Saturday, 1 February 2020

ओंकार प्रसाद नैय्यर जी

#ओंकार_प्रसाद_नैय्यर_जी
ओंकार प्रसाद नैय्यर इस मायने में ऐसे चोटी के संगीतकार ठहरते हैं जिनके यहाँ संगीत पूरी तरह पंजाब की लोक-लय पर आधारित होकर सामने आता था, साथ ही शास्त्रीय रागों के पारम्परिक स्वरूप से परे हटकर उससे कुछ टुकड़े अनायास उधार लेकर प्रयोगधर्मी ढंग से आकार लेता हुआ दिखाई पड़ता था।

यह नैय्यर की ऐसी विशेषता रही जिससे उन्होंने किसी लोक-धुन की ज़मीन को अपने गीत की तर्ज़ बनाते हुए उसमें अनजाने ही किसी राग के कुछ कोमल या शुद्ध कण डाल दिए, जिससे उसकी सौन्दर्य माधुरी भी एकदम से संवर गई।

उनकी कम्पोज़ की हुई अधिकांश धुनों में शास्त्रीयता और लोकधर्मिता की आपसी आवाजाही को देखा जा सकता है।

नैय्यर की प्रतिभा से सजाई हुई उन उल्लेखनीय फ़िल्मों का नामोल्लेख भी आवश्यक लगता है जिसने एक बिल्कुल अलग क़िस्म का संगीतमय दौर सृजित किया।

ओंकार प्रसाद नैय्यर हिन्दी फ़िल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार थे। अपने सुरों के जादू से आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी जैसे कई पार्श्वगायक और पार्श्वगायिकाओं को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाने वाले महान् संगीतकार ओ. पी. नैय्यर के संगीतबद्ध गीत आज भी लोकप्रिय है।

16 जनवरी 1926 को लाहौर (पाकिस्तान) के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे ओंकार प्रसाद नैय्यर उर्फ ओ.पी. नैय्यर का रुझान बचपन से ही संगीत की ओर था। वह पार्श्वगायक बनना चाहते थे। भारत विभाजन के पश्चात् उनका पूरा परिवार लाहौर छोड़कर अमृतसर चला आया। ओंकार प्रसाद ने संगीत की सेवा करने के लिए अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी। अपने संगीत के सफ़र की शुरूआत इन्होंने आल इंडिया रेडियो से की।

#फ़िल्मी_सफर

बतौर संगीतकार फ़िल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाने के लिये ओ. पी. नैय्यर वर्ष 1949 में मुंबई आ गये। मुंबई मे उनकी मुलाकात जाने माने निर्माता निर्देशक कृष्ण केवल से हुई जो उन दिनों फ़िल्म 'कनीज़' का निर्माण कर रहे थे। कृष्ण केवल उनके संगीत बनाने के अंदाज से काफ़ी प्रभावित हुये और उन्होंने फ़िल्म के बैक ग्राउंड संगीत देने की पेशकश की। इस फ़िल्म के असफल होने से ओ. पी. नैय्यर बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने मे भले ही सफल न हो सके लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री मे उनका कैरियर अवश्य ही शुरू हो गया।

#पहला_गीत

वर्ष 1951 में अपने एक मित्र के कहने पर वह मुंबई से दिल्ली चले गये और बाद में उसी मित्र के कहने पर उन्होंने निर्माता पंचोली से मुलाकात की जो उन दिनों फ़िल्म नगीना का निर्माण कर रहे थे। बतौर संगीतकार उन्होंने फ़िल्म 'आसमान' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस फ़िल्म के लिये उन्होंने सी. एच. आत्मा की आवाज में अपना पहला गाना रिकार्ड करवाया। गाने के बोल कुछ इस प्रकार थे 'इस बेवफा जहां में वफा ढूंढते हैं' । इस बीच उनकी छमा छम छम और बाज जैसी फ़िल्में भी प्रदर्शित हुई लेकिन इन फ़िल्मों के असफल होने से उन्हें गहरा सदमा पहुंचा और उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री छोड़ वापस अमृतसर जाने का निर्णय कर लिया।

#गुरुदत्त_से_मुलाकात

वर्ष 1953 पार्श्वगायिका गीता दत्त ने ओ.पी. नैय्यर को गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी। वर्ष 1954 में गुरुदत्त ने अपनी निर्माण संस्था शुरू की और अपनी फ़िल्म आरपार के संगीत निर्देशन की जिम्मेदारी ओ. पी. नैय्यर को सौंप दी। फ़िल्म आरपार के ओ .पी.नैय्यर के निर्देशन में संगीतबद्ध गीत सुपरहिट हुए और इस सफलता के बाद ओ. पी. नैय्यर अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये। उन्होंने वापस अपने घर जाने का इरादा छोड दिया। इसके बाद गुरुदत्त की ही फ़िल्म 'मिस्टर एंड मिसेज 55' के लिये भी ओ.पी. नैय्यर ने संगीत दिया। फ़िल्म में उनके संगीत निर्देशन में बने गाने 'जाने कहां मेरा जिगर गया जी' और 'ठंडी हवा काली घटा' काफ़ी लोकप्रिय हुए।

#सबसे_महंगे_संगीतकार

आर−पार, सी. आई. डी., तुमसा नहीं देखा आदि एक के बाद एक लगातार हिट फ़िल्में देते हुए ये सिने जगत् में सबसे महंगे संगीतकार बने। 1950 में एक फ़िल्म में संगीत देने के 1 लाख रुपये लेने वाले पहले संगीतकार थे। “नया दौर” इनकी सबसे लोकप्रिय फ़िल्म रही। इस फ़िल्म के लिए उन्हें 1957 में फ़िल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला। सिर्फ़ कुछ ही फ़िल्मों में अपनी कला का लोहा मनवा देने वाले ये संगीतकार ज़िद्दी और एकांतप्रिय स्वभाव के कारण भी चर्चा में रहे। कुछ लोग इन्हें घमंडी, दबंग और निरंकुश स्वभाव के भी कहते थे, हालाँकि नये एवं जूझते हुए गायकों के साथ ये बहुत उदार रहे। पत्रकार हमेशा से ही इनके ख़िलाफ़ रहे और इनको हमेशा ही बागी संगीतकार के रूप में पेश किया गया। पचास के दशक के दौरान आल इंडिया रेडियो ने इनके संगीत को आधुनिक कहते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया और इनके गाने रेडियो पर काफ़ी लंबे समय तक नहीं बजाए गये। इस बात से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि वे अपनी धुन बनाते रहे और वे सभी देश में बड़ी हिट रही। उस समय सिर्फ़ श्रीलंका के रेडियो पर ही इनके नये गाने सुने जा सकते थे। बहुत जल्दी ही अंग्रेज़ी अख़बारों में इनकी तारीफ के चर्चे शुरू हो गये और इन्हें हिन्दी संगीत में उस्ताद कहा जाने लगा, तब ये बहुत जवान थे।

#पसंदीदा_गायक-गायिका

गीता दत्त, आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी के साथ इन्होंने सबसे ज़्यादा काम किया। मोहम्मद रफ़ी से अलग होने के बाद ओपी महेंद्र कपूर के साथ काम करने लगे। महेंद्र कपूर जी ओपी के लिए दिल से गाते थे। उनकी आवाज़ और एहसास की गहराई ने ओपी के गानों में भावनाओं को उभारा और लोगों के दिलों तक ओपी के विचारों की गहराई पहुँचाई। आशा भोंसले के साथ ओपी ने लगभग सत्तर फ़िल्मों में काम किया। सिने जगत् के लोगों ने आशा भोंसले को उनकी ही खोज बताया। ऐसा लगता था कि नैय्यर साहब आशा जी के लिए विशेष धुन बनाते हों, जिन्हें आशा बिना किसी मेहनत के गा लेती। ओपी ने लता मंगेशकर जैसी सुर सम्राज्ञी के साथ कभी काम नहीं किया। ये सिने जगत् में हमेशा ही चर्चा का विषय रहा। ओपी कहते थे कि उनके गाने लता की आवाज़ से मेल नहीं खाते। वे ज़्यादातर पंजाबी धुन के साथ मस्ती भरे गाने बनाते थे। लेकिन मुकेश के द्वारा गाया हुआ बहुत गंभीर गाना ‘चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला’ ओ. पी नैय्यर की चहुँमुखी प्रतिभा को दर्शाता है।

#प्रसिद्ध_फ़िल्में

ओ. पी. नैय्यर द्वारा संगीतबद्ध कुछ प्रसिद्ध गीत
बाबूजी धीरे चलना प्यार में ज़रा संभलना
ये लो मैं हारी पिया
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना
लेके पहला पहला प्यार
ये देश है वीर जवानों का
उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी
रेशमी सलवार कुर्ता जाली का
इक परदेसी मेरा दिल ले गया
मेरा नाम चिन चिन चू
दीवाना हुआ बादल
इशारों इशारों में दिल लेने वाले
ये चांद-सा रोशन चेहरा
चल अकेला
ये है रेशमी ज़ुल्फ़ों का अंधेरा ना घबराइये
आपके हसीन रूख़ पे आज नया नूर है
मेरा बाबू छैल छबीला
दमादम मस्त कलंदर
आर-पार
नया दौर
तुमसा नहीं देखा
कश्मीर की कली
मेरे सनम
एक मुसाफिर एक हसीना
फिर वो ही दिल लाया हूँ
सी. आई. डी
सावन की घटा
रागिनी
किस्मत
फागुन
हावड़ा ब्रिज
प्राण जाए पर वचन ना जाए
बहारें फिर भी आयेंगी
संबंध
सोने की चिड़िया
कहीं दिन कहीं रात
ये रात फिर ना आयेगी
मि. & मिसेज 55
नया अन्दाज़

#लोकप्रियता

कितनी अजीब बात है कि आल इंडिया रेडियो ने उनके कुछ गीत ब्रोडकास्ट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था यह कहकर कि इनके बोल और धुन युवा पीढी को पथभ्रमित करने वाले हैं। बाद में रेडियो सीलोन पर उनके गीतों को सुनने की बढती चाहत से हार कर ख़ुद मंत्री महोदय को इस अंकुशता को हटाने के लिए आगे आना पड़ा। मात्र 30 साल की उम्र में उन्हें “रिदम किंग” की उपाधि मिल गई थी। उन्होंने संगीतकार के दर्जे को हमेशा ऊँचा माना और एक लाख रुपये पाने वाले पहले संगीत निर्देशक बने। 1957 में आई "नया दौर" संगीत के आयाम से देखें तो उनके सफर का "मील का पत्थर" थी। शम्मी कपूर के आने के बाद तो ओ पी नैय्यर के साथ साथ हिन्दी फ़िल्म संगीत भी जैसे फिर से जवान हो उठा। मधुबाला ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वो अपना पारिश्रमिक उन निर्माताओं के लिए कम कर देंगीं जो ओ पी को संगीतकार लेंगें। मधुबाला की 6 फ़िल्मों के लिए ओ पी ने संगीत दिया। वो उन दिनों के सबसे मंहगे संगीतकार होने के बावजूद उनकी मांग सबसे अधिक थी। फ़िल्म के शो रील में उनका नाम अभिनेताओं के नाम से पहले आता था। ऐसा पहले किसी और संगीतकार के लिए नहीं हुआ था, ओ पी ने ट्रेंड शुरू किया जिसे बाद में बहुत से सफल संगीतकारों ने अपनाया।

#रोचक_तथ्य

कहते हैं कि प्रतिभा के अपने साइड इफेक्ट होते हैं। ओपी नैय्यर ने केवल एक ही फ़िल्म में गीतकार प्रदीप से गीत लिखवाए। ये थी एस. मुखर्जी प्रोडक्शन की 1969 में आई फ़िल्म ‘संबंध’। नैय्यर साहब को प्रदीप की शक्ल पसंद नहीं थी। इसलिए वो सिटिंग में प्रदीप को नहीं बुलाते थे। कवि प्रदीप एकदम सरल हृदय सज्जन व्यक्ति। नैय्यर एकदम मुंहफट अक्खड़। ‘संबंध’ के गाने प्रदीप किसी हरकारे के हाथों भिजवा दिया करते थे और उनकी धुन बना ली जाती थीं।

इसी तरह गीतकार अनजान से नैय्यर ने फ़िल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ के गीत लिखवाए थे। अनजान के बेटे समीर ने ख़ुद बताया कि नैय्यर साहब ने अनजान से निवेदन किया था कि अनजान नैय्यर के पास न आया करें। अनजान ने कारण पूछा। नैय्यर ने कहा- ‘यार, तुम बहुत शरीफ़ आदमी हो और मैं गालियां-शालियां देकर बात करता हूं। मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘शरारत’ और ‘रागिनी’- ये दो ऐसी फ़िल्में थीं, जिसमें किशोर कुमार के लिए मोहम्मद रफ़ी ने गाया था। 1958 में आई फ़िल्म ‘रागिनी’ के निर्माता स्वयं अशोक कुमार थे। और किशोर के साथ वह भी इस फ़िल्म में अभिनय कर रहे थे। इस फ़िल्म का गाना ‘मन मोरा बावरा’ शास्त्रीय-संगीत पर आधारित था। इसलिए नैय्यर ने तय किया कि ये गाना वह रफ़ी से गवाएंगे। किशोर कुमार को मंज़ूर नहीं था कि पर्दे पर वह रफ़ी की आवाज़ लें। वह बड़े भैया के पास गए। पर दादामुनि ने दख़लअंदाज़ी से साफ़ इंकार कर दिया।

#अंतिम_समय

एक साल ऐसा भी आया जब ओ पी की एक भी फ़िल्म नहीं आई। वर्ष 1961 को याद कर ओ पी कहते थे -"मोहब्बत में सारा जहाँ लुट गया था.."। दरअसल ओ पी अपनी सबसे पसंदीदा पार्श्व गायिका (आशा भोंसले) के साथ अपने संबंधों की बात कर रहे थे। 1962 में उन्होंने शानदार वापसी की फ़िल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना" से। इसी दशक में उन्होंने "फ़िर वही दिल लाया हूँ" (1963), कश्मीर की कली (1964), और 'मेरे सनम' (1965) जैसी फ़िल्मों के संगीत से शीर्ष पर स्थान बरकरार रखा। एक बार वो शर्मिला टैगोर पर फ़िल्माए अपने किसी गीत पर उनके अभिनय से खुश नहीं थे, उन्होंने बढ़ कर शर्मिला को सलाह दे डाली कि मेरे गीतों में आप बस खड़े रहकर लब नहीं हिला सकते ये गाने हरकतों के हैं, आपको अपने शरीर के हाव भावों का भी इस्तेमाल करना पड़ेगा। शर्मिला ने उनकी इस सलाह को गांठ बाँध ली और अपनी हर फ़िल्म में इस बात का ख़ास ध्यान रखा। दशक खत्म होते होते अच्छे संगीत के बावजूद उनकी फ़िल्में फ्लॉप होने लगी। रफी साहब से भी उनके सम्बन्ध बिगड़ चुके थे। गुरु दत्त की मौत के बाद गीता ने ख़ुद को शराब में डुबो दिया था और 1972 में उनकी भी दुखद मौत हो गई, उधर आशा के साथ ओ पी के सम्बन्ध एक नाज़ुक दौर से गुजर रहा था। ये उनके लिए बेहद मुश्किल समय था। फ़िल्म "प्राण जाए पर वचन न जाए" में आशा भोंसले ने उनके लिए गाया "चैन से हमको कभी....". अगस्त 1972 में आखिरकार ओ पी और आशा भोंसले ने कभी भी साथ न काम करने का फैसला किया और उसके बाद उन्हें कभी भी एक छत के नीचे एक साथ नहीं देखा गया। 28 जनवरी 2007 को भारतीय हिन्दी सिनेमा संगीतकार ओ पी नैय्यर खो दिया।
#OPNaiyar

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