Thursday, 19 July 2018

क्या_होता_है_अविश्वास_प्रस्ताव

#क्या_होता_है_अविश्वास_प्रस्ताव

लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव चर्चा के लिए मंजूर कर लिया है. ज्यादातर विपक्षी दल इस अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन दे चुके हैं. अब इस पर चर्चा होगी और वोटिंग भी होगी.

मोदी सरकार के खिलाफ ये पहला अविश्वास प्रस्ताव होगा.

अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव दोनों निचले सदन यानी केंद्र सरकार के मामले में लोकसभा और राज्य सरकारों के मामले में विधानसभा में भी लाए जा सकते हैं.

अविश्वास प्रस्ताव- सरकार का विरोध करने वाले यानी विपक्षी दल लाते हैं, सरकार बने रहने के लिए अविश्वास प्रस्ताव का गिरना यानी नामंजूर होना जरूरी है. अगर अविश्वास प्रस्ताव को सदन ने मंजूर कर लिया तो तो सरकार गिर जाती है.

विश्वास प्रस्ताव-  ये केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्य में मुख्यमंत्री पेश करता है,  सरकार के बने रहने के लिए इस प्रस्ताव का पारित होना मतलब मंजूर होना जरूरी है. प्रस्ताव पारित नहीं हुआ तो सरकार गिर जाएगी. विश्वास प्रस्ताव दो स्थिति में लाया जाता है. जब सरकार को समर्थन देने वाले घटक समर्थन वापसी का ऐलान कर दें, ऐसे में राष्ट्रपति या राज्यपाल प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सदन का भरोसा हासिल करने को कह सकते हैं.

आइए अविश्वास और विश्वास प्रस्ताव के बारे में बड़ी बातें जान लीजिए

क्या होता है अविश्वास प्रस्ताव?
केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है अविश्वास प्रस्तावकेवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है अविश्वास प्रस्ताव
अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में विपक्षी की तरफ से सरकार के खिलाफ लाया जाने वाला प्रस्ताव है. जब विपक्षी दलों या उनमें से किसी पार्टी को ऐसा लगता है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है या सदन का विश्वास खो चुकी है. वैसी स्थिति में पार्टी की तरफ से ये प्रस्ताव लाया जाता है. यह केवल लोकसभा में ही लाया जा सकता है. राज्यसभा में कभी भी अविश्वास प्रस्ताव नहीं पेश किया जा सकता है.

प्रस्ताव पेश करने की क्या है प्रक्रिया?
अविश्वास प्रस्ताव के लिए होती है वोटिंगअविश्वास प्रस्ताव के लिए होती है वोटिंग
अविश्वास प्रस्ताव पेश करने के लिए कम से कम 50 लोकसभा सदस्यों के समर्थन की जरूरत होती है. इसके बाद लोकसभा स्पीकर के सामने प्रस्ताव रखा जाता है. अगर स्पीकर उस अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर कर लेता है तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के भीतर इस पर चर्चा कराई जाती है. स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करा सकता है. इस दौरान सरकार अपने सांसदों के लिए व्हिप जारी करती हैं.

पहली बार कब लाया गया था अविश्वास प्रस्ताव?
पहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ 1963 में लाया गया था अविश्वास प्रस्तावपहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ 1963 में लाया गया था अविश्वास प्रस्ताव
भारतीय संसदीय इतिहास में सबसे पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. अगस्त 1963 में जे बी कृपलानी ने संसद में नेहरू सरकार के खिलाफ प्रस्ताव रखा था. ये अविश्वास प्रस्ताव गिर गया था क्योंकि इसके पक्ष में केवल 62 वोट पड़े थे. जबकि विरोध में 347.

अब तक सबसे ज्यादा 15 बार अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ लाए गए. लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंह राव सरकार को तीन-तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. मोदी सरकार के पिछले चार साल के कार्यकाल में पहली बार उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा रहा है.

सरकार पर कितना होता है असर?
1978 में अविश्वास प्रस्ताव की वजह से गिर गई थी मोरारजी देसाई की सरकार1978 में अविश्वास प्रस्ताव की वजह से गिर गई थी मोरारजी देसाई की सरकार
अविश्वास प्रस्ताव में अगर सरकार के खिलाफ ज्यादा वोट पड़ गए. मतलब कि सदन में मौजूद कुल सदस्यों में से बहुमत अगर सरकार के खिलाफ वोट देने वालों का है तो सरकार गिर जाती है. लेकिन केंद्र सरकार के इतिहास में अब तक केवल एक बार ही अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिर गई है.

1978 में मोरारजी देसाई सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिर गई थी. 1993 में अविश्वास प्रस्ताव से नरसिंह राव सरकार के गिरने का खतरा था लेकिन बहुत कम वोटों के अंतर से वो अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे.

अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव में अंतर?
साल 1996 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए अटल बिहारी वाजपेयी.साल 1996 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए अटल बिहारी वाजपेयी.
अविश्वास प्रस्ताव हमेशा विपक्षी पार्टी की तरफ से लाया जाता है. जबकि विश्वास प्रस्ताव सदन में अपना बहुमत दिखाने के लिए सत्ताधारी पार्टी की तरफ से लाया जाता है. अटल बिहारी वाजपेयी दो बार सदन में विश्वास मत हासिल करने की कोशिश की और दोनों बार वे इसमें नाकामयाब रहे. 1996 में उन्होंने वोटिंग से पहले ही इस्तीफा दे दिया था. जबकि 1998 में वे एक वोट से हार गए थे और उन्हें अपनी सरकार गंवानी पड़ी.

90 के दशक में वाजपेयी के अलावा वी पी सिंह, एच डी देवेगौड़ा और आई के गुजराल की सरकारें भी विश्वास प्रस्ताव हार चुकी है. वहीं 1979 में ऐसे प्रस्ताव के लिए जरूरी सपोर्ट नहीं इकट्ठा कर पाने की स्थिति में चौधरी चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था.

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