Q. सिंहासन पर बैठने के पश्चात् हुमायूँ को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
अथवा " हुमायूँ की कठिनाइयों का वर्णन कीजिए। उसकी असफलता के क्या कारण थे?
अथवा " हुमायूँ जीवनभर ठोकरें खाता रहा और अन्त में ठोकर खाकर ही मर गया।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अथवा " हुमायूँ के चरित्र एवं व्यक्तित्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। अपने दुर्भाग्य के लिए वह स्वयं कहाँ तक उत्तरदायी था?
अथवा " हुमायूँ के पतन के कारणों का वर्णन कीजिए।
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उत्तर – हुमायूँ बाबर का ज्येष्ठ पुत्र था। उसका जन्म मार्च, 1508 में काबुल में हुआ था। उसके तीन अन्य भाई कामरान, अस्करी और हिन्दाल थे। हुमायूँ 30 दिसम्बर, 1530 को सिंहासन पर बैठा था। उसके सामने विद्रोहियों और अफगानं सरदारों की समस्याएँ थीं। 1530 से 1540 ई. तक हुमायूँ ने बड़े साहस एवं धैर्य से इन समस्याओं का सामना किया, परन्तु 1540 ई. में शेरशाह से पराजित होने के कारण उसे भारत छोड़ना पड़ा और अपने जीवन के 15 वर्ष उसने विदेशों में व्यतीत किए। 1555 ई. में हुमायूँ ने भारत पर पुनः विजय प्राप्त की। इस प्रकार हुमायूँ का प्रथम शासनकाल 1530 से 1540 ई. तक और द्वितीय शासनकाल 1555 से 1556 ई. तक माना जाता है।
हुमायूँ की कठिनाइयाँ (समस्याएँ)
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हुमायूँ अपने पिता बाबर की मृत्यु के पश्चात् 1530 ई. में दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ। इस समय उसके सामने अनेक भीषण कठिनाइयाँ (समस्याएँ) थीं, जिनका विवरण अग्र प्रकार है
(1) उत्तराधिकार के नियमों का अभाव - बाबर की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली की गद्दी के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया, क्योंकि उस समय उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट नहीं थे। इसी कारण उसके भाई कामरान, हिन्दाल और अस्करी जीवनभर उससे गद्दी हड़पने के लिए षड्यन्त्र रचते रहे। इसकीन लिखते हैं, "उस समय ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी जिसमें अधिकार का निर्णय तलवार ही कर सकती थी और प्रत्येक भाई अपने भाग्य का निर्णय तलवार के बल पर करने के लिए तत्पर था।"
(2) सम्बन्धियों का विरोध -
हुमायूँ के सबसे प्रबल शत्रु उसके निकट सम्बन्धी थे। इन सम्बन्धियों में सबसे प्रमुख मुहम्मद जमाल मिर्जा था, जो हुमायूँ की सौतेली बहिन मासूमा बेगम का पति था। वह भी दिल्ली पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। इसी प्रकार कुछ अन्य मिर्जा सरदार भी हुमायूँ के विरुद्ध षड्यन्त्रों में व्यस्त थे।
(3) भाइयों का असहयोग -
संकटकाल में उसने भाइयों से सहायता माँगी, परन्तु उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की। इसका वर्णन करते हुए फरिश्ता ने लिखा है, "हुमायूँ ने शेरशाह के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए अपने भाइयों के सामने हर प्रकार के तर्क रखे और कहा कि हमारी आन्तरिक कलह से विशाल साम्राज्य हाथ से निकल जाएगा।" परन्तु उसके भाइयों पर इसका कोई प्रभाव न हुआ।
(4) अफगानों की समस्या -
अफगान भी हुमायूँ के शत्रु सिद्ध हुए। बाबर ने अफगानों का दमन अवश्य कर दिया था, परन्तु वह उन्हें पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सका। इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी अफगान शक्ति संगठित करके भारत में पुनः अफगान राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील था। शेर खाँ ने हुमायूँ को चौसा तथा कन्नौज के युद्ध में परास्त कर उसे भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।
(5) बाह्य सहायता प्राप्त करने में असफलता -
मिर्जा हिन्दाल तथा मिर्जा यादगार नासिर अभी तक हुमायूँ के साथ इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे। हिन्दाल भी हुमायूँ को छोड़कर कन्भार जाने का विचार कर रहा था। इसी समय गुजरात पर पुनः विजय प्राप्त करने के लिए हुमायूँ ने शाह हुसैन अरगों से सहायता माँगी, किन्तु वह असफल रहा।
(6) सहायकों द्वारा विश्वासघात -
हुमायूँ ने सहबुल के किले पर अधिकार करने का विफल प्रयास किया। इस समय उसके साथी मिर्जा यादगार नासिर ने उसके साथ विश्वासघात किया। अब हुमायूँ ने अपने मित्र जोधपुर के राजा मालदेव के यहाँ जाने का निश्चय किया। उसने हुमायूँ को पत्र भेजे थे और उसे भारत पर पुनः आक्रमण करने में सहायता देने का वचन दिया था। अत: जैसलमेर के रास्ते हुमायूँ ने मारवाड़ (जोधपुर) के लिए प्रस्थान किया, परन्तु इसी बीच वहाँ का शासक मालदेव शेरशाह से मिल चुका था और उसने हुमायूँ को बन्दी बनाकर" शेरशाह को सुपुर्द करने का वचन दिया। हुमायूँ को इस विश्वासघात की खबर मिल गई थी, अत: उसने अमरकोट के राणा के यहाँ शरण ली।
(7) अकबर का जन्म -
इन्हीं मुसीबतों के बीच 1542 ई. में अमरकोट में अकबर का जन्म हुआ। इन परेशानियों में अकबर के जन्म से हुमायूँ की परेशानियों में और वृद्धि हो गई। अभी तक तो वह स्वयं अपने लिए शरण खोज रहा था, परन्तु अब उसे पत्नी और बच्चे की भी चिन्ता थी।
(8) भाइयों द्वारा विश्वासघात -
हुमायूँ को भटकते-भटकते बहुत दिन बीत चुके थे; अतः उसने भारत पर पुनः विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। इसी समय उसका पुराना सैनिक बैरम खाँ हुमायूँ से आ मिला। अब हुमायूँ ने कन्धार जाने का निश्चय किया, परन्तु उसके भाइयों ने उसका घोर विरोध किया। उसके भाई कामरान ने, जो एक स्वतन्त्र राजा के रूप में राज्य कर रहा था और जिसने कन्धार का राज्य प्रबन्ध अपनी ओर से अस्करी को सौंप रखा था, फौजें भेजकर हुमायूँ का रास्ता रोक दिया और उसे गिरफ्तार करना चाहा। हुमायूँ स्वयं तो बच गया, किन्तु जल्दी में भागते हुए उसे लगभग एक वर्ष के बेटे अकबर को वहीं छोड़ जाना पड़ा।
हुमायूँ की असफलता के कारण
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(1) हुमायूँ की व्यक्तिगत दुर्बलताएँ - ऐसी संकटकालीन परिस्थिति में आवश्यक था कि हुमायूँ में सैन्य संगठन की योग्यता, कूटनीतिक दक्षता एवं राजनीतिक पटुता का समावेश होता, किन्तु दुर्भाग्यवश उसमें इन गुणों का अभाव था। इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है, "उसमें चारित्रिक बल और संकल्प शक्ति का अभाव था। विजय प्राप्ति के पश्चात् वह हरम में जाकर आनन्द में लीन होई जाता था और अपना अमूल्य समय अफीमचियों की दुनिया में नष्ट करता था।" एक अन्य इतिहासकार ने लिखा है, "हुमायूँ स्वयं अपना ही शत्रु था।"
(2) बहादुरशाह और शेर खाँ की शक्ति को बढ़ने देना - चुनार के आक्रमण के समय शेर खाँ से सन्धि कर लेना और रानी कर्णवती को समय पर सहायता न देना, उसकी कमजोरियों के स्पष्ट प्रतीक हैं। हुमायूँ ने बहादुरशाह की शक्ति को भी बढ़ने दिया। जिस समय शत्रु उसके दरवाजे पर ललकारता था, वह हरम में भोग-विलास में डूबा रहता था।
(3) साम्राज्य का विभाजन -
हुमायूँ अपनी व्यक्तिगत कमजोरियों के कारण जीवनभर ठोकर खाता रहा। भाइयों के मध्य साम्राज्य का विभाजन करना उसकी बहुत बड़ी मूर्खता थी। कामरान को हिसार और कन्धार देना हुमायूँ के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ, क्योंकि इस कार्य के फलस्वरूप उसके ही भाइयों ने हुमायूँ के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित की।
(4) अपव्यय -
एक ओर हुमायूँ का राजकोष खाली था, फिर भी वह धन लुटाने से बाज नहीं आया। उसका जीवन अत्यन्त विलासी था, छोटी-सी विजय के बाद वह उत्सवों में पैसा बहाता था। कालिंजर की विजय के पश्चात् उसने दिल खोलकर धन लुटाया। चुनार से लौटते समय वह ग्वालियर में दो माह तक खुशियाँ मनाता रहा।
(5) राज्य का कुशल प्रबन्ध न करना -
बाबर की भाँति हुमायूँ ने भी शासन प्रबन्ध की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुछ कठिनाइयाँ तो हुमायूँ को विरासत में मिली थीं और अनेक कठिनाइयाँ उसने स्वयं दुर्बल चरित्र के कारण उत्पन्न कर लीं। उसका जीवन न केवल विलासी था, वरन् उसमें सैनिक योग्यताएँ भी नहीं थीं। वह बड़ा अफीमची भी था। स्थान-स्थान पर उसने अनेक गलतियाँ कीं, इसलिए वह जीवनभर ठोकरें खाता रहा और ठोकर खाकर ही उसकी मृत्यु भी हुई ।
हुमायूँ का चरित्र
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निजामुद्दीन अहमद के अनुसार, "हुमायूँ का चरित्र देवदूतों जैसा था और वह • पुरुषोचित गुणों से विभूषित था एवं साहस तथा वीरता में वह अपने युग के सभी राजाओं से बढ़ा-चढ़ा था।"
फरिश्ता ने लिखा है, "हुमायूँ की आकृति सुन्दर थी और उसका वर्ण काँसे जैसा था। उसमें कोमलता, उदारता, निडरता, दानशीलता आदि गुण अधिक मात्रा में विद्यमान थे।"
उनके चचेरे भाई मिर्जा हैदर का कथन है, "उसमें अनेक श्रेष्ठ गुण थे और वह युद्धों में पराक्रमी, दावतों में प्रसन्नचित्त एवं बहुत ही उदार था।":
(1) उदारता - यद्यपि उदारता चरित्र का एक गुण है, परन्तु हुमायूँ जिन परिस्थितियों में था, उनमें उदारता उसके लिए घातक थी। उसमें उदार होने का असामयिक गुण था। अपनी उदारता के कारण ही उसने अपने भाइयों को राज्य के विभिन्न भाग 'बाँट दिए। उसने अपने शत्रुओं को बार-बार क्षमा किया।
(2) निरन्तर प्रयास - डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, "उसके चरित्र की प्रमुख कसौटी निरन्तर मेहनत करते रहने की प्रवृत्ति थी और उसके जीवन में आदि से अन्त तक यह एक ईश्वरीय वरदान के रूप में स्थित रही।"
(3) युद्ध विधियों के ज्ञान का अभाव - डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, "यद्यपि उसमें व्यक्तिगत साहस की कमी नहीं थी, परन्तु वह अपने पिता के समान महान् सेनापति और शेरशाह के समान युद्ध विधियों का कुशल ज्ञाता नहीं था।"
मूल्यांकन - हुमायूँ को कठिनाइयाँ विरासत में मिली थीं, जिनका उसने दृढ़ साहस एवं निरन्तर प्रयासों के द्वारा सामना किया। अपनी उदारता एवं सहनशीलतो के कारण उसे अनेक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा। इतिहासकारों के कथनानुसार, "यदि असफलता की किंचित मात्र सम्भावना भी नहीं होती, तो हुमायूँ उससे बच नहीं सकता था। वह सदैव गिरता-पड़ता रहा और अन्त में लुढ़ककर ही उसकी मृत्यु हो गई।"
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