नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की राफेल खरीद सौदे से जुड़ी बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट आखिर राज्य सभा में पेश कर दी गई। इसमें कहा गया है कि एनडीए शासन में किया गया राफेल सौदा यूपीए सरकार के कार्यकाल में प्रस्तावित सौदे के मुकाबले 2.86 फीसदी सस्ता पड़ा।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक(सीएजी) की राफेल खरीद सौदे से जुड़ी बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट आखिर राज्य सभा में पेश कर दी गई। इसमें कहा गया है कि एनडीए शासन में किया गया राफेल सौदा यूपीए सरकार के कार्यकाल में प्रस्तावित सौदे के मुकाबले 2.86 फीसदी सस्ता पड़ा। सरकार इसे अपने लिए क्लीन चिट बता रही है, लेकिन किसी और के लिए उसके इस दावे को स्वीकारना इसे नकारने जितना ही मुश्किल है। याद रहे, बुधवार को राज्यसभा में पेश की गई यह रिपोर्ट वही है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ‘संसद की लोकलेखा समिति में प्रस्तुत और स्वीकृत’ बता दिया गया था।
कोई अगर सिर्फ वह फैसला पढ़कर बैठा हो तो उसका इस राय पर पहुंचना स्वाभाविक है कि इस पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सहमति भी बन चुकी होगी। मगर असलियत में यह रिपोर्ट उस फैसले के महीनों बाद आई है और मौजूदा सरकार के अंतिम संसदीय सत्र के आखिरी दिन विपक्ष इस पर हंगामा ही करता रहा। सरकार ने अपनी दी हुई गलत जानकारी की वजह से इस फैसले में आई बुनियादी गड़बड़ी को टाइपिंग की मामूली गलती बता रखा है, जिसे ठीक करने का उसका अनुरोध सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। खुद सुप्रीम कोर्ट इस बारे में क्या सोचता है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। सीएजी की यह रिपोर्ट कुछ मायनों में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले जैसी ही जान पड़ती है। संख्याओं की जगह इसमें अक्षर लिखे नजर आ रहे हैं, क्योंकि ‘नो डिस्क्लोजर क्लॉज’ के चलते इसमें न तो राफेल की पुरानी कीमतों का उल्लेख किया जा सका है, न नई। ऐसे में अगर हम सीएजी के इस निष्कर्ष से सहमत भी हों कि एनडीए सरकार द्वारा किया गया राफेल सौदा सस्ता पड़ा है, तो अपनी बुद्धि से इस नतीजे तक पहुंचने का कोई तरीका हमारे पास नहीं है।
जाहिर है, सरकार ने यह स्टैंड ले रखा है कि राफेल विमानों की कीमत सार्वजनिक नहीं की जाएगी, इसलिए न तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोगों को आश्वस्त कर पाया, न ही सीएजी की रिपोर्ट उन्हें संदेहमुक्त कर पाई। यह स्थिति चिंताजनक है। गोपनीयता के प्रावधान ने देश की कई प्रतिष्ठित संस्थाओं की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। सवाल सिर्फ न्यायपालिका और सीएजी का नहीं है। खुद सरकार के जो प्रमुख लोग आज इस सौदे का जोर-शोर से बचाव कर रहे हैं, शायद उन्हें भी नहीं पता कि जहाज कितने में खरीदे जाने थे और कितने में खरीदे गए। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति को हरगिज स्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय संसद को यह नीति बनानी चाहिए कि भारत अपने रक्षा सौदे उन देशों की उन्हीं कंपनियों से करेगा, जो इनके गैर-तकनीकी पहलुओं पर गोपनीयता की शर्त न लागू करती हों। खासकर अभी, जब देश के डिफेंस सेक्टर को शत प्रतिशत निजी और विदेशी निवेश के लिए खोला जा चुका है, गोपनीयता का यह घुप्प अंधेरा आगे चलकर भयानक भ्रष्टाचार की गुंजाइश बना सकता है।
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