पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और फिर एक पूरा कार्यकाल – प्रधानमंत्री के रूप में यही इतिहास रहा अटल बिहारी वाजपेयी का। लेकिन यह तो सिर्फ अवधि की बात हुई, उस अवधि में जो काम उन्होंने किया, उसके मूल्यांकन के लिए वक्त को फुर्सत से बैठना पड़ेगा। यह ऐसा काम नहीं है कि चलते-चलते लगे हाथों निपटाया जा सके। अगर राजनीतिक कद, बतौर प्रधानमंत्री लिए गए ऐतिहासिक फैसले और सर्वस्वीकार्यता – इन तीन कसौटियों पर देखा जाए तो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और अटलबिहारी वाजपेयी के बीच शायद ही कोई और प्रधानमंत्री आए। पंडित नेहरू ने अगर आधुनिक भारत की मजबूत नींव डाली तो वाजपेयी ने एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र का दर्जा दिलाकर उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। कश्मीर का मसला आजाद भारत की एक ऐसी समस्या रही है जिससे देश के सभी प्रधानमंत्री जूझते रहे, लेकिन वह वाजपेयी ही हुए जिन्होंने ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’ के रूप में उसे देखने का एक ऐसा व्यापक नजरिया दिया, जो इस मसले से जुड़े सभी पक्षों के लिए मिसाल बन गया है।
आश्चर्य नहीं कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले 15 अगस्त को लाल किले से दिए गए अपने भाषण में उसी नजरिए का हवाला देते हुए उसे अपनी नीतियों की भी प्रमुख कसौटी घोषित किया। यह तय माना जा सकता है कि जब भी कश्मीर समस्या के समाधान की कोई महत्वपूर्ण कोशिश होगी, तो उसे इसी कसौटी से होकर गुजरना होगा। मगर वाजपेयी के लंबे राजनीतिक जीवन का महज एक हिस्सा रहा है उनका प्रधानमंत्रित्व काल। एक सांसद के रूप में उनके भाषणों का असर इसी एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि लोकसभा सदस्य के उनके पहले कार्यकाल में ही उनका भाषण सुनकर पंडित नेहरू ने कह दिया था कि वह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। उसके बाद संसद में प्रतिपक्ष के एक नेता के तौर पर सरकार की तारीफ का रेकॉर्ड भी लोकस्मृति में उन्हीं के नाम दर्ज है। आज भी याद किया जाता है कि बांग्लादेश युद्ध में जीत के बाद उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार कहा था। नब्बे के दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का पक्ष रखने वाले प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की पेशकश की तो वे यह सोचकर हिचके नहीं कि वहां मिली सफलता का श्रेय सरकार ले जाएगी जबकि विफलता का दोष उनके हिस्से आएगा। राष्ट्रहित के सवाल पर राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने की अपनी क्षमता दिखाते हुए उन्होंने न केवल जिनीवा में भारतीय प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की चुनौती स्वीकार की बल्कि उस कठिन मोर्चे पर देश को महत्वपूर्ण कूटनीतिक जीत भी दिलाई। अहम मौकों पर संकीर्णताओं से ऊपर उठने की उनकी इसी काबिलियत ने उन्हें न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी सम्मान का हकदार बनाया।
Source NBT
आश्चर्य नहीं कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले 15 अगस्त को लाल किले से दिए गए अपने भाषण में उसी नजरिए का हवाला देते हुए उसे अपनी नीतियों की भी प्रमुख कसौटी घोषित किया। यह तय माना जा सकता है कि जब भी कश्मीर समस्या के समाधान की कोई महत्वपूर्ण कोशिश होगी, तो उसे इसी कसौटी से होकर गुजरना होगा। मगर वाजपेयी के लंबे राजनीतिक जीवन का महज एक हिस्सा रहा है उनका प्रधानमंत्रित्व काल। एक सांसद के रूप में उनके भाषणों का असर इसी एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि लोकसभा सदस्य के उनके पहले कार्यकाल में ही उनका भाषण सुनकर पंडित नेहरू ने कह दिया था कि वह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। उसके बाद संसद में प्रतिपक्ष के एक नेता के तौर पर सरकार की तारीफ का रेकॉर्ड भी लोकस्मृति में उन्हीं के नाम दर्ज है। आज भी याद किया जाता है कि बांग्लादेश युद्ध में जीत के बाद उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार कहा था। नब्बे के दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का पक्ष रखने वाले प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की पेशकश की तो वे यह सोचकर हिचके नहीं कि वहां मिली सफलता का श्रेय सरकार ले जाएगी जबकि विफलता का दोष उनके हिस्से आएगा। राष्ट्रहित के सवाल पर राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठने की अपनी क्षमता दिखाते हुए उन्होंने न केवल जिनीवा में भारतीय प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की चुनौती स्वीकार की बल्कि उस कठिन मोर्चे पर देश को महत्वपूर्ण कूटनीतिक जीत भी दिलाई। अहम मौकों पर संकीर्णताओं से ऊपर उठने की उनकी इसी काबिलियत ने उन्हें न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी सम्मान का हकदार बनाया।
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