Friday 16 November 2018

जनतंत्र का दिखेगा भविष्य (राष्ट्रीय सहारा)


सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर को एक और महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। मुख्य न्यायाधीश की दो जजों की बेंच ने चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन अकेले सरकार के द्वारा किए जाने के बजाय उसे पांच प्रतिष्ठित जनों के एक कॉलेजियम के जरिये करने की व्यवस्था की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई के लिए उसे संविधान पीठ को सौंपने का फैसला किया है। जाहिर है कि इससे चुनाव आयोग में अपने कठपुतली बैठाने की केंद्र सरकार की अब तक की तमाम कोशिशों पर अंकुश लगेगा। सरकार की ओर से इस याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि भारत का चुनाव आयोग पारदर्शी रहा है, इसके चयन की प्रक्रिया में छेड़छाड़ की जरूरत नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील को स्वीकारने के बजाय इस विषय को विचार के लिए पांच सदस्यों की संविधान पीठ को सौंपना ही सही समझा। सरकारी दलीलें आज के राजनीतिक प्रत्यक्ष को झुठलाने के धोखे से ज्यादा कुछ नहीं थी। आगामी 29 अक्टूबर से इस याचिका पर बाकायदा सुनवाई शुरू होगी।
भारत में संवैधानिक संस्थाओं के सदस्यों के चयन में कॉलेजियम पण्राली के प्रयोग की सफलताओं को सभी जानते हैं। इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार की दखल रुक गई है। फलत: न्यायपालिका की स्वायत्तता बनी हुई है। न्यायपालिका में कॉलेजियम को नष्ट करने के लिए मोदी सरकार ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था। यहां तक कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में भी प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम की भूमिका होने के कारण ही सीबीआई के निदेशक पद पर अभी के निदेशक आलोक वर्मा की नियुक्ति मुमकिन हुई है। हालांकि सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा के खिलाफ मामला बनाने की जी-जान से कोशिश की जा रही है। अस्थाना पर एफआईआर दर्ज कर दी गई है। दिल्ली हाईकोर्ट ने अस्थाना की उस याचिका को ठुकरा दिया है, जिसमें उसने अपने खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने की मांग की थी। अस्थाना के लैपटॉप और मोबाइल जब्त कर लिए गए हैं। सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने उसके पास से सारे मामलों को अपने हाथ में ले कर उसे अधिकारहीन बना दिया है और उसके मातहत डीएसपी देवेन्द्र वर्मा को गिरफ्तार करके अपनी हिरासत में ले लिया है। उसी के जरिये अस्थाना आलोक वर्मा को फंसाने की साजिशें कर रहा था। हाईकोर्ट ने आगामी 29 अक्टूबर को इस मामले की तारीख तय की है, तब तक के लिए अस्थाना को गिरफ्तार न करने का भी आदेश दिया है। लेकिन यह साफ है कि अब अस्थाना की हर गतिविधि पर सीबीआई की कड़ी नजर रहेगी। अब बमुश्किल चार दिन भी नहीं है। 29 अक्टूबर के पहले फ्रांस से रफाल लड़ाकू विमान के सौदे में खरीद की प्रक्रिया के बारे में मोदी सरकार को सारे तय सुप्रीम कोर्ट को सौंपने हैं। 31 अक्टूबर से सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की बेंच इस मामले की सुनवाई करेगी। इस बीच रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण पेरिस जा कर सारे कागजातों को ठीक-ठाक कर आई है। आने के बाद उन्होंने कोई बयान नहीं दिया है कि वे पेरिस क्यों गई और वहां क्या कर आई हैं? इस जग-जाहरि सौदे की ‘‘गोपनीयता’ की तरह उनका यह आना-जाना भी शायद एक ‘‘गोपनीय’ काम ही था। इसके अलावा, 29 अक्टूबर से ही सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में उस जमीन के मालिकाना हक के बारे में सुनवाई शुरू करेगा। इस मामले के अंजाम के अंदेशे के कारण ही भाजपा-संघ वालों ने अदालत के बजाय कानून बना कर राम मंदिर बनाने की शेख-चिल्लियों वाली बात कहनी शुरू कर दी है। धर्म के व्यापार के जरिये अपनी राजनीति को चमकाने की मोदी की एक और कोशिश, उनके चार-धाम प्रकल्प को भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से न सिर्फ पर्यावरण बल्कि हिन्दू धर्म में तीर्थो से जुड़ी धार्मिंक भावना की रक्षा का काम भी किया है। हिन्दुओं के लिए तीर्थ मौज-मस्ती और सैर-सपाटे के लिए नहीं होते हैं। लगभग एक सदी पहले तक बैलगाड़ी तक से तीर्थ यात्रा को पाप माना जाता था। तीर्थ यात्रा के विधान में सिर्फ पैदल चलने का प्राविधान था। काषाय वेष में तीर्थ पर निकलने के पहले आदमी अपने घर से विदा मांग कर निकलता था। पर्यावरण को इतना भारी नुकसान पहुंचा कर तीर्थस्थलों तक सुगमता से पहुंचने की व्यवस्था करना कोई धार्मिंक काम नहीं, धर्म के जरिये सस्ती राजनीति का नग्न उदाहरण है। यह धर्म के धंधे को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करना है। अन्यथा धर्म के नजरिये से देखें तो यह पूरा प्रकल्प तीर्थो के साथ जुड़ी काल का अतिक्रमण करने की मूल सनातनी धार्मिंक भावना का खुला अपमान है। इसी प्रकल्प ने प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के प्राण लिये हैं, इसे भी कभी भूला नहीं जा सकता है। ऊपर से नवम्बर महीने से ही शुरू होने वाले पांच राज्यों के आगामी चुनावों की तलवार तो मोदी सरकार पर लटकी हुई है ही। अब तक के सारे संकेत यही बताते हैं कि इन चुनावों से मोदी कंपनी को बड़ा झटका लगने वाला है। कुल मिलाकर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का सच यही है कि जैसे 1975 का इंदिरा गांधी का आंतरिक आपातकाल भारतीय जनतंत्र के लिए एक बड़ी अग्निपरीक्षा साबित हुआ था, जिससे गुजर कर उसे नई शक्ति और ऊर्जा मिली थी, उसी प्रकार मोदी के शासन के ये पांच साल भी कम बड़ी अग्निपरीक्षा साबित नहीं होंगे। हमारा मानना है कि इससे गुजरकर भारतीय जनतंत्र को अपने अंदर से पैदा होने वाले तुगलकों के शासन से निपटने का नया विवेक और नई शक्ति मिलेगी। यहीं से भारत में संघी मूर्खताओं पर टिकी राजनीति के अंत का भी प्रारंभ होगा। मोहन भागवत की विक्षिप्तावस्था इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। ‘‘राजनीति नहीं करते’, ‘‘राजनीति नहीं करते’ रटते-रटते अब वे सारे आवरणों को उतार कर अपने शुद्ध राजनीतिक स्वरूप को सरे बाजार खोल दे रहे हैं। जाहिर है कि दो साल पहले नोटबंदी के समय से मोदी जी ने भारत की जनता की दिवाली पर जिस मायूसी की काली छाया को थोपा था, अब इस साल से वही मायूसी उलट कर मोदी जी पर छाने वाली है। 2019 पांच साल की इस लंबी काली रात के अवसान का साल होगा। आगामी 29 अक्टूबर से सुप्रीम कोर्ट में खुल रहे झरोखे में भविष्य की इस सूरत को बाकायदा देखा जा सकता है।

सौजन्य – राष्ट्रीय सहारा।

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