1757 से 1858 के बीच हुए जन आंदोलन का इतिहास
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1857 की महान क्रांति से पूर्व हुए जन आंदोलनों को राजनीतिक – धार्मिक आंदोलन, अपदस्थ शासकों के आश्रितों का आंदोलन तथा अपदस्थ शासकों और जमींदारों के आंदोलन के रूप में विभाजित किया जा सकता है।
राजनीतिक – धार्मिक आंदोलन के अंतर्गत फकीर विद्रोह, संन्यासी विद्रोह, वहाबी आंदोलन तथा कूका विद्रोह महत्त्वपूर्ण हैं।
फकीर विद्रोह-
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बंगाल में 1776-77 में यह आंदोलन शुरू हुआ। यह घुमक्कङ मुसलमान धार्मिक फकीरों का गुट था जिसके नेता मंजनूमसाह ने 76-77 में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करते हुए जमींदारों और किसानों से धन की वसूली की।
मंजनूशाह की मृत्यु के बाद चिरागअली शाह ने आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। भवानी पाठक और देवी-चौधरानी जैसे हिन्दू नेताओं ने इस आंदोलन की सहायता की।
संन्यासी विद्रोह(1770-80)-
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यह विद्रोह बंगाल में हुआ था। 1770 में बंगाल में पङे भीषण अकाल ने इस प्रांत को अराजकता और कष्टों से ग्रस्त कर दिया, दूसरी ओर तीर्थ स्थलों की यात्रा पर लगे प्रतिबंध ने संन्यासियों को इतना क्षुब्ध कर दिया कि वे विद्रोह पर उतर आये।
इन संन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे जो हिन्दू नागा और गिरि सशस्त्र थे। इन संन्यासियों ने जनता के साथ मिलकर अंग्रेज कोठियों पर धावा बोला और खजाने को लूटा।
वारेन हेस्टिंग्स ने लंबे सैन्य अभियान के बाद इस विद्रोह को कुचलने में सफलता पायी।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ में संन्यासी विद्रोह का उल्लेख मिलता है।
पागलपंथी-
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यह एक धार्मिक संप्रदाय था, जो भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में सक्रिय था जो सत्य,समानता और भाईचारे के सिद्धांतों पर आधारित था।
1813 में पागलपंथी संप्रदाय के नेता टीपू ने जमींदारों के विरुद्ध काश्तकारों के समर्थन में विद्रोह कर जमींदारों के ठिकानों पर आक्रमण कर दिया।
विद्रोह के समय टीपू इतना शक्तिशाली हुआ कि उसने एक न्यायाधीश,मजिस्ट्रेट और जिलाधिकारी की नियुक्ति की। 1833 में विद्रोह को कुचल दिया गया।
वहाबी आंदोलन(1820-70)-
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यह मूलतः सुधारवादी आंदोलन था जो उत्तर पश्चिम, पूर्वी तथा मध्य भारत में सक्रिय था। वहाबी आंदोलन मुस्लिम समाज को भ्रष्ट धार्मिक तौर तरीकों से मुक्त करने के लक्ष्य पर कार्य करता था।
वहाबी आंदोलन के संस्थापक अब्दुल वहाब थे। भारत में इस आंदोलन को सैय्यद अहमद रायबरेलवी(1703-87)के कारण लोकप्रियता मिली।
सैय्यद अहमद पंजाब में सिक्खों को और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ कर मुस्लिम शक्ति की पुनर्स्थापना करना चाहते थे। इन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रशिक्षित कर खुद भी सैनिक वेशभूषा धारण की।
सैय्यद अहमद ने पेशावर पर 1830 में कुछ समय के लिए अधिकार कर अपने नाम के सिक्के चलाये, लेकिन शीघ्र ही 1831 में इनकी मृत्यु हो गई।
सैय्यद अहमद की मृत्यु के बाद पटना वहाबी आंदोलन का मुख्य केन्द्र बन गया। इस आंदोलन के अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं में विलायत अली, इनायत अली, मौलवी कासिम,अब्दुल्ला आदि शामिल थे।
वहाबी आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि यह 1857 के विद्रोह की तुलना में कहीं अधिक नियोजित, संगठित और सुगठित था।
वहाबी आंदोलन का चरित्र साम्प्रदायिक अवश्य था। लेकिन इन्होंने हिन्दुओं का कभी विरोध नहीं किया। इनका आंदोलन भारत को अंग्रेजी प्रशासन से मुक्त कराने और मुस्लिम राज्य की स्थापना के लक्ष्य से प्रेरित था।
कूका आंदोलन(1860-70)-
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यह आंदोलन भी प्रारंभ में धार्मिक आंदोलन के रूप में शुरु हुआ, लेकिन शीघ्र ही यह राजनीतिक आंदोलन में बदल गया।
पश्चिमी पंजाब में कूका आंदोलन की शुरुआत भगत जवाहरमल के नेतृत्व में हुई। सियान साहब के नाम से चर्चित जवाहरमल ने कूका आंदोलन की शुरुआत सिख पंथ में व्याप्त अंधविश्वास और बुराईयों को दूर करने के लिये की।
जवाहरमल के शिष्य बालक सिंह ने अपने अनुयायियों के साथ अपना मुख्यालय उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में स्थित हजारी नामक स्थान को बनाया।
कूका आंदोलन कालांतर में पंजाब से अंग्रेजों का प्रभुत्व समाप्त कर सिख प्रभुसत्ता की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। इस आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने 1863-72 में जोरदार अभियान चलाया।
कूका आंदोलन के नेता रामसिंह कूका को सरकार ने रंगून निर्वासित कर दिया जहाँ उनकी 1885 में मृत्यु हो गई।
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