Friday, 20 July 2018

महान क्रांतिकारी जिसे आज़ादी के बाद छाननी पड़ी सड़कों की धूल!

महान क्रांतिकारी जिसे आज़ादी के बाद छाननी पड़ी सड़कों की धूल!

साल 1965 को 20 जुलाई के दिन इस महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का निधन हुआ था.उनके जीवन के उस हिस्से के बारे में जब आज़ादी के बाद उन्हें सड़क की खाक छाननी पड़ी थी.
   
भगत सिंह के साथ मिलकर बहरे अंग्रेज़ों को सुनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने साल 1929 को दिल्ली में केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका था.

बटुकेश्वर दत्त के देशप्रेम और वीरता के एक से एक किस्से मशहूर हैं. साल 1965 को 20 जुलाई के दिन इस महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का निधन हुआ था. पढ़िए उनके जीवन के उस हिस्से के बारे में जब आज़ादी के बाद उन्हें सड़क की खाक छाननी पड़ी थी.

सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के चलते उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी. इसके बाद उन्हें काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान के सेल्युलर जेल भेजा गया.

कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी जैसी गंभीर बीमारी हो गई थी. इसके बाद उन्हें जल्द ही रिहा कर दिया गया. बावजूद इसके जेल से छूटने के बाद महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया. 4 साल बाद उन्हें जेल से फिर रिहाई मिली.

आज़ादी के बाद पटना में बिताई ज़िंदगी

15 अगस्त 1947 के बाद देश आजाद हो गया था. नवंबर 1947 के बाद बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे.

पूरी ज़िंदगी देश को समर्पित करने वाले दत्त को आगे की ज़िंदगी ऐसी बितानी पड़ेगी उन्होंने सोचा नहीं होगा. ज़िंदगी चलाने के लिए कभी वो सिगरेट कंपनी एजेंट बन गए तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर सड़कों की धूल छानी.

जब बीमारी के दौर में उन्हें सब भूल गए

साल 1964 में बटुकेश्वर बीमार पड़ गए थे. वो पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती थे और उन्हें पूछने वाला कोई नहीं था. उनकी इस दुदर्शा को देखकर उनके मित्र चमनलाल ने एक लेख लिखा, 'क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए?

उन्होंने आगे लिखा कि खेद की बात है कि जिस इंसान ने देश को आजाद कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'

इलाज के लिए हरकत में आई सरकार

उनके इस लेख के बाद सत्ता के गलियारे में खलबली मची और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री ने चमनलाल से मुलाकात की. उसके बाद बिहार और पंजाब सरकार ने एक हज़ार का चेक भेजकर मदद की पेशकश की.

हालांकि उनकी हालात तब तक बहुत बिगड़ चुकी थी. उन्हें बेहतर इलाज के लिए 22 नवंबर 1964 को दिल्ली लाया गया. 17 जुलाई को वे कोमा में चले गए और 20 जुलाई 1965 को उनका निधन हो गया.

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