(The Protection of Civil Rights Act, 1955)
अस्पृश्यता के प्रयोग एवं उसे बढ़ावा देने तथा अस्पृश्यता से या उससे संबंधित मामलों के कारण उत्पन्न किसी प्रकार के निर्योग्यता (Disability), को दण्डित करने के उद्देश्य से 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955, (Untouchability Offences Act, 1955) बनाया गया था। यह अधिनियम 1 जून, 1955 से प्रभावी हुआ था। लेकिन अप्रैल 1965 में गठित इलायापेरूमल समिति (Elayaperumal Committee) की अनुशंसाओं के आधार पर 1976 में इसमें व्यापक संशोधन किए गए तथा अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 [Untouchability (Offences) Act, 1955] का नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (Protection of Civil Rights Act, 1955) कर दिया गया था। संशोधित अधिनियम 19 नवंबर, 1976 से प्रभावी हुआ था। यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के अस्पृश्यता उन्मूलन संबंधी प्रावधानों के अनुरूप ही है। यह अधिनियम स्वयं अस्पृश्यता संबंधी व्यवहार समाप्त करने पर केंद्रित है। अधिनियम के शीर्षक में बदलाव से स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य केवल दोषियों को दण्डित करना ही नहीं है बल्कि नागरिक अधिकारों का संरक्षण एवं प्रवर्तन (Protection and Enforcement) भी है तथा इस सामाजिक बुराई की प्रमुख जड़ अस्पृश्यता को लक्षित करना है। नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जम्मू-कश्मीर सहित देश के सभी भागों में लागू किया गया था। नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 इस संदर्भ में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 से अलग है जिसे जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के अन्य भागों में लागू किया गया था।
इस अधिनियम के अंतर्गत अस्पृश्यता को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्यता को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रचारित करता है या इसके किसी भी रूप को बढ़ावा देता है या ऐतिहासिक, दार्शनिक या धार्मिक आधार पर या जाति व्यवस्था की किसी परंपरा के आधार पर या किसी अन्य आधार पर किसी भी रूप में अस्पृश्यता के प्रयोग को बढ़ावा देता है तो उस व्यक्ति को अस्पृश्यता के प्रयोग को प्रोत्साहित करने वाला माना जाएगा।
चूँकि अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 अस्पृश्यता के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकता है तथा अस्पृश्यता पर आधारित भेदभाव ज्यादातर उच्च जातियों द्वारा दलित या अनुसूचित जातियों के साथ किया जाता है इसलिए अस्पृश्यता के आधार पर अपराध गठित करने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त एवं परिवादी (Accused and Complainant) भिन्न सामाजिक समूह के व्यक्ति हों। यदि अभियुक्त एवं परिवादी समान सामाजिक समूह के व्यक्ति हैं तो अस्पृश्यता से उद्भूत अपराध गठित नहीं होगा।
अधिनियम के मुख्य प्रावधान (Main Provisions of the Act)
धार्मिक निर्योग्यता थोपने के लिए दंड (Punishment for enforcing religious disability): इस अधिनियम में धार्मिक निर्योग्यता थोपने के लिए दंड का प्रावधान किया गया है। हालाँकि इस अधिनियम में अस्पृश्यों के लिए किसी नए अधिकार की बात नहीं कही गई है लेकिन उन्हें हिन्दू धर्म के अन्य या उच्च जातियों के बराबर माना गया है। इसके अनुसार किसी व्यक्ति को अस्पृश्य होने के आधार पर किसी सार्वजनिक स्थल पर प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता है जबकि ऐसे स्थलों पर प्रवेश करने वाले अन्य व्यक्ति उसी धर्म एवं संप्रदाय से जुड़े हों। पूजा या प्रार्थना करने के उद्देश्य से पवित्र तालाबों, कुओं, झरनों, नदी, पोखर या अन्य जल स्रोतों के प्रयोग के लिए उसी प्रकार की अनुमति प्रदान की गई थी जैसे उसी धर्म के अन्य लोगों को इसकी अनुमति थी।
सामाजिक निर्योग्यता थोपने के लिए दंड (Punishment for enforcing social disabilities): 1976 के संशोधन के बाद अस्पृश्यता के आधार पर निर्योग्यता थोपने, समान व्यवहार से इंकार करने या भेदभाव करने के मामले में जुर्माने के साथ जेल की सछाा देना न्यायालय के लिए अनिवार्य कर दिया गया। 1976 के संशोधन से पहले न्यायालय दोषियों को छह माह तक की जेल की सछाा तथा 500 रुपए तक जुर्माना या दोनों देने के लिए स्वतंत्र था। इस उद्देश्य से बौद्ध, सिक्ख, जैन धर्मों तथा हिन्दू धर्म तथा इसके अन्य स्वरूपों जैसे वीर शैव, लिंगायत, आदिवासी, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज तथा स्वामी नारायण संप्रदाय को हिन्दू ही माना गया है। किसी प्रकार की निर्योग्यता थोपने में अस्पृश्यता के आधार पर भेदभाव भी शामिल है। अस्पृश्यता के आधार पर जो भी व्यक्ति निम्नलिखित मामलों में सामाजिक निर्योग्यता थोपने का प्रयास करेगा वह दंड का भागी होगा-
(i) किसी दुकान, रेस्टोरेन्ट, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन स्थल की पहुँच।
(ii) सार्वजनिक रेस्टोरेन्ट, होटल, लोगों के प्रयोग के लिए धर्मशाला, सराय या मुसाफिर खाना में रखे बर्तनों या वस्तुओं का प्रयोग।
(iii) किसी पेशे, व्यवसाय, व्यापार या रोजगार के मामले।
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