Wednesday 17 October 2018

संकट में फंसे चीन को चाहिए भारत की मदद

संकट में फंसे चीन को चाहिए भारत की मदद

(हर्ष वी पंत, प्रोफेसर किंग्स कॉलेज, लंदन)

पिछले एक साल में भारत और चीन के रिश्तों ने कई करवटें ली हैं, अब लग रहा है कि आने वाले समय में कई और हैरतअंगेज मुकाम आ सकते हैं। जैसे-जैसे चीन के खिलाफ अमेरिका अपने व्यापार युद्ध को बढ़ा रहा है, बीजिंग उससे निपटने के लिए भारत से सहयोग बढ़ाने की तैयारी बड़े पैमाने पर कर रहा है। इस समय यह सुझाव दिया जा रहा है कि बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था और मुक्त व्यापार दोनों ही देशों के हित में हैं, इसलिए दोनों को मिलकर काम करना होगा।

इस समय जब चीन परेशानी में है, ट्रंप प्रशासन उस पर से दबाव कम करने के मूड में नहीं दिख रहा। उसने चीन से आयात पर 200 अरब डॉलर का शुल्क तो थोपा ही है, साथ ही धमकी भी दी है कि अगर चीन बदले की कार्रवाई करता है, तो 267 अरब डॉलर का अतिरिक्त शुल्क भी थोपा जा सकता है। वाशिंगटन चीन को अभी समझौते लायक भी नहीं मान रहा। ट्रंप का ताजा बयान बताता है कि वाशिंगटन अभी इस व्यापार युद्ध को और बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। इसमें चीनी सामान पर 500 अरब डॉलर तक का शुल्क लगाने की बात कही गई है। पिछले साल अमेरिका ने इतनी ही रकम का चीनी सामान आयात किया था। चीन पिछले कुछ समय से लगातार यह कह रहा है कि पश्चिमी देश जिस तरह से संरक्षणवादी नीतियों को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं, ऐसे में भारत और चीन को अपना सहयोग बढ़ाना चाहिए। वुहान सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति ने तर्क दिया था कि ‘एक अरब से ज्यादा आबादी वाले दो देशों और उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्थाओं के रूप में चीन और भारत बहुध्रुवीय आर्थिक वैश्वीकरण की रीढ़ हैं।’ उन्होंने यह भी कहा था कि दुनिया के हर हिस्से से गरीबी और विषमता मिटाने के लिए हमें ऐसी विश्व अर्थव्यवस्था बनानी होगी, जिसमें सभी देश मुक्त होकर अपनी भूमिका निभा सकें।

वैसे अपने आप में यह विचार नया नहीं है कि भारत और चीन के विश्व स्तर पर हित एक ही हैं, इसलिए दोनों को अब एक साथ काम करना चाहिए। 90 के पूरे दशक में भारत-चीन की सीमा वार्ताएं इसी सोच के तहत होती रहीं। और इसी सोच के तहत रूस-भारत-चीन की त्रिपक्षीय साझेदारी भी उभरती दिखी। ब्रिक्स के पूरे संगठन के पीछे भी कर्ई तरह से यही विचार दिखाई दिया। इसी दशक में भारत और चीन विश्व मंचों पर पश्चिमी हस्तक्षेप के खिलाफ एक सुर में बोलते हुए भी दिखाई दिए। खासकर विश्व व्यापार और पर्यावरण परिवर्तन के समझौतों में। लेकिन हाल के वर्षों में दोनों देशों की यह साझेदारी कुछ कमजोर पड़ती दिखी, क्योंकि बीजिंग नई दिल्ली को नजरअंदाज करके पश्चिमी ताकतों से रिश्ते गांठने की ओर बढ़ने लगा।

अगर आज चीन फिर से वैश्विक आर्थिक मुद्दों पर भारत के साथ सक्रिय होना चाहता है, तो सिर्फ इसलिए कि उसे एहसास हो गया है कि पश्चिम की सोच बहुत तेजी से उसके खिलाफ जा रही है। इस समय चीन को ऐसे सहयोगी की जरूरत है, जो इन चुनौतियों से उसे उबार सके। इस काम में रूस उसका बहुत अच्छा मददगार नहीं हो सकता, क्योंकि वह अभी तक पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सका है और पश्चिम से उसके रिश्ते भी खराब हो चुके हैं। जबकि भारत अभी भी ऐसी उभरती हुई आर्थिक ताकत बना हुआ है, जिसकी विश्व स्तर पर साख है और पश्चिम से उसका सहयोग भी बरकरार है। नई दिल्ली ने अमेरिका की धमकी के बाद भी प्रमुख देशों से रिश्ते बरकरार रखने व रूस के साथ रक्षा सौदे करने का साहस दिखाया है।

भारत और चीन के बीच पिछले दो दशक में कई बड़े मतभेद उभरे हैं, जो रातोंरात खत्म होने वाले नहीं हैं। दोनों देशों का नेतृत्व उन मसलों को लेकर भी सचेत है, जो रिश्तों की स्थिरता में आड़े आ सकते हैं। पिछले साल डोकाला में चीन की आक्रामकता और फिर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के मुद्दे पर भारत ने साफ कर दिया था कि वह किसी भी तरह के दबाव में आने वाला नहीं है। इस समय जब चीन अलग-थलग पड़ रहा है, तो उसकी नजर में भारत का महत्व बढ़ रहा है। यह ऐसा मौका है, जिसका भारत को फायदा उठाना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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