Saturday, 27 October 2018

_ऑस्कर_अवॉर्ड_में_कैसे_होता_है_फिल्मों_का_चयन

#_ऑस्कर_अवॉर्ड_में_कैसे_होता_है_फिल्मों_का_चयन

ऑस्कर अवॉर्ड में मुख्य रूप से हॉलीवुड फिल्मों को चुना जाता हैं. लेकिन इस पुरस्कार समारोह में एक कैटेगरी होती हैं ‘

विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म‘ की. इसी कैटेगरी के लिए ऑस्कर अकादमी दुनियाभर से फिल्में को आमंत्रित करती है. इंडिया की तरफ से हर साल ऑस्कर अवॉर्ड के लिए फिल्मों का चयन तो कर दिया जाता है. लेकिन ज्यादातर फिल्में आखिरी #_पांच में जगह बना पाने में नाकामयाब साबित होती है.

महबूब खान की ‘मदर इंडिया’,
मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ और आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’ ही ऑस्कर पुरस्कार की आखिरी सूची तक पहुंच पाई लेकिन अवॉर्ड नहीं जीत सकी.

#_फिल्मों_का_चुनाव_होता_है

भारत से ऑस्कर के लिए फिल्म चुन कर भेजने की जिम्मेदारी फिल्म #_फेडरेशन_ऑफ_इंडिया की सिलेक्शन कमिटी करती है जो देशभर के फिल्म निर्माताओं की संस्थाओं से फिल्में भेजने को कहती है.

अलग-अलग भाषाओं से आने वाली इन फिल्मों में से किसी एक को ऑस्कर के लिए भेजा जाता है. इसके लिए नियम यह है कि पिछले एक साल के दौरान वह फिल्म देश के किसी सिनेमाहॉल में रिलीज हुई हो. ताकि आम दर्शकों को पता हो की कौन सी फिल्म चुनी गयी है. एक नियम यह भी है कि यह फिल्म #_अंग्रेजी में न हो मतलब देश की किसी भी आधिकारिक भाषा में होनी चाहिए.

इसके साथ इंग्लिश सबटाइटल्स का होना जरूरी हैं. इन नियमों पर खरा उतरने के बाद किसी फिल्म को ऑस्कर के लिए भेजा जाता हैं.

#_ऑस्कर_का_सफर.
ऑस्कर में नामांकन पाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है. फिल्म का धमाकेदार प्रमोशन करने के साथ-साथ जबरदस्त लॉबीइंग करना. भारत की तरफ जिस फिल्म को भेजा जाता है उस फिल्म निर्माता के सामने सबसे बड़ी मुसीबत होती है अपनी फिल्म को सही तरीके से कैसे #_प्रोमोट करे? क्योंकि प्रमोशन में करोड़ो का खर्च आता है. जिसे उठा पाना हर मेकर्स के बस की बात नहीं होती.

दरअसल होता यूं है कि ऑस्कर में दो लोग तय करते हैं कि कौन सी फिल्म नॉमिनेट होगी और कौन सी जीतेगी. #_पहली_है_एकेडमी_ऑफ_मोशन_पिक्चर_आर्ट्स_एंड_साइंसेज़_के_मेंबर्स

#_दूसरे_हैं_अकाउंटिंग_कंपनी_प्राइस वॉटर हाउस कूपर्स.

एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज़ के मेंबर्स की संख्या 6 हजार से उपर की हैं. सो, फिल्म के मेकर्स को इन सभी मेंबर्स के लिए अपनी फिल्मों के शो रखने होते है.

स्क्रीनिंग पर वोटर्स को बुलाने की जद्दोजहद के साथ थियेटर, स्क्रीनिंग, नाश्ते और बाकी अलग तरह के खर्च होते हैं. इसके अलावा अमेरिका की प्रमुख फिल्म मैगजीन और अखबारों में भी विज्ञापन देने होते हैं. जिससे वोटर्स की नजरों में फिल्म आ सके. इसके बाद वोटर्स अपनी पसंद की फिल्म पर ठप्पा लगाते हैं.

लेकिन इन सब में मेकर्स को काफी समस्या आती है. पैसे लगाने के बावजूद भी जरूरी नहीं की हर वोटर इनकी फिल्म देख सके. क्योंकि विदेशी भाषा श्रेणी में दुनियाभर से 70- 80 फिल्में आती है.

ऐसे में एक वोटर के लिए संभव नहीं है कि वो ये सारी फिल्में देख सके. इसलिए ज्यादातर वोटर्स दूसरे वोटर्स के कहने सुनने और उसके साथ अपने रिश्तों के चलते पर वोटिंग करते हैं. हर फिल्म के प्रचार के लिए एक एजेंट हायर करना पड़ता है. जिसे #_ऑस्कर_विशेषज्ञ कहा जाता है ये भी अच्छी खासी फीस लेते हैं. इसलिए ऑस्कर के आखिरी 5 की सूची में जगह बना पाना एक मुश्किल भरा सफर होता है. जिस मामले में ज्यादातर भारतीय फिल्में पिछड़ जाती है.

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