Friday 15 June 2018

जरूर पढ़े अन्नू कुमारी दहिया की प्रेरणास्पद कहानी

जरूर पढ़े अन्नू कुमारी दहिया की प्रेरणास्पद कहानी
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मां गोबर के उपले थाप रही थी जब यह खबर आई कि बेटी I.A.S बन गई है
चार साल के बच्‍चे की 32 साल की मां अनु कुमारी आज उन लड़कियों के लिए एक मिसाल है, जो अपनी नियति, अपनी जिंदगी बदलना चाहती हैं. बदलाव का यह रास्‍ता पढ़ाई से होकर जाता है.
   
वह दिन बाकी दिनों की तरह एक सामान्‍य-सा दिन था. सोनीपत में अपनी मां के घर 32 साल की अनु कुमारी रोज की तरह घर के कामों में व्‍यस्‍त थी. 4 साल का बेटा ऊधम मचा रहा था और अनु उसके पीछे-पीछे दौड़ रही थी. अनु की मां गोबर के उपले पाथ रही थी, दिन बीत रहा था कि तभी यह खबर आई.

यूपीएससी के नतीजे आ गए थे और हरियाणा के सोनीपत के पास एक छोटे से गांव में जन्‍मी और शहर सोनीपत में ही पली-बढ़ी अनु कुमारी ने पूरे देश में दूसरी रैंक हासिल की थी. खबर फैल चुकी थी. फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई थी. मुहल्‍ले के लोग बधाइयां लेकर आ रहे थे. चैनल वाले अपने कैमरों और माइक के साथ मुस्‍तैद हो चुके थे. उसके बाद की कहानी तो सब जानते हैं- अनु कुमारी, 2018 आईएएस टॉपर, सेकेंड रैंक.

लेकिन अनु की असल कहानी उसके पहले से शुरू होती है.

18 नवंबर, 1986 को हरियाणा के एक निम्‍न मध्‍यवर्गीय परिवार में एक लड़की का जन्‍म हुआ. जब पता चला कि दूसरी भी लड़की हुई है तो परिवार-पड़ोसियों में मातम छा गया. लोग बधाइयों की बजाय दिलासा देने लगे. मां को अपनी बच्‍ची से प्रेम तो था, लेकिन इस बार बेटे की चाह उनको भी थी. इस सबके बीच अगर कोई खुशी से सिर ऊंचा कर खड़ा था तो वे अनु के पिता थे, जिन्‍हें हमेशा बेटों से ज्‍यादा बेटियों की परवाह रही. अनु कहती हैं, “हरियाणा में तो लड़की पैदा हो तो ऐसा माहौल हो जाता है मानो कोई मर गया हो. लेकिन मेरे घर में ऐसा नहीं था, क्‍योंकि मेरे पापा ऐसे नहीं थे. मैंने बचपन से देखा कि वो मां की बहुत इज्‍जत करते थे. बाहर के लोगों के सामने हमेशा कहते कि आज मैं जो भी हूं, अपनी पत्‍नी की वजह से हूं.” अनु कहती हैं कि हरियाणा में यह आम बात नहीं है. कोई अपनी पत्‍नी की ऐसे तारीफ नहीं करता कि मानो उससे बढ़कर और कुछ नहीं. और एक स्‍त्री के मन पर क्‍या असर होता है, जब उसका पति उसकी इज्‍जत करे, उसका नाम ले. मेरी मां का आंखों में जो संतोष और खुशी है, उसकी वजह पिता का उनके प्रति व्‍यवहार ही था.

अनु अपने बचपन को याद करती हैं. पिता का एक प्राइवेट कंपनी में मामूली रोजगार था और मां भैंस पालन का काम करती थीं. घर के कामों से लेकर दूध दुहने, बेचने, गोबर के उपले पाथने तक हर काम खुद ही करतीं. घर में कोई नौकर नहीं था. मां रोज सुबह 4 बजे उठ जातीं और देर रात तक काम करती रहतीं. घर में एक कर्मठ, जुझारू और कमाऊ औरत की मौजूदगी ने अनु को यह सिखाया कि औरत ऐसी होती है.

अनु कुमारी

अनु की मां संतरो देवी उसका बचपन याद करते हुए कहती हैं, “छोटा सा घर था और इतने सारे लोग. उसी में खाना, उसी में सोना, उसी में रहना. अनु उसी माहौल में पढ़ाई करती. पूरी छत गोबर के उपलों से भरी थी. बेचारी उसी गोबर और भैंसों के बीच बैठकर पढ़ती और क्‍लास में हमेशा अव्‍वल आती.”

जिस उम्र में मोहल्‍ले, परिवार की लड़कियां और स्‍कूल की सहेलियां नेल पॉलिश लगाने, बाल संवारने और किताब में प्रेम-पत्र छिपाकर रखने लगी थीं, अनु आगे की पढ़ाई के लिए दिल्‍ली जाने की तैयारी कर रही थी. इसके पहले अनु ने कभी सिनेमा नहीं देखा था. चौथी क्‍लास में एक बार पूरा परिवार सोनीपत के एक सिनेमा हॉल में “हम आपके हैं कौन” देखने गया था. हॉल में देखी वो पहली और आखिरी फिल्‍म थी. कभी ब्‍यूटी पार्लर नहीं देखा था कि वह अंदर से कैसा होता है. वैक्सिंग और थ्रेडिंग का सिर्फ नाम सुना था, करवाया कभी नहीं था. कभी किसी मॉल में नहीं गई थी और न कभी ऊंची हील वाली चप्‍पल ही पहनी थी.

बारहवीं पास कर जब अनु दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज से फिजिक्‍स में बीएससी करने गईं, तब भी ज्‍यादा कुछ बदला नहीं. हां, कपड़े जरूर थोड़े स्‍टाइलिश हो गए थे और बाल भी कुछ ढंग से संवारे जाने लगे. लेकिन बाकी का सारा समय क्‍वांटम फिजिक्‍स और गणित के सवालों के साथ ही बीतता. पढ़ाई जरूर इंग्लिश मीडियम में हुई थी, लेकिन सोनीपत के इंग्लिश मीडियम स्‍कूल में इंग्लिश कोई नहीं बोलता था, इंग्लिश की टीचर भी नहीं. दिल्‍ली पहुंचकर अनु को लगा कि वह ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पाती. फिर क्‍या था, जिद्दी अनु अंग्रेजी की जान के पीछे पड़ गई और आज ये आलम है कि अनु की अंग्रेजी फ्रंटियर मेल की रफ्तार और पंजाब मेल की धमक जैसी चलती है.

हिंदू कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर अनु आइएमटी, नागपुर से एमबीए करती हैं और 21 साल की उम्र में पहली नौकरी मिलती है, आईसीआईसीआई बैंक, मुंबई में. हरियाणा से दिल्‍ली और दिल्‍ली से मुंबई.

मुंबई- समंदर वाला चमकीला शहर, चारों ओर भीड़, फैशनेबल लड़कियां, फर्राटेदार अंग्रेजी और कॉरपोरेट की नौकरी. और उन सबके बीच एक लड़की, जिसकी भौंहें तक तराशी हुई नहीं थीं और जिसके हाथ-पैर पर बाल थे क्‍योंकि उसने कभी वैक्सिंग नहीं करवाई. जो सलवार-कुर्ती पहनती, दुपट्टा लेती और बालों को कसकर चोटी बनाती थी. अनु हंसकर याद करती हैं, “मुंबई में ऑफिस में लड़कियां बोलती थीं कि जरूर ये सरदारनी होगी. वे लोग बालों में कैंची नहीं छुआते.” अनु कहती हैं, “मुंबई जाकर मुझे कई बार बहुत हीनभावना महसूस होती थी. लगता था कि मैं बाकी लड़कियों जैसी नहीं हूं, लेकिन मेरा काम अच्‍छा था और मेरी हमेशा तारीफ होती. मेरा काम बाकी कमियों को ढंक देता. मुझे लगा कि बिना नेश पॉलिश लगाए और वैक्सिंग कराए भी मैं किसी से कम नहीं हूं.”

अनु पढ़ाई में अव्‍वल थी, नौकरी में अव्‍वल थी. पांच लाख के पैकेज से पहली नौकरी शुरू की थी और दो साल पहले जब नौकरी छोड़कर सिविल सर्विसेज की तैयारी करने का फैसला किया तो उस समय बीस लाख रु. सालाना कमा रही थी. नौकरी छोड़ने का फैसला आसान तो नहीं था, लेकिन भाई लगातार दीदी को मनाने में लगा रहा कि तुम कर लोगी. मौसी ने कहा, “मेरे पास आकर पढ़, मैं तेरी सेवा करूंगी.” मामा ने कहा, “बेटा नौकरी छोड़ दे, तेरा खर्च मैं उठाऊंगा.”

दिल्‍ली में अनु की ससुराल है, लेकिन नौकरी छोड़ तैयारी करने के लिए अनु अपनी मौसी के गांव पुरखास चली गईं. अनु कहती हैं, “ससुराल वाले बुरे लोग नहीं, लेकिन वहां हूं तो मैं बहू ही. वहां ये मुमकिन नहीं कि मैं दिन भर पढ़ती रहूं और मुझे हाथ में सबकुछ सजाकर मिले.”

अनु अपनी सफलता का सारा श्रेय घर की दो औरतों को देती हैं- अपनी मां और मौसी को. मां ने अनु के बच्‍चे को संभाला और मौसी ने दिन-रात एक गोद के बच्‍चे की तरह अनु की सेवा की. एक गिलास पानी भी लेने उसे उठना नहीं पड़ता था. हर चीज सामने परोसी जाती और मजाल है जो कोई लड़की की पढ़ाई में हर्जा कर दे. मौसी दरबान की तरह डटी रहतीं. और सच तो ये है कि मां और मौसी, दोनों ही खुद ज्‍यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं.

अनु ने पुरखास गांव में रहकर ही पूरी तैयारी की, कभी कोई कोचिंग नहीं ली. यहां तक कि जिस गांव में वह रह रही थीं, वहां कोई अंग्रेजी अखबार भी नहीं आता था. सिर्फ स्‍थानीय हिंदी अखबार थे, जिसमें भैंस चोरी हो गई, लड़की भाग गई, बहू जल गई, नेताजी ने भाषण दिया टाइप लोकल खबरें ही प्रमुखता से छपती थीं.

तो इंटरनेशनल अफेयर्स पढ़ने के लिए क्‍या किया जाए? अनु ने अखबार न मिलने की शिकायत नहीं की, ऑनलाइन पढ़ना शुरू किया. हर वो चीज, जिसकी कमी होती, अनु उसकी शिकायत करने की बजाय उसका हल ढूंढने की कोशिश करतीं. वो अपनी मां का एक किस्‍सा सुनाती हैं- “मां बहुत आध्‍यात्मिक स्‍वभाव की थीं. लेकिन घर में इतना काम होता कि उन्‍हें भजन-कीर्तन में जाने का वक्‍त ही नहीं मिलता. तो मां ने उसका रास्‍ता ये निकाला था कि रात में जब वो रोटियां बना रही होतीं तो भजन गाती रहतीं. सालों तक रोज रात में चूल्‍हे के सामने रोटी बनाती और भजन गाती मां की छवि मेरे जहन में बसी रही. और मुझे एक बात और समझ में आई. अगर हम सचमुच दिल से कुछ करना चाहते हैं तो उसका रास्‍ता भी निकाल ही लेते हैं. असल बात है चाहने की. हम सचमुच क्‍या चाहते हैं.” यही असल बात थी. सवाल ये नहीं था कि अनु गांव में रहकर पढ़ी, कि वहां अखबार भी नहीं आता था, कि कभी कोचिंग नहीं ली, कि अपने चार साल के बच्‍चे से एक साल तक दूर रही. बात ये थी कि मन ने ठान लिया था कि ये करना है.

अनु ने ठान लिया और आज वह टॉपर है. अब उन ऊबड़-खाबड़ रास्‍तों का जिक्र कोई नहीं करेगा, जिससे गुजरकर वह यहां तक पहुंची. अब मंजिल सामने है और नजारा रौशन. चार साल के बच्‍चे की 32 साल की मां अनु कुमारी आज उन लड़कियों के लिए एक मिसाल है, जो अपनी नियति, अपनी जिंदगी बदलना चाहती हैं. बदलाव का यह रास्‍ता पढ़ाई से होकर जाता है.
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