Sunday 22 July 2018

अतिशय #उत्पादन की #समस्या

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#अतिशय #उत्पादन की #समस्या!!||
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(#Business #Standard)
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भारत अकाल और कृषि उपज की कमी से अत्यधिक पैदावार तक की दूरी तय कर चुका है। देश में इस समय खाद्यान्न की इतनी उपज होती है जो हमारी खपत से बहुत ज्यादा है। चावल, चीनी, दूध की उपज तो जरूरत से ज्यादा है ही। कई बार टमाटर, प्याज और आलू की उपज के साथ भी ऐसी ही स्थिति हो जाती है। देश में फिलहाल 6.8 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है। यह जरूरी बफर स्टॉक के मानक से दोगुना है। दूध का उत्पादन आबादी बढऩे की दर से चार गुना तेजी से बढ़ रहा है। आलू पर भी यही बात लागू होती है। उसका उत्पादन एक दशक में 80 फीसदी तक बढ़ गया है। इस अवधि में आबादी बमुश्किल 20 फीसदी बढ़ी है। इस वर्ष 3.2 करोड़ टन चीनी का उत्पादन होने की उम्मीद है। जबकि देश में चीनी की खपत लगभग 2.5 करोड़ टन है। इसका परिणाम यह है कि दुग्ध उत्पादक कम कीमत होने का विरोध करते हुए टैंकरों में भरा हुआ दूध राजमार्गों पर बहा देते हैं। ऐसा गर्मियों के मौसम में देखने को मिला जब दूध का उत्पादन अपेक्षाकृत कम होता है। वे अवांछित आलू शीत गृहों में छोड़ देते हैं। भंडार गृहों के मालिक हजारों टन आलू को खुले में सडऩे के लिए छोड़ देते हैं।

खाद्य पदार्थों की प्रति व्यक्ति खपत कम होने के चलते देश के लिए इतना अधिक उत्पादन समस्या बन गया है। परंतु खपत के स्तर का सीधा संबंध आय के स्तर से है। सरकार खपत बढ़ाने के उपाय कर सकती है लेकिन परंतु प्रमुख खाद्यान्न पहले ही लागत के 10 फीसदी दाम पर बिक रहे हैं। आप दूध का इस्तेमाल स्कूलों में मध्याह्नï भोजन में करके उसकी खपत बढ़ा सकते हैं लेकिन इसके बावजूद दूध बचा रहेगा। आप निर्यात कर सकते हैं। भारत चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है। कुछ अन्य वस्तुओं के निर्यात में भी उसका अहम स्थान है। परंतु हमारी खेती प्रतिस्पर्धी नहीं है क्योंकि उत्पादकता कम है। चीन भारत से ढाई गुना अधिक टमाटर उगाता है जबकि उसका रकबा हमसे थोड़ा ही अधिक है। जब उत्पादकता बढ़ती है तो अधिशेष के निपटान की समस्या बढ़ जाती है। हम चीनी के मामले में ऐसा देख चुके हैं। चीनी मिलों के पास गन्ना किसानों की कई अरब रुपये की राशि बकाया है। परंतु सरकार निर्यात सब्सिडी और मिलों को चीनी भंडारण पर सब्सिडी देने का प्रस्ताव रख रही है जबकि गन्ने की कीमतों में इजाफा किया जा रहा है। इस बात को लेकर भी जागरूकता बढ़ी है कि हम चीनी और चावल जैसी जिन फसलों का निर्यात करते हैं उनकी खेती में बहुत अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। गौरतलब है कि इस समय देश में भारी जल संकट चर्चा का विषय बना हुआ है।

हम किसी छोटे मोटे उपक्रम की बात नहीं कर रहे हैं। दूध का कारोबार वाहन उद्योग के बराबर यानी करीब 40 खरब रुपये की बिक्री का कारोबार है। चीनी कारोबार का आकार भी छोटा नहीं है। कुल मिलाकर टमाटर, प्याज और आलू का उत्पादन चावल के उत्पादन के तीन चौथाई के बराबर है। इन सारी चीजों में लाखों किसान शामिल हैं इसलिए यह मानवीय समस्या राजनीतिक चश्मे से देखी जाती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में हालिया बढ़ोतरी और दूध उत्पादन में सब्सिडी जैसी घटनाएं उसी राजनीतिक दृष्टिï का परिणाम हैं। इससे धान की खेती को बढ़ावा मिलेगा और दूध का उत्पादन बढ़ेगा। जबकि नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि हम अतिशय उत्पादन की समस्या हल कर सकें।

सब्सिडी के अलावा सरकारी हस्तक्षेप से प्राय: कीमतों में बहुत अधिक इजाफा हो जाता है। अतिरिक्त भंडारण, मूल्य और परिचालन पर नियंत्रण होता है और किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला शुरू होता है। यह सारी कवायद किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने और उन्हें बाजार की विसंगतियों से बचाने की है। परंतु भारी लागत के बिना इनमें स्थायित्व नहीं है। दीर्घावधि के उपायों में अतिरिक्त उत्पादन वाली वस्तुओं के लिए मांग और आपूर्ति का मिश्रण तैयार करना, फसल में विविधता लाना, आयात की जाने वाली उपज की खेती करना आदि शामिल है।  इस दिशा में हुई प्रगति अपर्याप्त है। दालों में वर्षों के ठहराव के बाद उत्पादन वृद्घि 4 फीसदी पर पहुंची है। तिलहन उत्पादन धीमा रहा है लेकिन वह भी पहले से बेहतर है। सबसे बढ़कर सरकार ने बजट में श्वेत क्रांति के तर्ज पर ऑपरेशन ग्रीन लाने की घोषणा की है। इसमें उत्पादन में सहकारिता को बढ़ावा दिया जाएगा और ताजा उपज का प्रसंस्करण किया जाएगा। अंतर आने में वक्त लगेगा लेकिन इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है।

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