Wednesday 22 May 2019

सामाजिक न्याय सस्ती दवाओं के लिये रोडमैप

बिजनेस स्टैंडर्ड जेनेरिक दवाएं बनेंगी जनऔषधि!सरकार दवाओं की खुदरा बिक्री के लिए जन औषधि स्टोर काफी उत्साहित है। इसकी एक वजह यह है कि इसे मौजूदा स्वास्थ्य योजना के साथ आसानी से जोड़ा जा सकता है और प्रधानमंत्री ने इसके पीछे अपना पूरा जोर लगाया है। दूसरी बात यह है कि इसके नाम प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (पीएमबीजेपी) के जरिये सत्तासीन पार्टी को दुनिया भर के गरीबों से जुड़ी स्वास्थ्य कल्याणकारी योजनाओं में अपना नाम जोड़ने में मदद मिलेगी। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या जनऔषधि की मार्केटिंग योजना से जेनेरिक दवाइयों के लिए लोकप्रिय ब्रांडेड खुदरा शृंखला तैयार की जा सकती है? जनऔषधि स्टोर खुदरा दुकानों की एक शृंखला है जो जेनेरिक दवाइयां रखती हैं जो बड़ी दवा कंपनियों द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों से अलग है।

सामान्यतौर पर जेनेरिक दवाइयां लघु एवं मध्यम आकार की कंपनियों और सरकारी क्षेत्र की दवा इकाइयों द्वारा बनाया जाता है। सचिन कुमार सिंह ने कुछ दिन पहले ही ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयू ऑफ इंडिया (बीपीपीआई) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के तौर पर प्रभार संभाला है जिन पर जनऔषधि पहल की जिम्मेदारी है।
पुराने और गिरने के कगार पर आ चुके स्टोर को एक सफल ब्रांड बनाने के लिए सिंह को नजरिये के मोर्चे पर संघर्ष करना होगा। जेनेरिक दवाइयों को गुणवत्तापूर्ण दवाइयों के तौर पर नहीं देखा जाता है और उन्हें एक ऐसा ब्रांड तैयार करना होगा जिसके नतीजे को लेकर भरोसा किया जा सके। दूसरी बात यह सुनिश्चित करना है कि स्टोर में दवाओं की मात्रा पर्याप्त रहे भले ही वे आउटलेट के तेजी से विस्तार के लिए रोडमैप तैयार करें। मौजूदा पीएमबीजेपी ने पहले की प्रधानमंत्री जनऔषधि योजना (पीएमजेएवाई) की जगह ले ली है। सभी विज्ञापनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लगी हैं। क्या कोई ब्रांड खासतौर पर दवा क्षेत्र का ब्रांड प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को कैसे भुना सकता है? एक वरिष्ठ विज्ञापन और मार्केटिंग पेशेवर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि सरकार जनऔषधि को लेकर गलतफहली में हो सकती है। उनका सवाल है, 'क्या सरकार देश के स्वास्थ्य तंत्र को दुरुस्त करने के लिए कई चीजें करने की कोशिश कर रही है या उनका जोर बुनियादी चीजों को सुनिश्चित करना है मसलन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में गुणवत्ता पूर्ण इलाज, डॉक्टर और दवाइयां उपलब्ध हों?'  उनका यह मानना है कि बुनियादी स्तर पर सुधार जरूरी है ताकि गरीबों को मुफ्त इलाज और दवाइयां सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर मिल जाए। भले ही प्रधानमंत्री के प्रशंसकों की तादाद अच्छी खासी है लेकिन बेचे जाने वाले दवाओं की गुणवत्ता को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।
एक दवा कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, 'जन औषधि दवाओं के मामले में आमलोगों की राय यही होती है कि सरकार द्वारा बेची जाने वाली दवाएं खराब गुणवत्ता वाली होती हैं।' एक दवा कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, 'इसी वजह से इस योजना का प्रदर्शन शहरों में अच्छा नहीं होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रदर्शन अच्छा रह सकता है लेकिन आपूर्ति बरकरार रखना एक मुश्किल काम है। दवा कंपनियां ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रांडेड जेनेरिक दवाइयों को पहुंचाने की कोशिश में हैं।' सस्ती दवाइयों को खराब गुणवत्ता और सेवाओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। करीब एक दशक पहले नवंबर 2008 में जेनेरिक दवाओं का अभियान शुरू हुआ लेकिन आपूर्ति और उपलब्धता में मुश्किल बनी रही। मार्च 2012 तक केवल 157 जनऔषधि स्टोर खोले गए और इनमें से कई बंद हो गए।

दिसंबर 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस योजना को खराब आपूर्ति प्रबंधन की वजह से नुकसान झेलना पड़ा क्योंकि राज्य सरकार के समर्थन को लेकर भी ज्यादा निर्भरता बढ़ गई। पिछले साल कुछ समस्याओं का समाधान निकाला गया था। सीएलएसए की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल के 2,091 स्टोरों के मुकाबले उनकी तादाद अब बढ़कर 4,099 हो गई है।  2019 के आखिर में करीब 5,000 स्टोरों के  संचालित होने की उम्मीद है। सिंह भी दवाओं की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए अपने कदम उठाने की कोशिश में हैं।  सीएलएसए के रिपोर्ट का दावा है कि दवाओं का परीक्षण एनएबीएल से मान्यता प्राप्त प्रयोगशाला में किया जाता है ताकि इससे दवाओं की गुणवत्ता तय की जा सके। 
कुछ स्टोर में मांग में तेजी देखी गई है और ये स्टोर कम और मध्यम वर्ग तथा सेवानिवृत समूह के लोगों को लक्षित करते हैं। कुछ उच्च वर्ग के ग्राहकों की तादाद भी देखी गई है। देश में ज्यादातर दवाइयों की ब्रांडिंग जेनेरिक दवाइयों की तरह होती है और उनकी बिक्री कारोबारी नाम से की जाती है। जेनेरिक दवाइयों का कोई व्यापारिक नाम नहीं होता और वे सस्ती (50-90 फीसदी) होने के साथ गरीबों के लिए लक्षित होती हैं।

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