Friday, 24 August 2018

समर्थन मूल्य पर डब्ल्यूटीओ की अड़चन (दैनिक ट्रिब्यून)

एक लोकप्रिय कहावत है : ‘जो खुद शीशे के घरों में रहते हैं, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते।’ लेकिन विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के लिए इस लोकोक्ति का मतलब नगण्य है। अनेक वर्षों से भारत पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह या तो कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली रियायतें कम करे या इन्हें तयशुदा एएमएस (एग्रीगेट मेज़र ऑफ स्पोर्ट) के अंदर सीमित करे। जहां एक ओर भारत पर काफी दबाव बनाया जा रहा है कि वह किसानों के लिए घोषित किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मात्रा कम करे वहीं दूसरी तरफ विश्व व्यापार के बड़े मगरमच्छ यानी अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और कनाडा इसके नियमों की लगातार और बिना किसी डर के धज्जियां उड़ा रहे हैं।
डब्ल्यूटीओ द्वारा तय किए नियम के मुताबिक भारत समेत अधिकांश विकासशील देश फसल के कुल उत्पाद मूल्य का 10 फीसदी से अधिक सब्सिडी के रूप में नहीं दे सकते। उदाहरण के लिए यदि हम देशभर में गेहूं उत्पादन का मूल्य 500 करोड़ रुपए आंकें तो उस मामले में किसान को सब्सिडी के रूप में न्यूनतम समर्थन मूल्य की सीमा 50 करोड़ से ज्यादा नहीं हो सकती (यहां यह बताना ठीक होगा कि पता नहीं किस आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को सब्सिडी के तौर पर गिना जाता है)। गेहूं और चावल की खरीद को जिंस-विशेष के वर्ग में रखा जाता है।
देविंदर शर्मा
अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटथाइजर ने हाल ही में घोषणा की थी कि वे भारत को विश्व व्यापार संगठन में घसीटने की सोच रहे हैं क्योंकि पेश किए गए आंकड़ों में गेहूं और चावल पर दी जाने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य की मात्रा अधिकृत 10 प्रतिशत से बहुत ज्यादा यानी 60 और 70 प्रतिशत क्रमशः बनती है। यह व्यापारिक झगड़ा तब और ज्यादा तूल पकड़ेगा जब भारत की हालिया उस कृषि नीति को लेकर विश्व व्यापार संगठन में सवाल उठाए जाएंगे, जिसमें 23 फसलों पर लागत मूल्य का डेढ़ गुणा बतौर न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को देना तय किया गया है।
विवाद के केंद्र में विश्व व्यापार संगठन द्वारा तयशुदा वह एएमएस आंकड़ा है जो 1986-88 में कृषि फसलों के वैश्विक मूल्यों को आधार कीमत बनाकर तय किया गया है और विकासशील देशों के लिए इसकी अधिकतम सीमा 10 फीसदी रखी गई है। तब से लेकर अब तक खेती की लागत में लगभग चार गुणा इजाफा हो चुका है, जिसकी वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि समय-समय पर की गई है। भारत के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का स्थान कृषि नीतियों में काफी महत्वपूर्ण है जो छोटे और हाशिए वाले कृषकों के लिए विशेष रूप से मददगार है। इसके नतीजे भारत के 60 करोड़ की आजीविका सुरक्षित बनाने के लिए बहुत मायने रखता है।
रोचक बात यह है कि जहां विकासशील देशों के लिए एएमएस की ऊपरी सीमा 10 प्रतिशत रखी गई है वहीं विकसित मुल्कों के लिए यह 5 फीसदी है। नीतिगत विषमता वाली पक्षपातपूर्ण यह व्यवस्था व्यापारिक भाषा में ‘एम्बर बॉक्स’ वर्ग में आती है।
विश्व व्यापार संगठन के सामने चीन और भारत द्वारा रखे गए संशोधित आंकड़ों में इन दो बड़े कृषि प्रधान देशों ने जोर देकर कहा है कि अमीर मुल्क 90 फीसदी से ज्यादा वैश्विक एएमएस छूट का मजा ले रहे हैं, जिसका कुल मिलाकर मूल्य 160 बिलियन डॉलर बनता है। यह सब्सिडियां उस 200 बिलियन डॉलर मूल्य वाली रियायतों के अतिरिक्त हैं जो उन्हें ‘ग्रीन बॉक्स’ के लिए उत्तीर्ण होने पर मिलती हैं। इसके अलावा इस वर्ग में आने के बाद उनसे किसी किस्म की जवाबतलबी नहीं की जाती।
बहरहाल विकसित देशों द्वारा अपने किसानों के लिए घोषित घरेलू समर्थन अधिसूचना के आधार पर यह एकदम साफ हो जाता है कि अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और कनाडा खुद भी किसानों को उच्च जिंस-विशेष न्यूनतम समर्थन मूल्य देते आए हैं। जो आंकड़े पेश किए गए हैं, उनसे यह खुलासा होता है कि जहां कुछ वस्तुओं/फसलों में विकसित देशों में हुए कुल उत्पाद मूल्य से ज्यादा की सब्सिडी दी जा रही थी वहीं बहुत से मामलों में तो यह आंकड़ा दुगने से भी अधिक था। उदाहरण के लिए चावल को लेते हैं, जहां भारत से इस बात को लेकर सवाल पूछे जा रहे हैं कि वह क्यों अपने किसानों को कुल उत्पादन मूल्य का 60 फीसदी सब्सिडी के रूप में दे रहा है वहीं खुद अमेरिका में यह मात्रा 82 फीसदी है और यूरोपियन यूनियन के किसानों के मामले में यह 66 फीसदी तक है। हां, कुछ सालों में उनके जिंस-विशेष न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल दूध और चीनी में ही 90 प्रतिशत सब्सिडी देने पर केंद्रित रहे थे। ऐसे ही यूरोपियन यूनियन में यह रियायत कुछ सालों में केवल दो जिंसों यानी मक्खन और गेहूं के मामले में 64 फीसदी से ज्यादा रही है।
अमेरिका में कुछ उत्पाद जिनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 50 फीसदी से ज्यादा रहा है, उनमें ऊन (215 फीसदी) चिकनी ऊन (141), चावल (82), कपास (74), चीनी (66), कनोला (61) और सूखे मटर (57) हैं। जिन 20 सालों का आंकड़ा इकट्ठा किया गया है, उसमें केवल 7 साल ही ऐसे थे, जिनमें 50 प्रतिशत से ज्यादा वाला जिंस-विशेष न्यूनतम समर्थन मूल्य केवल दूध तक सीमित रहा था।
यूरोपियन यूनियन के मामले में देखने में आया कि कुछ उत्पाद ऐसे हैं, जिन पर सब्सिडी कुल उत्पादक मूल्य की 50 प्रतिशत से अधिक रही थी। इसमें रेशमी वस्त्र (167), तंबाकू (155), सफेद चीनी (120), खीरा (86), प्रसंस्करण के लिए नाशपाती (82), ऑलिव ऑयल (76), मक्खन (71), सेब (68), मिल्क पाउडर (67) और प्रसंस्करण के लिए टमाटर (61) थे।
बात कनाडा की करें तो वहां दूध, भेड़ का मांस और मक्का को लगातार भारी न्यूनतम समर्थन का फायदा सब्सिडी के रूप में मिलता आया है। तंबाकू के मामले में तो यह कुल लागत मूल्य का तीन गुणा था।
क्या अब समय नहीं है कि अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और कनाडा पहले खुद 160 बिलियन डॉलर मूल्य की सब्सिडी अपने किसानों को देना बंद करें? भले ही यह देर से हुआ है लेकिन भारत और चीन का यह संयुक्त प्रस्ताव विश्व व्यापार नीतियों की उन त्रुटियों को हटाने में मदद करेगा, जिसके चलते विकसित देश विकासशील देशों की मंडियों को अपने सस्ते आयातित माल से पाटते आए हैं।

No comments: