#उच्च #शिक्षा का #उदारीकरण!!
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स्वतंत्रता के पश्चात् से ही, अपर्याप्त धनराशि के साथ उच्च शिक्षा को उत्कृष्ट बनाने की चुनौती का नतीजा यह हुआ कि इसका स्तर लगातार घटता गया और निजीकरण तथा राजनीतिकरण लगातार बढ़ता गया। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में प्रगति संभव नहीं है। देश के आईआईटी और आईआईएम ने शिक्षा की उत्कृष्टता की मिसाल पेश की है। लेकिन इनके दायरे में आने वाले विद्यार्थियों की संख्या मात्र 3.5 करोड़ है। पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के प्रयास किए जा रहे हैं।
2016 में नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क की शुरूआत की गई थी। इसमें महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की उत्कृष्टता के आधार पर उन्हें रैंक दिया जाता है। इस सूची के आधार पर संस्थानों के महत्वपूर्ण सोपानों पर डाटा मिल जाता है, और सरकार के लिए इनसे जुड़े निर्णय लेना सुगम हो जाता है। इस व्यवस्था से जुड़ा एक आरोप लगाया जाता रहा है कि कुछ निजी संस्थान इस पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करके इसे दोषपूर्ण बना देते है।
हाल ही में इंस्टीट्यूशन ऑफ एमीनेंस (आई ए) प्रोजेक्ट और ग्रेडेड ऑटोनॉमी प्रोजेक्ट, ऐसे दो अभियान चलाए जा रहे है, जो भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों को विश्व में प्रतिस्पर्धा करने योग्य बनाएंगे। इसके अंतर्गत सार्वजनिक संस्थानों को पर्याप्त निधि और स्वायत्तता दी जाएगी।
ग्रेडेड ऑटोनॉमी प्रोग्राम में भाग लेने वाले संस्थानों को पर्याप्त अकादमिक, वित्तीय और प्रशासनिक नवाचार की स्वतंत्रता दी जाएगी।
पारंपरिक रूप से हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग या समझौते करने की छूट नहीं है। इसके कारण हम विदेशी छात्रों को आकर्षित नहीं कर पाते। जहाँ चीन में चार लाख विदेशी छात्र पढ़ते हैं, वहीं भारत में 47 हजार के आसपास पढ़ते हैं। ग्रेडेड ऑटोनॉमी कार्यक्रम से विश्व स्तरीय शिक्षकों को यहाँ आमंत्रित किया जा सकेगा।
स्टडी इन इंडिया जैसे कार्यक्रम के माध्यम से भारत में एशिया और अफ्रीका के विद्यार्थियों की संख्या को 1% से 2% किए जाने की उम्मीद है।
हाल ही में भारत तीस देशों के साथ अकादमिक योग्यता प्रदान करने हेतू आपसी सहयोग करने जा रहा है। अभी फ्रांस के साथ इसी प्रकार के एक मेमोरेन्डम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर हस्ताक्षर किए गए हैं। विकास की दिशा में यह एक ऐतिहासिक कदम है।
चुनौतियां
भारत के लगभग 20 विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाने का विचार तो अच्छा है, परंतु इसके लिए पर्याप्त
समय और पर्याप्त निधि की आवश्यकता होगी। यह कोई सहज ही हो जाने वाला काम नहीं है।
संस्थानों को बहुत अधिक स्वायत्तता प्रदान करना एक चुनौती है।
सरकारी काम के हर स्तर पर रोड़ा अटकाने वाली नौकरशाही व्यवस्था से निपटना होगा।
संस्थानों को स्वयं में नवाचार के विचारों से अपने आप को योग्य सिद्ध करना होगा।
व्याख्याताओं की सोच को उन्मुक्त करना होगा।
विदेशों के सफल संस्थानों का अध्ययन करके नए विचारों को आत्मसात करना होगा।
नेशनल रैंकिग सिस्टम को पूरी उच्च शिक्षा में लागू करना होगा। इसका सरलीकरण भी करना होगा।
21 वीं शताब्दी में अकादमिक सफलता के लिए अंतरराष्ट्रीयकरण जरूरी है। हाल के कुछ वर्षों में विदेशी संस्थानों को यहाँ अनुमति न दे पाना हमारे विकास मार्ग की असफलता रही है। विदेशी संस्थानों के साथ सहयोग के अलावा, हमारे यहाँ ऐसी व्यवस्था हो कि विदेशों के डॉक्टरेट किए विद्यार्थी भी यहाँ अल्पावधि के कोर्स करने के लिए आना चाहें।
भारत की शिक्षा-व्यवस्था में अंगे्रजी का मुख्य स्थान है। अतः अपने संस्थानों का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में हमें इस व्यवस्था का पूरा लाभ उठाना चाहिए।
सवाल यह है कि क्या हमारे उच्च शिक्षा संस्थान, 21वीं शताब्दी की चुनौतियों के साथ-साथ केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए तैयार हैं ?
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‘द #हिंदू‘ में प्रकाशित लेख पर आधारित।
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