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ब्राह्मी लिपि
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ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धों, जैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में यह बात आम तौर से पाई जाती है कि जिस किसी भी चीज़ की उत्पत्ति कुछ अधिक प्राचीन या अज्ञेय हो उसके निर्माता के रूप में बड़ी आसानी से 'ब्रह्मा' का नाम ले लिया जाता है। संसार की अन्य पुरालिपियों की उत्पत्ति के बारे में भी यही देखने को मिलता है कि प्राय: उनके जनक कोई न कोई दैवी पुरुष ही माने गए हें। हमारे यहाँ भी 'ब्रह्मा' को लिपि का जन्मदाता माना जाता रहा है, और इसीलिए हमारे देश की इस प्राचीन लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा है।
बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी'। इन 64 लिपि-नामों में से अधिकांश नाम कल्पित जान पड़ते हैं।
जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है। 'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा है कि, 'लिखने की कला का शोध दैवी शक्ति वाले तीन आचार्यों ने किया है; उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है।'
इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ किंतु बहुत-से विदेशी पुराविद मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था।
ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।
एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से तांबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।' यह 1918 के पहले की बात है।
1929 में अनु घोष को एर्रगुडी (कुर्नूल ज़िला, आंध्र प्रदेश) में अशोक का एक लघु-शिलालेख मिला, जिसे बाद में दयाराम साहनी ने 1933 में प्रकाशित किया। इस लेख की कुल 23 पंक्तियों में से 8 पंक्तियां – 2,4,6,9,11,13,14, और 23 वीं पंक्तियां- दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी गई हैं। पुरालिपियों में यह एक अद्भुत उदाहरण है। पहली पंक्ति बाईं ओर से दाईं ओर, फिर दूसरी पंक्ति दाईं ओर से बाईं ओर, फिर तीसरी पंक्ति बाईं ओर से दाईं ओर.... इसी तरह का सिलसिला यदि सारे लेख में चलता रहे, तो इस प्रकार की लेखन-प्रणाली को 'ब्यूस्त्रफीदान', अर्थात् बैलों द्वारा हल जोतने की विधि कहा जाता है। यूनानी लिपि के आरंभिक लेख इसी प्रणाली के देखने को मिलते हैं। किन्तु एर्रगुडी के इस ब्राह्मी लेख को 'ब्यूस्त्राफीदान' प्रणाली में लिखा हुआ भी नहीं मान सकते; क्योंकि इसमें एक के बाद हर दूसरी पंक्ति नियमत: दाईं ओर से बाईं ओर को नहीं लिखी गई है। फिर भी, डिरिंजेर ने इस लेख के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यूनानी लिपि की तरह आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। यदि केवल यह सिद्ध करने के लिए कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जानेवाली किसी विदेशी लिपि के आधार पर हुआ है।
श्रीलंका में इस प्रकार के कई लेख मिलते हैं, परंतु ये अशोक के बाद के हैं और जान पड़ता है कि इनके लिखनेवालों को ब्राह्मी लिपि का यथार्थ ज्ञान भी नहीं था। आंध्र प्रदेश के भट्टिप्रोलु-लेखों में भी ब्राह्मी के कुछ अक्षर उलटे लिखे हुए मिलते हैं। चालुक्य काल का एक लेख तो नीचे से ऊपर को भी लिखा हुआ मिलता है! इन अपवादात्मक लेखों के आधार पर कोई यदि यह सिद्ध करने का प्रयत्न करे कि ब्राह्मी लिपि विदेशी लिपि के आधार पर बनाई गई है, तो उसे हठधर्मी ही कहा जाएगा।
बहुत-से विद्वान् मानते हैं कि किसी सेमेटिक वर्णमाला के आधार पर ही ब्राह्मी संकेतों का निर्माण हुआ है। लेकिन इसमें भी मतभेद हैं। कुछ लोग उत्तरी सेमेटिक को ब्राह्मी का आधार मानते हैं, कुछ दक्षिणी सेमेटिक को, और कुछ फिनीशियन तथा आरमेई लिपि को। चूंकि आरमेई लिपि का प्रचार भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक था, इसलिए डिरिंजेर का मत है कि आरमेई के आधार पर ही ब्राह्मी का निर्माण हुआ। आज प्राय: सभी विद्वान् यह बात स्वीकार करते हैं कि खरोष्ठी का निर्माण आरमेई लिपि के आधार पर हुआ है, किंतु यह संभव नहीं है कि ब्राह्मी लिपि भी आरमेई के आधार पर बनाई गई हो।
रुम्मिनदेई के अशोक-स्तंभ पर ख़ुदा हुआ यह लेख ब्राह्मी लिपि में है और बाईं ओर से दाईं ओर को पढ़ा जाता है
इसके बारे में ओझाजी ने लिखा है, 'ब्राह्मी लिपि के न तो अक्षर फिनीशियन या किसी अन्य लिपि से निकले हैं और न उसकी बाईं ओर से दाहिनी ओर को लिखने की प्रणाली किसी और लिपि से बदलकर बनाई गई है। यह भारतवर्ष के आर्यों का अपनी खोज से उत्पन्न किया हुआ मौलिक आविष्कार है। इसकी प्राचीनता और सर्वांग सुंदरता से चाहे इसका कर्त्ता ब्रह्मा देवता माना जाकर इसका नाम ब्राह्मी पड़ा, चाहे साक्षर-समाज ब्राह्मणों की लिपि होने से यह ब्राह्मी कहलायी हो, पर इसमें संदेह नहीं कि इसका फिनिशियन से कुछ भी संबंध नहीं है।'
एडवर्ड टॉमस का भी यह मत है कि 'ब्राह्मी अक्षर भारतवासियों के ही बनाए हुए हैं और उनकी सरलता से उनके बनाने वालों की बड़ी बुद्धिमानी प्रकट होती है।'
कनिंघम भी मानते हैं कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण भारतवासियों ने ही किया है।
आर. शाम शास्त्री ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि देवताओं की उपासना के लिए जिन सांकेतिक चिह्नों का उपयोग होता था, उन्हीं से ब्राह्मी लिपि के अक्षरों का निर्माण हुआ है।
जगमोहन वर्मा ने 1913-15 में 'सरस्वती' पत्रिका में ब्राह्मी लिपि के बारे में कुछ लेख थे, जिनमें उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि वैदिक चित्रलिपि या उससे निकली किसी सांकेतिक लिपि से ब्राह्मी लिपि निकली है। लेकिन शास्त्री और वर्मा के ये दोनों सिद्धांत किसी ठोस प्रमाण पर आधारित नहीं हैं, इसलिए इन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। यही अधिक संभव जान पड़ता है कि सिंधु लिपि से ही ब्राह्मी का विकास हुआ है। वस्तुत: सिंधु लिपि में और ब्राह्मी लिपि के उपलब्ध लेखों में लगभग एक हज़ार वर्षों का अंतर है। सिंधु लिपि के संकेतों में और ब्राह्मी लिपि के संकेतो में कुछ साम्य भी देखने को मिलता है।
संभव है कि 1000 ई. पू. के आसपास सिंधु लिपि के आधार पर किसी 'प्राक्-ब्राह्मी' लिपि का निर्माण किया गया हो और आगे चलकर इसी का परिष्कार होने पर ब्राह्मी लिपि अस्तित्व में आई हो।
सिंधु लिपि का स्वरूप भी अक्षरमालात्मक प्रतीत होता है। उसमें भी मूलाक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं का रूप देखने को मिलता है। साथ ही, संयुक्ताक्षर भी देखने को मिलते हैं। कुछ विद्वान् तो यह भी आशा रखते हैं कि सिंधु लिपि में शायद 'आद्य संस्कृत' भाषा की खोज हो जाए।
(साभार भारत डिस्कवरी)
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