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यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के दौरान अयोध्या मसले को जमीन के मालिकाना हक के विवाद के तौर पर देखेगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह मूलत: इसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से दिए गए फैसले पर विचार करेगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने का जो फैसला दिया था, उसका एक आधार अयोध्या ढांचे से मिले पुरातात्विक साक्ष्य थे। अदालतें आस्था के आधार पर फैसले नहीं दे सकतीं, लेकिन वे पुरातात्विक साक्ष्यों पर तो विचार कर ही सकती हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के आकांक्षी इसीलिए अपना पक्ष मजबूत मान रहे हैं, क्योंकि विवादित स्थल पर मंदिर होने के ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण हैं। बावजूद इस सबके यह नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट अब आगे चलकर किस निष्कर्ष पर पहुंचेगा। अच्छा होता कि यह मामला उस तक पहुंचता ही नहीं और आस्था से जुड़े इस मामले को आपसी सहमति से सुलझाया जाता। इससे दोनों पक्षों के बीच सद्भावना का संचार होता और देश ही नहीं, दुनिया के समक्ष एक अनुकरणीय उदाहरण पेश होता। यह खेद की बात है कि ऐसा नहीं हो सका।यह भी पढ़ें
आपसी सहमति से अयोध्या विवाद का न सुलझ पाना देश के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नेतृत्व की विफलता है। यह विफलता इसीलिए मिली, क्योंकि इन सवालों से मुंह चुराया गया कि अयोध्या में बाबर के नाम वाली मस्जिद आखिर क्यों बनी और यदि राम का मंदिर उनके जन्म स्थान पर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? काश कि राम मंदिर के सवाल पर वोटबैंक की राजनीति न की जाती। हालांकि अब आपसी बातचीत से अयोध्या विवाद का हल निकालने में देर हो गई है, परंतु इस दिशा में पहल अब भी हो सकती है।
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