Wednesday 22 August 2018

22 August 2018 आपदाएं और जल प्रबंधन

22 August 2018
आपदाएं और जल प्रबंधन

स्रोत: द्वारा भारत डोगरा: जनसत्ता

प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखा दोनों के मूल में एक ही कारण है  और वह है- उचित जल प्रबंधन का अभाव। जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़, तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में अगर जल संरक्षण पर जोर दिया जाए तो बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से काफी हद तक राहत मिल सकेगी। भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पीआर पिशरोटी ने बताया है कि यूरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में बहुत बड़ा अंतर है। यूरोप में वर्षा धीरे-धीरे पूरे साल होती रहती है। इसके ठीक विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के आठ हजार सात सौ साठ घंटों में से मात्र लगभग सौ घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र बीस घंटों में ही हो जाती है। स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण यूरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है।

भारत की वर्षा की तुलना में यूरोप में वर्षा की सामान्य बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। यूरोप में बहुत-सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। जबकि भारत में वर्षा का अधिकतम हिस्सा मूसलाधार रूप में गिरता है, जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके जल के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल मिट्टी बहा कर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है। इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली, जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेल कर उसे धरती पर धीरे से उतारे, ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं, अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में चला जाए और पृथ्वी के जल भंडार को बढ़ाने का कार्य करे।

दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है, उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में जमा कर लिया जाए। इस पानी को मोड़ कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे मेंड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उनमें अधिक समय तक बना रहे, इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है। वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिजाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले रिसाव का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी अपने आप दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी आसानी से किया जा सकता है।

वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की जरूरतों के अनुसार सदियों से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान और बुंदेलखंड के तालाब हों, या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित की। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी अनेक तरह की बेहतर परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल-प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और गांववासियों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज सरकार चाहती ही नहीं थी। जब उद्देश्य ही उपेक्षित हो गया तो उपाय क्या होने थे। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को कुछ बना कर रख सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।

दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों द्वारा जल-प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इनकी उपेक्षा और बढ़ गई। औपनिवेशिक शासकों ने जल-प्रबंध की जो नीतियां अपनाई थीं, उनमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ यूरोप में वर्षा के लक्षणों पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस सोच के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता?

गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी  अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरुस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मध्यम बांध बनाने पर जोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछा कर इस पानी के कुछ हिस्से को वापस गांवों में पंहुचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक महंगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख लक्षण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता है। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है- अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के जो निर्माण कार्य बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वही विनाशकारी बाढ़ का कारण बन गए हैं।

जिस समाज में गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी जरूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। जहां ये विकृतियां हमारी परंपरा में नजर आएं, उनसे लड़ना है और उन्हें दूर करना है। जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है। आज भी जल प्रबंध का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं, जैसे- केवट, मल्लाह, कहार, धीमर, मछुआरे आदि। जरूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है, उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए। यदि सरकार अपने जल प्रबंधन बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे के संकट के स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी।

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