से परहेज नहीं कर रहा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसा मंच इसका गवाह बना जहां अलग-थलग पड़ने के बावजूद चीन कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पीछे खड़ा रहा। भारत और चीन के बीच तमाम मतभेदों के बावजूद भारत के लिए चीन के साथ लगातार सक्रियता बढ़ाना बेहद जरूरी है।
पिछले साल सितंबर में ही रूस के सुदूर पूर्वी क्षेत्र का दौरा करने वाले मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने थे। उस दौरे का उद्देश्य द्विपक्षीय रिश्तों को नई दिशा, नई ऊर्जा और नई गति देना था। इसी तरह पूर्वी आर्थिक मंच पर मोदी की मौजूदगी भी कई पहलुओं के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण थी। ऐसे वक्त में जब वैश्विक आर्थिक धुरी एशिया की ओर केंद्रित होती दिख रही है, पुतिन एशियाई शक्तियों की सहायता से अपने पूर्वी इलाकों को विकसित बनाने पर जोर दे रहे हैं। रूस के इस इलाके में फिलहाल चीन का बढ़ता दबदबा मास्को को असहज कर रहा है। इसीलिए पुतिन चीन पर निर्भरता घटाने के प्रयास में भी जुटे हैं। भारतीय निवेशकों को भी वहां बढ़िया अवसर मिलेंगे।
नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों के साथ अपने रणनीतिक रिश्तों को प्रगाढ़ करने में जुटी है, ताकि वैश्विक स्तर पर भारत का कद बढ़ाने के साथ ही राष्ट्रीय हितों की अधिकाधिक पूर्ति हो सके। इस रणनीति की छाप दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों से लेकर हिंद महासागरीय देशों, हिंद-प्रशांत देशों और पश्चिम एशियाई देशों तक दिखाई पड़ती है।इतना ही नहीं, अपने हितों पर प्रहार करने वाले देशों को भारत अपनी आर्थिक मजबूती का अहसास कराने से भी गुरेज नहीं कर रहा। वह यह जताने में पीछे नहीं कि उसका विरोध करने वाले देशों की इसकी आर्थिक कीमत चुकानी होगी। जैसे अनुच्छेद 370 पर तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने भारत का विरोध किया तो प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल अपना पहला तुर्की दौरा फौरन रद्द किया, बल्कि भारत में प्रतिरक्षा संबंधी कारोबार में जुटी एक तुर्की कंपनी पर तत्काल प्रतिबंध भी लगा दिया गया।
मलेशिया को भी इसकी तपिश झेलनी पड़ रही है। भारतीय विदेश नीति निरंतर उभार ले रही है। वैश्विक शक्ति संतुलन में उभर रहे किसी देश के लिए यह बहुत स्वाभाविक भी है। इस दृष्टिकोण की पुष्टि जयशंकर के हाल के उस भाषण से भी होती है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत बदलाव के इस दौर में और अधिक आत्मविश्वास के साथ खड़ा है और महाशक्ति बनने की हसरत रखने वाला कोई देश सीमाओं के अस्पष्ट रेखांकन, छिन्न्-भिन्न् क्षेत्र और अवसरों को भुनाए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। इससे भी बढ़कर वह देश बदलते वैश्विक ढांचे को लेकर अड़ियल नहीं बना रह सकता।यह साफ है कि मोदी सरकार विदेश नीति के लिए खींचे गए अपने खाके पर आगे ही बढ़ेगी। इसमें कई परंपरागत नीतियों से पलटना भी पड़ सकता है, जिसकी कुछ कीमत भी चुकानी पड़ेगी, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि महाशक्ति बनने के लिए नई दिल्ली वह कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है।

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