ब्रिटेन का भविष्य और चुनौती
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यूरोपीय संघ की स्थापना 1993 में हुई थी। साल 2004 में ‘यूरो’ मुद्रा ने इसे राजनीतिक और आर्थिक रूप से एकजुट किया। पिछले कुछ वर्षों से यूरोपीय संघ की ब्रिटेन पर दबाव बनाने की कोशिशें ब्रिटिश जनता को नागवार गुजर रही थीं। वास्तव में ब्रिटिश जनता ने ईयू के उन दावों को खारिज करने का साहस दिखाया, जिनमें बार-बार यह बताया जा रहा था कि ईयू के साथ रह कर ही ब्रिटेन सुरक्षित रह सकता है, अन्यथा वित्तीय संस्थानों की आर्थिक स्थिति खराब होगी, बेरोजगारी बढ़ेगी और ब्रिटेन अलग-थलग पड़ जाएगा।
ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से अलग हो चुका है। ब्रिटेन के साथ ही, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अव्वल स्थान पर रहने वाले यूरोपीय संघ (ईयू) को भी इस ब्रिटिश अलगाव के बाद नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। फिलहाल वैश्विक अर्थव्यवस्था में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी बाईस फीसद है। ब्रिटेन के नहीं रहने से यह घट कर अठारह फीसद रह जाएगी। ईयू की आबादी में भी तेरह फीसद की गिरावट आएगी। ब्रिटेन ईयू की अर्थव्यवस्था में जो बड़ा योगदान देता आ रहा था, वह अब बंद हो जाएगा और ईयू से ब्रिटेन को मिलने वाली रियायतें खत्म हो जाएंगी। बदलते दौर में इस बात की संभावनाएं बढ़ गई हैं कि ब्रिटेन भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों से मुक्त व्यापार के समझौते करे। लेकिन क्या यह सब इतना आसान होगा? ब्रिटेन ने अपने व्यापारिक संबंधों को नए विचार के साथ आगे बढ़ाने के लिए जो अभियान शुरू किया है, वह बेहद दिलचस्प है। ईयू से अलग होते ही ब्रिटेन ने ‘ग्रेट-रेडी टू ट्रेड’ अभियान शुरू कर दिया है। इसमें तेरह देशों के अठारह शहरों पर फोकस किया गया है। ये देश ईयू से बाहर के हैं और इन्हें भविष्य में ब्रिटेन के बड़े सहयोगी देशों के रूप में बताया जा रहा है। भारत ब्रिटेन की व्यापारिक साझीदारी में ऊपर है और मुंबई उसका केंद्र होगा। इसके अलावा पर्थ, मेलबर्न और सिडनी, शंघाई, हांगकांग, टोक्यो, मेक्सिको सिटी, सिंगापुर, जोहानीसबर्ग, सियोल, इस्तांबुल, दुबई और न्यूयॉर्क, लॉस एंजेलिस और शिकागो से ब्रिटेन का कारोबार चलेगा।
यूरोपीय संघ की स्थापना 1993 में हुई थी। साल 2004 में ‘यूरो’ मुद्रा ने इसे राजनीतिक और आर्थिक रूप से एकजुट किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में यह कोशिश की गई कि सभी देश आर्थिक रूप से एक साथ आगे आएं और एक व्यापार समूह का हिस्सा बनें। यूरोपीय संघ में ब्रिटेन के अलग होने के बाद अब सत्ताईस देश बचेंगे। इन देशों की एक आर्थिक और राजनीतिक सहभागिता है। ये देश संधि के द्वारा एक संघ के रूप में जुड़े हुए हैं, ताकि व्यापार आसानी से हो सके और लोग एक-दूसरे से कोई विवाद न करें। हालांकि यूरोपीय यूनियन में राष्ट्र की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को लेकर अंतर्द्वंद्व रहा है। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति डिगोले बहुत पहले ही कह चुके थे कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य अपने राष्ट्र की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का परित्याग नहीं करेंगे। यूरोपीय राष्ट्र स्वयं इस मुद्दे पर विभाजित हैं कि यूरोपीय संघ की सुरक्षा नाटो द्वारा हो या उनकी सुरक्षा का स्वायत्त प्रबंध हो। इंग्लैंड, पोलैंड और डेनमार्क शुरू से ही एक समान विदेश और सुरक्षा नीति के विरोधी हैं। साल 2004 में प्रस्तावित ईयू के संविधान में यह स्पष्ट उल्लेखित था कि एक पृथक सुरक्षा संगठन बनाने का प्रयत्न किया जाए, लेकिन ब्रिटेन ने उस समय ऐसी किसी योजना या नीति का विरोध किया था।
साल 2016 से ही यह संभावना मजबूत हो गई थी कि ब्रिटेन ईयू से अलग होकर अपना भविष्य खुद तय करना चाहता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अब उन लोगों को धन्यवाद दिया है, जिन्होंने 2016 में ईयू से अलग होने का अभियान शुरू किया था। साल 2016 में ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह में लोगों से यह सवाल किया गया कि वे ईयू के सदस्य बने रहना चाहते हैं या उससे बाहर निकलना चाहते हैं। जवाब में बावन फीसद लोगों ने यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के पक्ष में मतदान किया था, जबकि उसमें बने रहने के पक्ष में अड़तालीस फीसद लोगों ने वोट दिया था।
ईयू से अलग होने के ब्रिटेन के फैसले के पीछे कई कारण रहे हैं। एकल बाजार सिद्धांत अर्थात किसी भी तरह का सामान और व्यक्ति बिना किसी टैक्स या बिना किसी रुकावट के कहीं भी आ-जा सकते हैं और लोग बिना रोक-टोक के नौकरी, व्यवसाय और स्थायी तौर पर निवास कर सकते हैं। लोगों की मुक्त आवाजाही और मुक्त व्यापार ही यूरोपीय संघ की खासियत है। पर अब ब्रिटेन के नागरिकों के लिए यह स्थिति असहज बन गई है। यूरोपीय संघ से अलग होने की घटना को अपने देश के लिए नई सुबह बताने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के जेहन में यह बात जरूर होगी कि उनके देश का अकेला चलने का राजनीतिक फैसला ब्रिटेन के लिए आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कूटनीतिक और वैदेशिक स्तर पर बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
ईयू से अलग होने के ब्रिटेन के फैसले को उस राष्ट्र के चरित्र से भी जोड़ कर देखा जा सकता है, जिसने विश्व के अधिकांश भूभाग पर सदियों तक राज किया। पिछले कुछ वर्षों से यूरोपीय संघ की ब्रिटेन पर दबाव बनाने की कोशिशें ब्रिटिश जनता को नागवार गुजर रही थीं। वास्तव में ब्रिटिश जनता ने ईयू के उन दावों को खारिज करने का साहस दिखाया, जिनमें बार-बार यह बताया जा रहा था कि ईयू के साथ रह कर ही ब्रिटेन सुरक्षित रह सकता है, अन्यथा वित्तीय संस्थानों की आर्थिक स्थिति खराब होगी, बेरोजगारी बढ़ेगी और ब्रिटेन अलग-थलग पड़ जाएगा। इसमें ब्रिटेन का विश्वसनीय मित्र अमेरिका भी शामिल था। साल 2016 में ब्रिटेन के वित्त मंत्रालय ने भी ईयू से अलग होने के नुकसान बता कर जब जनता पर दबाव बढ़ाने की कोशिश की, तो इसे लोगों ने अपनी अलग पहचान के लिए चुनौती के रूप में लिया था। ब्रिटिश जन समुदाय का मानना था कि जो लोग चेतावनी दे रहे हैं, उनके देश से ज्यादा ईयू के साथ रहने में उनके व्यक्तिगत हित जुड़े हुए हैं। इसलिए ईयू में बने रहने पर संदेह बढ़ता गया और लोगों ने ईयू से अलग होने पर मुहर लगाई।
दुनिया में अप्रवासन को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं। ब्रिटिश समाज भी इससे प्रभावित रहा है, विशेषकर परंपरावादी समाज के लिए ईयू के साथ रहना ब्रिटेन की संस्कृति, पहचान और राष्ट्रीयता के लिए चुनौतीपूर्ण समझा जाने लगा। दूसरे देशों से ब्रिटेन आकर बसने वालों की बढ़ती संख्या से स्थानीय लोग बहुत प्रसन्न नहीं हैं। इन सबके बीच यह भी महत्त्वपूर्ण है कि ब्रिटेन की व्यापारिक नीतियां स्वतंत्र होकर भी ईयू से ज्यादा अलग नहीं हो सकतीं। अंतत: ईयू और ब्रिटेन में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक समानताएं हैं और इनसे पूर्णत: अलगाव ब्रिटेन के लिए आत्मघाती हो सकता है। प्रधानमंत्री जॉनसन अपने देश की जनता के बहुमत का सम्मान करते हुए भले ही इसे नई सुबह बता रहे हों, लेकिन वे अपने सहयोगियों की उस उठती हुई आवाज को नजरअंदाज नहीं कर सकते, जिसमें ब्रिटिश सांसदों ने कहा कि हम इस टीम में वापस आएंगे। उन्होंने यूरोप की एकता को महत्त्वपूर्ण बताया है।
बोरिस जॉनसन ने अपने देश की जनता के लिए इसे वास्तविक राष्ट्रीय पुनर्जागरण और बदलाव बताया है। यूरो के सामने पौंड की गिरती स्थिति भी ब्रिटिश जनता को नागवार गुजर रही थी। ब्रिटेन को लगता है कि ब्रेक्जिट के बाद वह अपने आपको मजबूत आर्थिक शक्ति बना सकता है। ब्रिटेन के अर्थशास्त्रियों ने ही उदारवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत का निर्माण किया था। इनमें एडम स्मिथ, रिकार्डो और माल्थस उल्लेखनीय हैं। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति सदैव अपने हितों के लिए कार्य करता है। इन विद्वानों ने बाजारवादी अर्थव्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए कहा कि बाजार में मांग और पूर्ति के द्वारा एक स्वाभाविक सामंजस्य उत्पन्न हो जाता है और मुक्त व्यापार सभी के लिए लाभकारी है। इसके बाद यूरोपीय यूनियन की नींव यूरोपीय देशों में आपसी व्यापार बढ़ाने के लिए रखी गई थी। अब ब्रिटेन स्वयं उससे अलग हो गया है। बहरहाल, यूरोपीय संघ से ब्रिटेन का अलग होना यूरोप के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य के लिए भी बड़ी चुनौती है।
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