Sunday 17 June 2018

रस, छन्द और अलंकार विस्तार सहित

रस, छन्द और अलंकार विस्तार सहित

रस, छन्द और अलंकार तीनो ही हिन्दी काव्य के महत्व पूर्ण अंग है  तथा तीनो की अपनी अलग-अलग विशेषता है जिसका वर्णन नीचे किया जा रहा है ।

रस का अर्थ तथा प्रकार -
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। हिन्दी भाषा के किसी काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को हिन्दी काव्य की आत्मा या प्राण भी माना जाता है।

रस के चार अवयव होते है।
स्थायी भाव -  स्थायी भाव का अर्थ होता है प्रधान भाव और प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है।

विभाव - इसके दो भाग होते है १ आलंबन विभाव - जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं । जैसे- नायक-नायिका आदि।  २  उद्दीपन विभाव -  जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है। जैसे- चाँदनी, एकांत स्थल आदि

अनुभाव - मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं। ये आठ तरह के होते है । स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कम्प, विवर्णता (रंगहीनता), अश्रु, प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता) आदि।

संचारी भाव -  मन में आने-जाने वाले वाले भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं।
रस के प्रकार तथा भाव
श्रृंगार रस -  रति/प्रेम
हास्य रस -  हास
करुण रस-  शोक
वीर रस -  उत्साह
रौद्र रस-  क्रोध
भयानक रस -  भय
वीभत्स रस - घृणा
अद्भुत रस -  आश्चर्य
शांत रस -  वैराग्य
वात्सल्य रस -  वात्सल्य
भक्ति रस -  रति\अनुराग

छन्द का अर्थ तथा अंग -
छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'खुश करना'। वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद (ख़ुशी) पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'।

छन्द के अंग -
चरण/ पद/ पाद - छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
वर्ण - एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण तथा  जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो उसे वर्ण नहीं माना जाता।
मात्रा - किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं जैसे - अ, इ, उ, आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, आदि ।
संख्या - वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं।
क्रम - लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।
गण - गण का अर्थ है 'समूह अतः लघु-गुरु के नियत क्रम से 3 वर्णों के समूह को गण कहा जाता है'।
गति -  छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।
यति/ विराम - छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विरोम कहते हैं।
तुक - छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं।

अलंकार का अर्थ तथा अंग -
काव्य में भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कार को अलंकार कहते हैं। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है, 'आभूषण'। जिस प्रकारमनुष्य सुवर्ण, वस्त्रा और आभूषणों आदि से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य अलंकारों से काव्य की शोभा बदती है।

अलंकार को दो भागों में विभाजित किया गया है:-
शब्दालंकार (शब्द पर आश्रित अलंकार) -  जहाँ शब्दों के प्रयोग से सौंदर्य में वृद्धि होती है और काव्य में चमत्कार आ जाता है, वहाँ शब्दालंकार माना जाता है।
अर्थालंकार (अर्थ पर आश्रित अलंकार) -  जहाँ शब्दों के अर्थ से चमत्कार स्पष्ट हो, वहाँ अर्थालंकार माना जाता है।

अलंकार के प्रकार
उपमा अलंकार -  जिस जगह दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समानता दिखाई जाए उसे उपमा अलंकार कहा जाता है।

रूपक अलंकार -  जिस जगह उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाए, उस अलंकार को रूपक अलंकार कहा जाता है,

उत्प्रेक्षा अलंकार -  जिस जगह उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है यानी अप्रस्तुत को प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है। वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

उपमेयोपमा अलंकार -  उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की प्रक्रिया को उपमेयोपमा अलंकार कहते हैं।

अतिशयोक्ति अलंकार -  जिस स्थान पर लोक-सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है। वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

उल्लेख अलंकार -  जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाए, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है।
विरोधाभास अलंकार -  जहाँ विरोध ना होते हुए भी विरोध का आभास दिया जाता है, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।

दृष्टान्त अलंकार -  जिस स्थान पर दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव होता है, उस स्थान पर दृष्टान्त अलंकार होता है।

अंत मे...हिन्दी व्याकरण व भाषा शैली इतनी भी सरल नही है..जितनी हम लापरवाह बनके इसकी उपेक्षा करते है...व्याकरण सीखने के लिए धीरता व गंभीरता बहुत आवश्यक है..

धन्यवाद

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