Thursday 18 October 2018

नोट्स कैसे बनाएं?

नोट्स कैसे बनाएं????

By Arvind Chauhan
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सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के बारे में स्टूडेन्ट के मन में दो सबसे बड़े सवाल उमड़ते-घूमड़ते रहते हैं। इनमें से पहला सवाल होता है कि परीक्षा में हम उत्तर कैसे लिखें और दूसरा सवाल यह कि नोट्स कैसे बनायें?
दरअसल, सिविल सेवा परीक्षा में प्रतियोगिता जितनी ज्यादा बढ़ती जा रही है, स्वाभाविक है कि स्टूडेन्ट के मन में उसी अनुपात में तनाव भी बढ़ता जा रहा है। इस तनाव के निजात के रूप में वे उत्तर लिखने की शैली और साथ ही उत्तर लिखने के लिए बेहतर से बेहतर सामग्री की खोज कर रहे हैं। यदि प्रतियोगिता कठिन है, तो उसके लिए रास्ते भी अधिक से अधिक ठोस, मजबूत और सुनिश्चितता लिए हुए होने चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके लिए जरूरी है कि स्टूडेन्टस् अच्छी सामग्री पढ़ें और फिर उस पढ़ी हुई सामग्री को जितना संभव हो सके, बेहतरीन तरीके से परीक्षक के सामने प्रस्तुत करें।यही कारण है कि आज बाजार में धड़ल्ले से नोटस् बिक रहे हैं।
अधिकांश स्टूडेन्ट इन नोटस् को खरीदते भी हैं। गौर करने की बात है कि ये नोटस् उन स्टूडेन्टस् के होते हैं, जिन्हें सिविल सेवा परीक्षा में सफलता मिल चुकी है।

उनकी यह सफलता उनके नोटस्  के लिए विश्वनीयता का काम करती है और खरीदने वाले विद्यार्थी को लगता है कि उस सफल विद्यार्थी के नोटस् पढ़कर वह भी सफल हो जाएगा। इसलिए वह इन नोटस् की अच्छी-खासी कीमत देने में भी हिचक नहीं दिखाता; बावजूद इसके कि हाथ से लिखे होने के कारण उन्हें पढ़ना उतना आसान नहीं होता। बल्कि पढ़ना कठिन ही होता है। आखिर फोटो कॉपी से अक्षर कितने अच्छे उभर सकते हैं? लेकिन विश्वास इतनी बड़ी चीज है कि स्टूडेन्ट इनकी परवाह नहीं करता। उसे लगता है कि चूंकि ये नोटस् एक सफल स्टूडेन्ट ने बनाए हैं, इसलिए इससे बेहतर सामग्री और कहीं नहीं हो सकती। जाहिर है कि यहाँ उसका यह सोचना गलत भी नहीं है कि यदि अच्छा उत्तर लिखना है, तो वह अच्छी सामग्री पढ़ने से ही संभव हो सकता है। काफी कुछ सीमा तक आप सही हैं, लेकिन ध्यान रखिए कि पूरी तरह नहीं।
मित्रो, इससे पहले कि मैं आपको नोटस् बनाने के बारे में कुछ बताऊं, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं आपको यह समझाऊं कि नोटस् का मतलब होता क्या है। आपको बनाने चाहिए या नहीं बनाने चाहिए, बनायेंगे तो किस-किस के बनाएंगे और कैसे बनाएंगे, यदि नहीं बनाएंगे तो फिर उसका विकल्प क्या होगा, इन सबके बारे में निर्णय लेने का अधिकार आपको होना चाहिए और इसलिए यह मैं आप पर ही छोडूंगा। लेकिन मेरी कोशिश होगी कि मैं नोटस् बनाने के उस सम्पूर्ण परिदृश्य को आपके सामने विस्तार के साथ बहुत स्पष्ट रूप से रख दूं, जो निर्णय लेने में आपकी मदद कर सके।
नोटस् का अर्थ केवल यह नहीं है कि वह किसी भी व्यक्ति के द्वारा हाथ से लिखा हुआ हो। छपे हुए अक्षरों की हस्तलिपि नोटस् नहीं कहलाती। इससे तो बेहतर यही है कि हम किताब ही पढ़ें क्योंकि वह बहुत अच्छी तरह से बाइन्ड होती है, अपेक्षाकृत काफी साफ-सुथरी होती है। साथ ही उसमें अपनी ओर से लिखने की गुंजाइश भी होती है।

जब स्टूडेन्टस् नोटस् खरीदते हैं, तो इससे साफ लगता है कि उन्हें नोटस् की परिभाषा ही मालूम नहीं है। वस्तुतः नोटस् की व्यावहारिक परिभाषा होती है, ‘‘जो आपका है, अपना है और आपके द्वारा बनाया गया है।’’ सीधी सी बात है कि यदि वह किसी दूसरे के द्वारा तैयार किया गया है, तो है तो वह नोटस् ही, लेकिन वह नोटस् उसके नोटस् हैं, आपके नहीं। ठीक उसी तरह जैसे कि उसकी कमीज उसकी कमीज है और उसके जूते उसके जूते हैं। आपकी कमीज आपकी कमीज है, आपके जूते आपके जूते हैं। हाँ, उसका पेन आपका भी पेन हो सकता है। लेकिन आँखों पर लगाया जाने वाला पावर का चश्मा आपका चश्मा नहीं हो सकता। यह जो मूल अंतर है, वह ‘निज’ का अंतर है। यह निजता ही नोटस् की सबसे बड़ी शक्ति होती है। निजता इस मायने में कि यदि मैं नोटस् बना रहा हूं, तो उसे मैं अपनी जरूरत के हिसाब से बना रहा हूं। उसे मैं अपनी क्षमता के हिसाब से बना रहा हूं। आप जब बनायेंगेे, तो आप अपने अनुसार बनायेंगे। और वही आपके लिए ज्यादा उपयोगी भी होगी।लेकिन मैं जानता हूँ कि आप मेरी इस बात से सहमत नहीं हो पा रहे होंगे।

इसका कारण यह है कि जब आप स्कूल और कॉलेज में पढ़ रहे थे, तब टीचर और प्रोफेसर क्लास में आकर आपको नोटस् लिखाते थे। वे बोलते जाते थे और आप सब लिखते जाते थे। यानी कि वे बनाये तो एक व्यक्ति के द्वारा गये थे। लेकिन अपने हाथ से लिखकर उस एक व्यक्ति के नोटस् को आप सब अपने-अपने नोटस् में तब्दील कर लेते थे। चूंकि वे हाथ से लिखे होते थे, इसलिए नोटस् कहलाते थे। लेकिन यदि वही प्रोफेसर अपनी एक नोटस् की किताब छपवाकर आप सबको दे देते, तब वे नोटस् ही किताब कहलाने लगते। यानी कि यहाँ नोटस् और किताब में जो मूलभूत अंतर दिखाई दे रहा है, वह अंतर स्वरूप में निहित है, उसके सार में नहीं। यह नोटस् के बारे में बनी हुई सबसे गलत अवधारणा है।जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, नोटस् आपकी अपनी निर्मिति होती है। उसे आप बनाते हैं और अपनी जरूरत के हिसाब से बनाते हैं। यदि आप किसी दूसरे के नोटस् को अपने हाथ से उतार रहे हैं, तो उसे नोटस् मानने की भूल कतई न करें।

दरअसल, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि नोटस् का सही अर्थ हाथ से लिखे हुए अक्षरों में नहीं है, बल्कि नोटस् को बनाने की प्रक्रिया में है। यदि आप बनाने की उस प्रक्रिया में शामिल हैं, तब तो आपको उस नोटस् को नोटस् कहने का अधिकार है अन्यथा नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि नोटस् बनाने का काम एक कठिन काम है। इसमें काफी समय लगता है और बनाने वाले को भी काफी जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। और जद्दोजहद से गुजरने का यही दौर नोटस् को महत्वपूर्ण बनाता है, उसे कीमती बनाता है और उसे आपके लिए उपयोगी भी बनाता है।

यदि हम उस प्रक्रिया में शामिल ही नहीं हैं, तो कीमत चुका देने मात्र से वह हमारे लिए कीमती कभी नहीं हो सकता। तो आइये, अब मैं आपको प्रक्रिया के उन बिन्दुओं की ओर ले चलता हूँ, जो नोटस् बनाने के दौरान अलग-अलग पड़ाव के रूप में आपके सामने आते हैं और आप उन सबको पार करते हुए अन्ततः नोटस् तैयार करने की मंजिल तक पहुँच जाते हैं। नोटस् बनाने की यह यात्रा ही सही मायने में नोटस् बनाने का सच्चा लाभ है। यदि यह यात्रा नहीं है, तो सीधी सी बात है कि वह लाभ भी नहीं है। मुझे इस बात की कोई गलतफहमी नहीं है कि मैं आपको कोई बहुत नई और अनोखी बात बताने जा रहा हूँ। नोटस् बनाने का अनुभव आपके पास होगा ही, मैं यह मानकर चलता हूँ। और यदि मेरा यह मानना सही है, तो बात बहुत साफ है कि आप मेरे भावार्थ को बहुत अच्छी तरीके से समझ पायेंगे, बावजूद इसके कि आपको शायद इसमें नया कुछ न लगे।

फिर भी इस लेख को पढ़ने का आपका वक्त व्यर्थ इस मायने में नहीं जायेगा कि आप नोटस् बनाने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रक्रिया से परिचित हो सकेंगे। यदि इस प्रक्रिया में आपसे कुछ छूट रहा हो, तो आप उस ‘मीसिंग लिंक’ को जोड़कर अपने को पहले से बेहतर बना सकेंगे। इसलिए यदि इसमें आपको कोई चैंकाने वाले तथ्य न मिलें, तो आप इसे अन्यथा न लें।

1. वस्तुतः नोटस् की एक तथ्यात्मक परिभाषा यह भी है कि ‘‘कई स्थानों पर बिखरे हुए तथ्यों का एक स्थान पर संकलन।’’ जब हम किसी भी विषय पर कोई भी पुस्तक पढ़ते हैं, तो वह उस विषय के जानकार किसी एक व्यक्ति के द्वारा लिखी गई होती है। वह अपने ज्ञान की सीमाओं में पुस्तक लिखता है। लेकिन ऐसा नहीं होता कि वह पुस्तक अपने-आपमें सम्पूर्ण ही हो, फिर चाहे वह कितनी भी बेहतर किताब क्यों न हो। बहुत से ऐसे तथ्य होते हैं, जिन्हें लेखक जरूरी नहीं समझता। या फिर वह यह मानकर चलता है कि ये तथ्य पाठक को मालूम ही होंगे ।

इसलिए किसी भी किताब को हम सम्पूर्ण किताब नहीं मान सकते।यदि कोई विषय विश्लेषण वाला है और उसमें लेखक के दृष्टिकोण की बहुत अहमियत होती है, तब तो उस पुस्तक के एकांगी होने की सबसे ज्यादा संभावना रहती है। उदाहरण के तौर पर हम इतिहास पर रोमिला थापर, रामशरण शर्मा, विपिन चन्द्रा जैसे इतिहासकारों की किताबों को ले सकते हैं। एक विद्वान के रूप में किताब लिखना अलग बात है, जबकि एक विद्यार्थी के लिए एक किताब लिखना बिलकुल अलग बात है। विद्वता की दृष्टि से लिखी गई किताब पूरी तरह से उस विद्वान के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए यह कतई जरूरी नहीं कि वह किताब अपने विषय की सम्पूर्ण जानकारी दे रही हो।सच पूछिए तो नोटस् इसी कमी को पूरा करते हैं। नोटस् बनाने वाला विद्यार्थी एक ही विषय पर कुछ महत्वपूर्ण किताबें पढ़ता है।

पढ़ने के दौरान उनके महत्वपूर्ण हिस्सों को चिन्हित करता है और इसके बाद फिर फैसला करता है कि उसे किस किताब से क्या-क्या लेना है, कितना-कितना लेना है, और किस तरह से लेना है। फिर वह उन किताबों के उन तथ्यों को एक स्थान पर नोट कर लेता है, जिसे हम नोटस् कहते हैं। यानी कि अलग-अलग स्थानों की सामग्री को एक स्थान पर नोट कर लेना ही नोटस् बनाना होता है।यहाँ आपको नोटस् बनाने वाले विद्यार्थी के लिए दो फायदे बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे होंंगे।

पहला तो यह कि जिस टॉपिक पर उसने नोटस् बनाए हैं, उस टॉपिक पर उसने कई किताबों से पढ़ा है। दूसरा यह कि उसे उसने कई दृष्टिकोणों से देखा और समझा भी है। जाहिर है कि इससे उसकी उस टॉपिक पर बहुत अच्छी पकड़ बन गई है। यूं कह लीजिए कि वह उस टॉपिक का मास्टर बन गया है। इसमें उसने वक्त लगाया है और उस वक्त ने उसे एक प्रकार से उस टॉपिक का मास्टर बना दिया है।
2. सच तो यह है कि नोट्स बनाना केवल बिखरे हुए तथ्यों को एक जगह समेट देना भर नहीं होता है, बल्कि उससे बहुत कहीं आगे की बात भी होती है। अगर कोई सही में नोट्स बना रहा है, तो उसे यह मानकर चलना चाहिए कि बनाने के दौरान उसे एक जबर्दस्त वैचारिक उत्तेजना से गुजरना पड़ेगा। नोट्स बनाते समय हम केवल पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि पढ़ने के साथ-साथ उन पर विचार भी करते हैं। पहले तो हम अलग-अलग किताबों से पढ़ते हैं। पढ़ने के बाद उन पर विचार करते हैं कि इनमें से कौन सा तथ्य महत्वपूर्ण है, कौन सा तथ्य दूसरे में नहीं है। जो इसमें हैं, उन पर निशान लगाते हैं कि हमें यह सामग्री अपने नोटस् में ले जाना है।

मान लीजिए कि आप चार किताबों से पढ़ रहे हैं, तो चारों को पढ़ने के बाद आप मन ही मन उन चारों किताबों के बारे में एक साथ विचार करते हैं, ताकि वे घुल-मिलकर एक बन सकें और आपके दिमाग में एक स्ट्रक्चर, उसकी एक बुनावट तैयार हो सके। तब कहीं जाकर लिखने की शुरूआत की जाती है।

जब लिखने का दौर आता है, तब आपका मानसिक संकट और भी बढ़ जाता है। वे वैचारिक उत्तेजना के क्षण होते हैं और उस वैचारिक उत्तेजना मेंं ही हमें यह सोचना पड़ता है कि वह तथ्य किस किताब में है और यह तथ्य किस किताब में। वहाँ से ले-ले करके हम नोट्स बनाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि केवल पढ़ा ही नहीं जाता है, पढ़े हुए को केवल समेटा ही नहीं जाता है, बल्कि पढ़े हुए को मथा भी जाता है और मथने के बाद, जो अलग-अलग हंै, उन्हें एक जैसा बनाकर उतारा जाता है। सच पूछिए तो यह दौर बहुत दुखदायी होता है। यही कारण है कि ज्यादातर स्टूडेन्ट्स नोट्स बनाने से घबड़ाते हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें अगर बने बनाये नोट्स मिल जाएं, तो इससे बेहतर उनके लिए कुछ नहीं हो सकता। दुर्भाग्य से वे यह नहीं समझ पाते कि इससे कुछ भी बेहतर होने वाला नहीं है। हां, यह जरूर है कि जो तथ्यों का बिखराव था, वह आपको एक जगह पर सिमटा हुआ मिल जाएगा। लेकिन जो उससे वास्तविक फायदा होना चाहिए, वह फायदा आप नहीं उठा पायेंगे।

3. द्ध अलग-अलग किताबों से पढ़ने के बाद अब आपको लिखना होता है। जैसा कि मैं बता चूका हूँ, लिखने का यह दौर भी बहुत द्वन्द्वपूर्ण होता है। यह द्वन्द्व कई स्तरों पर होता है। कहाँ कौन-सी सामग्री है, इससे तो दिमाग को जूझना ही पड़ता है। साथ ही इस बात से भी जूझना पड़ता है कि उस सामग्री को यहाँ किस तरीके से लिखा जाये। इसके दो तरीके हो सकते हैं। या तो हम वहाँ की सामग्री को ज्यों का त्यों यहाँ टीप दें। यानी कि ज्यों का त्यों उतार दें। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि वहाँ की सामग्री को समझकर फिर हम अपनी भाषा में लिखें। सही नोट्स वे होंगे, जो हम अपनी भाषा में लिखेंगे। यदि हम अलग-अलग किताबों से ज्यों का त्यों उतारेंगे, तो भाषा की जो एकरूपता है, वह खत्म हो जाएगी। हर लेखक की अपनी-अपनी भाषा होती है और यदि भाषा की एकरूपता खत्म हो गई, तो सामग्री में जो लयात्मकता होनी चाहिए, वह बाधित हो जाएगी। फिर पढ़ने का मजा कम हो जाएगा। और अगर पढ़ने का मजा कम हो गया, उसकी लयात्मकता कम हो गई, तो मानकर चलें कि दिमाग की ग्रहण-शक्ति भी उसी के अनुकूल कम हो जाएगी।

इसलिए बहुत जरूरी होता है कि हम पढ़े गये तथ्यों को अपनी भाषा में लिखें। यह इसका अगला बहुत बड़ा लाभ है। इससे हमारे दिमाग को भाषा के स्तर पर सोचने का अभ्यास पड़ता है। उसे अवसर मिलता है कि वह अपनी भाषा विकसित कर सके और फिर अपने विचारों को कापी के पन्ने पर उतार भी सके। कुल मिलाकर यह कि मजबूरी में ही सही, यहां एक बहुत अच्छा काम हो जाता है। अन्यथा सच पूछिये तो जब हम किसी भी परीक्षा की तैेयारी कर रहे होते हैं, तो लिखने का मौका आता ही नहीं, सिवाय परीक्षा हॉल में लिखने के। नोट्स हमें वह अवसर उपलब्ध करा देता है।

4. पता नहीं आपको लगता है या नहीं, लेकिन मुझे यह जरूर लगता है कि यदि मैंने अपने हाथ से नोट्स बनाये हैं, तो मुझे अपने उन नोटस् से एक भावनात्मक लगाव हो जाएगा। उससे एक अलग ही किस्म का जुड़ाव हो जाएगा। चूंकि उसमें मेरा श्रम शामिल है, इसलिए मुझे उससे कुछ अतिरिक्त मोहब्बत हो जाएगी। और मैं यह मानता हूं कि जिससे हमारा जुड़ाव हो जाता है, वह हमारे अधिक निकट आ जाता है। आप ऐसा बिल्कुल भी मत समझियेगा कि किसी नोट्स के साथ ऐसा कैसे हो सकता है। पत्थर के साथ हो जाता है, मिट्टी के साथ हो जाता है, पेड़ के साथ हो जाता है। और ये मिट्टी, ये पत्थर, ये पेड़ वे हैं, जिनके लिए हमने कुछ नहीं किया है। केवल यही कि हम उनके साथ रह रहे हैं, बस। लेकिन नोट्स के साथ तो हम जूझे हैं। इसमें तो हमारी रचनात्मकता शामिल है। इसके लिए हमने वक्त दिया है। तो ऐसे के साथ जुड़ जाना तो एक बहुत ही स्वाभाविक बात है। फिर सीधी-सी बात है कि यदि आप किसी से जुड़ जाते हैं, तो वह आपको अपना लगने लगता है और जब अपना लगने लगता है, तो उसकी दुरूहता, उसकी कठिनता, उसकी जटिलताएं सब गायब हो जाती हैं। वह चीज हमारे लिए आसान हो जाती है। नोट्स के साथ यह बहुत बड़ी बात होती है।

5.  शायद आपका यह अनुभव रहा हो कि आपने किसी एक टॉपिक पर नोट्स तैयार किये थे। उसी टॉपिक पर परीक्षा में प्रश्न पूछ लिया गया है। अब, जबकि आप उस प्रश्न का उत्तर लिख रहे हैं, तो आप पायेंगे कि आपने जो नोट्स तैयार किये थे, उसके बिम्ब आपके दिमाग में उभरने लगे हैं। यहां तक कि जब आप अपने नोट्स के एक पूरे पृष्ठ को कापी में लिख चुके हैं, तो आपका दिमाग आपकी सुविधा के लिए धीरे से आपके नोट्स के पन्ने को पलट देता है और आप परीक्षा की कापी में उत्तर लिखना शुरू कर देते हैं। इससे उसी उत्तर को लिखने में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। चूंकि आपके दिमाग की गति को आपके नोट्स ने सहारा देकर तेज कर दिया है, आप बहुत तेजी के साथ लिखेंगे, बशर्ते कि नोट्स से प्रश्न पूछ लिया गया हो।

6. नोट्स बनाते समय जब हमें लिखना पड़ता है, तो यह हमारा केवल वैचारिक अभ्यास ही नहीं होता, बल्कि साथ ही साथ हैंडराइटिंग का भी अभ्यास हो जाता है। हैडराइटिंग का यह अभ्यास दोनों स्तरों पर होता है-अक्षर सुन्दर बनें इस स्तर पर तथा हमारे लिखने की स्पीड तेज हो सके, इस स्तर पर भी। और सिविल सेवा परीक्षा में इन दोनों की अपनी-अपनी अहमियत है। यह ठीक है कि सुन्दर अक्षर उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाते। लेकिन स्पीड़ की तो बहुत बड़ी भूमिका होती है। आपको 180 मिनट में कम से कम चार हजार शब्द लिखने होते हैं, और वे भी 20 प्रश्नों के उत्तर देने के रूप में। यदि यहां आपकी स्पीड कम है, तो मानकर चलिए कि कुछ न कुछ प्रश्न छूट जायेंगे और प्रश्नों का यह छूटना आपके लिए बहुत घातक हो सकता है।

7. अंतिम बात यह कि क्या अब आपको नहीं लगता कि जब आप नोटस् बना रहे होते हैं, तो बनाने की उसी प्रक्रिया के दौरान आप एक प्रकार से उस विषय की, विषय के उन टॉपिक्स की तैयारी भी कर रहे होते हैं? इस बारे में मेरा जो भी थोड़ा सा अनुभव रहा है, उसके आधार पर मुझे यह कहने में कोई सकोच नहीं है कि नोट्स बनाने का मतलब है उस टॉपिक पर तैयारी का पूरा हो जाना, न केवल पूरा ही हो जाना, बल्कि बहुत अच्छी तरह पूरा हो जाना। इस प्रकार मुझे नोट्स बनाना एक प्रकार से तैयारी करने की लिखित पद्धति भी मालूम पड़ती है।

नोट्स बनाएँ या नहीं?

मित्रो, इससे पहले मैंने ‘‘नोट्स का अर्थ’’ प्वाइंट के अंतर्गत इस बात की चर्चा नहीं की है कि इनके बनाने से क्या लाभ होते हैं। निश्चित रूप से मैंने इस बात की चिन्ता नहीं की है कि नुकसान क्या होते हैं। सच यह भी है कि भले ही हम उसका फायदा नहीं उठा पाएं, लेकिन कम से कम नुकसान तो नहीं ही होता है। हाँ, यह बात अलग है कि हम उतना फायदा ले पा रहे हैं या नहीं, जितना लिया जाना चाहिए।

साथ ही मैंने उसमें इस बात की भी चर्चा नहीं की है कि क्या उसका कोई विकल्प भी हो सकता है। विकल्पों के बारे में सोचना इसलिए भी जरूरी है कि नोट्स बनाना कोई आसान काम नहीं है। यदि सही में अच्छे नोट्स बनाने हों, तो वह काफी समय और श्रम की मांग करते हैं।
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धन्यबाद...............

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