नए युग का औरंगज़ेब
हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं, जहाँ हम मोहम्मद इकबाल के गीत ‘सारे जहाँ से अच्छा’ की एकजुटता की भावना को भूलते जा रहे हैं। क्या इसका कारण फूट डालने वाली राजनीति है, जो ‘हम’ और ‘वे’ में भारतीय समाज को बांटने में लगी है? भगवा संडे और मुस्लिम टोपियां तो वीर सावरकर और गोलवरकर के जमाने से ही हिन्दुत्व की विचारधारा के साक्षी रहे हैं, और आज भी वे इस बात के गवाह हैं कि किस पकार से भारत में मुस्लिम समाज एक संघर्ष के दौर से गुजर रहा है।
हममें से कोई भी अकबर से नहीं मिला है। फिर भी हम सब उसे अच्छी तरह से जानते हैं, क्योंकि वह महान् था। वह एक ऐसा शासक था, जिसने हमें लगभग 50 वर्षों तक स्थिर शासन प्रदान किया। उससे पहले भारत ने 25 वर्षों में ही अनेक शासकों का पतन और उत्थान देख लिया था। सैनिक कौशल और प्रशासनिक कुशाग्रता से अकबर ने स्थिर शासन को प्राथमिकता दी। उसने महाराणा प्रताप जैसे कई राजपूत शासकों को पराजित किया। अनेक राजपूत राजाओं के यहाँ वैवाहिक संबंध स्थापित करके उन्हें शासन में सम्मिलित कर लिया। वह अपने समय से आगे चलने वाला शासक था। अपने काल में उसने हर एक को अपना मजहब मानने की छूट दे रखी थी।
अकबर के लिए कन्याओं से विवाह का उद्देश्य उनका धर्म परिवर्तन कराना कतई नहीं था। अकबर ने तो समस्त भारत को एकसूत्र में पिरोने के लिए दीन-ए-इलाही धर्म शुरू किया था; एक ऐसा धर्म, जिसमें सभी धर्मों की मान्यताएं शामिल थीं। अकबर के समकालीन मोनसेकाट और जेसुइट पंथी यह मानते हैं कि सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता दिखाकर अकबर, धर्मों की दीवार को तोड़ना चाहता था। इस रूप में वह एक हीरो था, जिससे कोई घृणा नहीं कर सकता।
हम ऐसे सौभाग्शाली लोगों में से हैं, जिन्हें स्कूली पुस्तकों में अकबर की सकारात्मक छवि से मिलवाया गया। यही कारण है कि हमारे मन-मस्तिष्क में ‘अकबर-द ग्रेट’ की छवि वैसी ही अंकित है, जैसे अशोक महान् की। लेकिन शायद आगे आने वाली पीढ़ियों को यह सौभाग्य न मिले। अकबर को एक ऐसे शासक के रूप में दिखाए जाने की तैयारी हो रही है, जिसने हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप से शिकस्त खाई। अब महाराणा प्रताप को 1857 की क्रांति का प्रेरणा स्रोत बताया जा रहा है। इतना ही नहीं, अकबर की सारी उपलब्धियों को कुटिल षड़यंत्रों के हिस्से के रूप में प्रस्तुत किए जाने की भी तैयारी हो रही है।
2017 के प्रारंभ में अजमेर स्थित अकबर के किले के द्वार से अकबर का नाम मिटाकर उसे मात्र अजमेर का किला कहलाए जाने का प्रबंध किया गया। कुछ ही समय में ‘अजमेर का किला’ लिखा हुआ एक नया बोर्ड भी लटका दिया गया। ऐसा लगने लगा कि बीते मानूसन के बाद एकदम से यह कहीं से ऊग आया हो। अगर अबुल फज़ल पर विश्वास किया जाए, तो यह किला 1570 में बनवाया गया था। जहाँगीर के काल में भी यह किला बड़ा महत्वपूर्ण रहा। शहजादे सलीम के रूप में जहाँगीर का यहाँ लंबा प्रवास रहा।
इस प्रकरण से ही संतुष्ट न होने वाली हिन्दू ब्रिगेड ने हल्दीघाटी के युद्ध के परिणामों को पलटने के लिए कुछ अविश्वसनीय इतिहासकारों का सहयोग पा लिया। यहाँ राणा प्रताप की बहादुरी के किस्से पढ़ते-सुनते विद्यार्थियों की पीढ़ियां निकल गईं। यह भी पढ़ा गया कि उसे मुगलों से हार का सामना करना पड़ा था। यह भी कि हल्दीघाटी का युद्ध स्वयं अकबर ने नहीं लड़ा था, बल्कि इसका भार उसने मानसिंह पर छोड़ दिया था। अब इतने समय बाद राजस्थान सरकार ने इतिहास की पुस्तकों में हल्दी घाटी के विजेता के रूप में महाराणा प्रताप का नाम लिखना शुरू कर दिया है। यहाँ केवल ऐतिहासिक साक्ष्य की बात नहीं आती, बल्कि वह दृष्टिकोण है, जो मायने रखता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने तो अकबर को नए जमाने का औरंगजेब ही घोषित कर दिया है।
अकबर को बदनाम करने की कोशिशें कोई नई नहीं हैं। पिछले चार वर्षों से, इस देश के लिए दिए गए अकबर के योगदानों को तुच्छ करके आंका जा रहा है। 2016 में अकबर रोड़ का नाम बदलकर महाराणा प्रताप रोड़ किए जाने का प्रस्ताव रखा गया था। प्रकट रूप में तो यही कहा गया कि राजपूतों को ऐसा सम्मान मिलना चाहिए। परन्तु इसके साथ जो प्रत्यक्ष रूप में नहीं कहा गया, क्या वह यह था कि मुगलों के महान् शासकों के लिए दिल्ली में कोई जगह नहीं है; उसी दिल्ली में, जो उनके शासनकाल का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा। ऐसा लगने लगा है कि वर्तमान सरकार, राष्ट्र निर्माण में अकबर द्वारा दिए गए योगदान को उखाड़ फेंकना चाहती है, और उसे नई सदी के औरंगजेब की छवि से धूमिल करना चाहती है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित ज़िया-उल-सलाम के लेख पर आधारित। 28 अगस्त, 2018
No comments:
Post a Comment