Wednesday, 5 February 2020

आत्महत्याओं का विज्ञान और उन्हें रोकने की कोशिशें-

आत्महत्याओं का विज्ञान और उन्हें रोकने की कोशिशें-

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘एक्सीडेंटल डेथ ऐंड सुसाइड रिपोर्ट’ बता रही है कि 2018 में 10,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की, जो पिछले 10 साल में सबसे अधिक है। पिछले एक दशक का यह आंकड़ा 75,000 से भी ज्यादा है, लेकिन चिंता की लकीरें कहीं नहीं दिख रहीं। आत्महत्या को सनसनी बनाकर प्रस्तुत जरूर किया जाता है, लेकिन इस पर न कोई गंभीरता से विचार कर रहा है, न ही इस पर किसी तरह के शोध हो रहे हैं, जिससे इस समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सके।
अमूमन माना जाता है कि बच्चे बहुत गहरे दवाब में हैं। सफलता के मानक इतने ऊंचे हो चुके हैं कि तमाम कोशिशों के बाद भी वे उसे छू नहीं पाते। नतीजतन गहरी हताशा और आत्मग्लानि, स्वयं को समाज और परिवार में अवांछित समझने की सोच और अंतत: जीवन की समाप्ति। यह सिलसिला कैसे रुके, इस पर अगर सोचा नहीं गया, तो आत्महत्या की यह दर आने वाले समय में घातक स्तर पर पहुंच सकती है,
क्योंकि पिछले पांच साल में देश में छात्र आत्महत्याओं में 52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एबनॉर्मल साइकोलॉजी-करेंट पस्र्पेक्टिव में रिचर्ड बूटनिंग और जॉन रोस ने आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद को माना है। वे कहते हैं कि ‘इस स्थिति में आत्महत्या के विचार से शायद ही कोई बच पाता हो।’ मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने परीक्षणों के दौरान पाया कि जिन लोगों ने खुदकुशी के प्रयास किए, उनके मस्तिष्क में एक खास प्रकार का रसायन ग्लूमेट पाया जाता है। ग्लूमेट एक प्रकार का एमीनो एसिड है, जो तंत्रिका और कोशिकाओं के बीच संदेश भेजने का काम करता है। इसे अवसाद के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। जर्मन न्यूरोसाइकोफार्मेकोलॉजी के ताजा अंक में प्रकाशित शोध के मुताबिक, इस खोज से भविष्य में आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने में मदद मिलेगी। हमें यह समझना होगा कि यह समस्या महज मानसिक स्वास्थ्य से नहीं जुड़ी, बल्कि इसके सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे पहलू भी हैं। इन सभी पक्षों को केंद्र में रखकर ही इस समस्या के निवारण के रास्तों को खोजा जा सकता है। अवसाद एकाएक नहीं पैदा होता और न ही इसे एकदम से खत्म किया जा सकता है।
जापान में ‘अकीता’ प्रांत वह जगह है, जहां सबसे अधिक आत्महत्या के मामले दर्ज किए जाते हैं। साल 1889 में पहली बार अकीता के गवर्नर ने ‘आत्महत्या’ पर रोक के लिए बजट आवंटन किया। वहां ‘बी फेंडर्स वल्र्डवाइड टोक्यो’ नाम की हॉटलाइन रात आठ बजे से सुबह साढे़ पांच बजे तक शुरू की गई। इसके चलते आत्महत्या के आंकड़ों में गिरावट दर्ज की गई, जिसका स्पष्ट और प्रत्यक्ष कारण था निरंतर अकेलेपन और दवाब में सहानुभूति और प्रेम की उपस्थिति। इसमें पीड़ित की बातों को न केवल सुना गया, बल्कि उसको जीवन के प्रति सकारात्मक और ऊर्जावान बनाए रखने के लिए प्रेरित भी किया गया। इस सफलता के चलते साल 2007 में जापान आत्महत्या रोकने के लिए नीतियां लेकर आया। वहां एक दशक से भी ज्यादा समय के लगातार प्रयासों से आत्महत्या की दर गिरकर प्रति एक लाख में 16़ 3 हो गई। साल 2027 तक सरकार इसे 13 तक ले आना चाहती है।
कई और देश आत्महत्या रोकने के लिए प्रयत्नशील हैं। फिनलैंड ने तो एक राष्ट्रीय नेटवर्क द्वारा लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने का प्रयास किया है। इसके बाद साल 1990 से 2014 के बीच इस देश में आत्महत्या की दर प्रति एक लाख पर 30.3 से गिरकर 14.6 पर आ गई। वहीं स्कॉटलैंड में वर्ष 2000 में यहां प्रति एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर 31़ 2 थी। इससे निपटने के लिए सरकार ने 2002 में ‘चूज लाइफ’ नामक एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की, नतीजा वर्ष 2016 तक आत्महत्या की दर में 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और कनाडा ने भी इसके लिए विशेष प्रयास किए हैं। लेकिन भारत आज भी इस दिशा में निराशाजनक स्थिति में है। देश मानसिक स्वास्थ्य पर अपने स्वास्थ्य बजट का 0.6 प्रतिशत खर्च कर रहा है, जो बांग्लादेश से भी कम है। ऐसे में, आत्महत्याओं को रोकने के विशेष प्रयासों की उम्मीद बहुत कम है। हालांकि दुनिया भर के अनुभव यही बताते हैं कि आत्महत्याओं को सरकारी प्रयासों से कम किया जा सकता है।

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