आर्थिक स्थिति
मौर्यकाल की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और इससे सम्बंधित गतिविधियों पर आधारित थी। इस दौरान व्यापार भी किया जाता था। भूमि पर राजा का अधिकार होता था, इस प्रकार की भूमि को सीता कहा जाता था। इस भूमि पर कृषि कार्य करने के लिए दास अथवा कर्मकारों को नियुक्त किया जाता था। कई क्षेत्रों में राज्य की ओर से सिंचाई का समुचित प्रबंध किया गया था, जिसे सेतुबंध कहा गया है। इन क्षेत्रों में राज्य द्वारा सिंचाई की सुविधा प्रदान की जाती थी, उन क्षेत्रों से राज्य उत्पादन का 1/3 हिस्सा कर के रूप में प्राप्त करता था। इस सिंचाई कर को उदकभाग कहा जाता था।
मौर्यकालीन सम्राटों द्वारा अपने राज्य में सिंचाई के लिए व्यवस्था की गयी थी, इसके लिए झीलों अथवा जलाशयों का निर्माण किया जाता था। इस दौरान विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन किया जाता था। संस्कृति ग्रंथों के अनुसार मौर्यकाल में उत्पादन का 1/6 कर के रूप में वसूल किया जाता था जबकि मेगास्थनीज़ के अनुसार उत्पादन का ¼ हिस्सा ही कर के रूप में वसूल किया जाता था। अनाज, पशु और सोने के रूप में कर देने वाले गाँव हिरण्य, बेगार देने वाला गाँव विष्टि तथा करमुक्त गाँव परिहारिक कहलाता था।
उद्योग
चूंकि मौर्यकाल में कृषि कार्य प्रमुख व्यवसाय था, परिणामस्वरूप कृषि से सम्बंधित उद्योग मौर्यकाल में काफी प्रचलित थे। मौर्यकाल में सूत कातने एवं बुनने का उद्योग प्रमुख था। मौर्यकाल में पत्थर तराशने के कार्य भी बड़े स्तर पर किया जाता था। इसके अतिरिक्त इस काल में धातु उद्योग, चमड़ा उद्योग, शराब उद्योग, जहाज़रानी उद्योग, औषधि उद्योग आदि प्रसिद्ध थे। मौर्यकाल में रेशम का आयात चीन से किया जाता था। काशी, बंग, पुंडू, कलिंग और मालवा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध। बंग का मलमल विश्व प्रसिद्ध था।
व्यापारिक गतिविधियाँ
मौर्यकाल में अंतर्देशीय व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी किया जाता था। इस दौरान कुछ वस्तुओं व्यापार राज्य द्वारा भी किया जाता था, उन वस्तुओं को राजपण्य कहा जाता था। मौर्यकाल में देशी उत्पादों पर 4% तथा आयातित वस्तुओं पर 10% बिक्री कर वसूल किया जाता था।
व्यापारिक गतितिविधियों पर राज्य का नियंत्रण था। विदेशी व्यापार के लिए इस काल में ताम्रलिप्ति पूर्वी तट का महत्वपूर्ण बंदरगाह था, जहाँ से श्रीलंका के लिए जहाज़ जाते थे। पश्चिमी तट पट भड़ौच तथा सोपारा प्रमुख बंदरगाह थे।
विदेशी व्यापार
मौर्य काल में विश्व के अन्य हिस्सों से भी व्यापार किया जाता था, इस दौरान प्रमुख विदेशी साझेदार पश्चिमी एशिया, मिस्र, चीन और श्रीलंका थे। मौर्यकाल में चीन से रेशम, ताम्रपर्णी से मोती, नेपाल से चमड़ा, सीरिया से मदिरा और पश्चिमी एशिया से घोड़ों का आयात होता था। इस दौरान हाथी दांत, कछुए, सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी का निर्यात होती थी।
मुद्रा
मौर्यकाल में सोने, चांदी और ताम्बे के सिक्के प्रचलन में थे। मौर्यकाल की राजकीय मुद्रा पण थी। मौर्य काल में आहत मुद्राएँ भी प्रचलन में थीं। मयूर,पर्वत और अर्द्धचन्द्र की चाप वाली आहत रजत मुद्राएं मौर्य साम्राज्य की मान्य मुद्राएं थीं। तौल की इकाईयां आढ़क, प्रस्थ, कुदुम्ब, पल और सुवर्णमास थीं।
सामाजिक स्थिति
मौर्यकाल में समाज व्यवसाय के आधार पर 7 श्रेणियों में बंटा हुआ था, यह साथ श्रेणियां दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य और सभासद थीं। इस दौरान अधिकतर लोगों का व्यवसाय कृषि था।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में समाज की चारों वर्गों का उल्लेख ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के रूप में किया है। कौटिल्य ने शूद्रों को आर्य कहा है तथा उन्हें मलेच्छों से भिन्न बताया है। अर्थशास्त्र में कृषि, पशुपालन और व्यापार को शूद्रों का व्यवसाय बताया गया है। कौटिल्य ने कई मिश्रित जातियों का भी उल्लेख किया है, उनकी उत्पति विभिन्न वर्णों के अनुलोम व प्रतिलोम विवाहों से हुई थी।
मौर्यकाल में मदिरा पान, जुआ व शिकार मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। इस दौरान रंगशालाएं भी अस्तित्व में थीं।
मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति
मौर्यकाल में स्त्रियों का स्थान अपेक्षाकृत संतोषजनक था। उन्हें इस दौरान काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। स्त्रियों को पुनर्विवाह और नियोग की अनुमति दी गयी थी। स्त्रियाँ प्राय घर में ही रहती थीं, इस प्रकार की स्त्रियों को कौटिल्य ने अनिष्कासिनी कहा है। अर्थशास्त्र के अनुसार विवाह के लिए स्त्री की आयु 12 वर्ष तथा पुरुष की आयु 16 वर्ष होनी चाहिये। मौर्यकाल में दहेज़ प्रथा काफी प्रचलित थी। स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने वाली विधवाओं को छंदवासिनी तथा धनी विधवा को आढय कहा जाता था।
मौर्यकाल में स्त्रियाँ गुप्तचर का कार्य भी करती थीं। स्त्रियाँ सम्राट की अंगरक्षिका का कार्य भी करती थी। अर्थशास्त्र में ऐसी स्त्रियों के लिए असूर्यपश्या, अवरोधन तथा अंतःपुर शब्दों का प्रयोग किया गया है। मौर्यकाल में स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त था।
धार्मिक स्थिति
धार्मिक दृष्टि से मौर्य काल में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस दौरान बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हुआ और उसे कई शासकों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। मौर्यकाल में वैदिक धर्म भी प्रचलित था। इस दौरान वैदिक धर्म में कर्मकांड काफी बढ़ गए थे। मौर्यकाल में यज्ञ इत्यादि कर्मकांड काफी प्रचलित थे।
मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म को स्वीकार किया था। जबकि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। उसके बाद अशोक ने दक्षिण एशिया व अन्य क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए काफी प्रयत्न किये। आरम्भ में अशोक वैदिक धर्म का अनुयायी थी, कई अभिलेखों में उसे देवानाम्प्रिय कह कर संबोधित किया गया है। बौद्ध धर्म का अनुयायी होने पर भी अशोक सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।
कला और स्थापत्य
मौर्यकाल में विभिन्न शासकों ने कई नगरों के साथ-साथ स्तूपों, गुफाओं तथा स्तंभों का निर्माण करवाया। इस दौरान अशोक ने स्थापत्य कला में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया, उसके द्वारा निर्मित किये गए कई प्रतीक व चिह्न वर्तमान में भारत के राष्ट्रीय प्रतीक हैं। सारनाथ के शीर्ष स्तम्भ पर चार सिंह पीठ सटाए बैठे हैं। यह चार सिंह एक चक्र धारण किये हुए हैं। चक्र में 24 तीलियाँ हैं। यह चक्र बुद्ध के धर्म चक्र-प्रवर्तन का प्रतीक है। अशोक के एकाश्म स्तंभों का सर्वोत्कृष्ट नमूना सारनाथ के सिंहस्तम्भ का शीर्ष है। रामपुरवा में नटूवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा है। संकिशा स्तम्भ के शीर्ष पर हाथी की आकृति है। रामपुरवा के स्तम्भ शीर्ष को राष्ट्रपति भवन में रखा गया है।
मौर्यकाल में स्तूप की वस्तुकला भी काफी विकसित हुई। सम्राट अशोक ने काफी संख्या में स्तूपों कानिर्माण करवाया। इस दौरान निर्मित किये गए प्रमुख स्तूप इस प्रकार से हैं – साँची का महास्तूप, सारनाथ का धर्मराजिका स्तूप, भरहुत और तक्षशिला स्तूप इत्यादि। मौर्यकाल में चट्टानों को काटकर कई गुफाओं का निर्माण करवाया गया, इसमें सुदामा की गुफा, कर्णचौपड़ की गुफा और विश्व झोंपड़ी प्रमुख हैं।
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