भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904
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वायसराय लॉर्ड कर्जन ने सितम्बर 1901 में उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय अधिकारियो का शिमला में एक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में पारित प्रस्ताव 'शिमला प्रस्ताव' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें 150 प्रस्ताव पारित किये गये, जो शिक्षा के सभी पक्षों से सम्बंधित थे। इसके बाद एक आयोग सर टॉमस रैले की अध्यक्षता में नियुक्त किया गया। इसका उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयो की स्थिति का अनुमान लगाना और उनके संविधान तथा कार्यक्षमता के बारे में सुझाव देना था। इस आयोग के अधिकारक्षेत्र की परिधि से प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा दूर थी। इसकी संस्तुतियों के आधार पर सन् 1904 में भारतीय विश्वविधालय अधिनियम (Indian Universities Act ,1904)पारित किया गया।
इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार थे:-
अध्ययन तथा शोध को बढ़ावा देने के लिये विश्वविद्यालयो में योग्य प्राध्यापकों तथा व्याख्याताओ की नियुक्ति हो और उपयोगी आधारभूत संरचना स्थापित की जाए।
विश्वविद्यालय के उप-सदस्यों की संख्या 50 से कम तथा 100 से अधिक न हो और उनकी सदस्यता आजीवन की बजाय केवल छह वर्ष तक के लिए हो।
उप-सदस्य सरकार द्धारा मनोनीत हो और उनकी कार्यवधि छह वर्ष हो।
उपर्युक्त अधिनियम से विश्वविद्यालयो पर सरकारी नियंत्रण बढ़ गया तथा सरकार को विश्वविद्यालय की सीनेट द्धारा पारित प्रस्ताव पर निषेधाधिकार (veto) प्राप्त हो गया।
दूसरे, इस अधिनियम द्धारा गैर-शासकीय कॉलेजो पर सरकारी नियंत्रण कठोर हो गया।
इसके अंतर्गत गवर्नर-जरनल को विश्वविद्यालय की क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने का अधिकार मिल गया। साथ ही कालेजों को विस्वविद्यालय से संबद्ध करने का अधिकार सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया।
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