Wednesday, 5 February 2020

फारस की खाड़ी के संकट में भारत का दांव


यह हमारी विदेश नीति पर एक दुखद टिप्पणी है कि अमेरिका ने जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के अपने फैसले के बारे में भारत को सूचना देने की जहमत भी नहीं उठाई। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि ईरानी नेता जनरल सुलेमानी नई दिल्ली में एक आतंकवादी हमले में शामिल थे। वह संभवतः वर्ष 2012 में इस्राइली राजनयिकों पर हुए हमले का जिक्र कर रहे थे। उनके विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों के साथ-साथ जर्मनी और अफगानिस्तान तक से बात की, लेकिन भारत को छोड़ दिया। इसलिए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रविवार को पोम्पियो और ईरान के विदेश मंत्री जावेद जरीफ को फोन करके दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की। और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी ट्रंप को फोन किया। हमलोगों के विपरीत अमेरिका अब खाड़ी के तेल पर निर्भर नहीं है। वह अपने सहयोगियों-इस्राइल, सऊदी अरब, और खाड़ी के शेखशाही की सुरक्षा के लिए ज्यादा चिंतित है। अमेरिकी नीति इस क्षेत्र की राजनीति को संचालित कर रही है, जो इस क्षेत्र के लिए आपदा हो सकती है। याद कीजिए उस अमेरिकी युद्ध को, जिसने इराक को तबाह करके हमें इस्लामिक स्टेट जैसा आतंकी संगठन दिया। और वह युद्ध इस झूठ पर शुरू किया गया था कि सद्दाम हुसैन के पास परमाणु हथियार थे। ईरान के खिलाफ अमेरिकी युद्ध का ईरान और उस क्षेत्र के लिए, जिसमें भारत भी शामिल है, और भी विनाशकारी परिणाम हो सकता है।

हम अपनी जरूरत का 80 फीसदी तेल आयात करते हैं और इसमें से दो तिहाई तेल ईरान के वर्चस्व वाले होर्मुज जलडमरूमध्य के माध्यम से आता है। इसमें किसी भी तरह के व्यवधान से भारत में अराजकता पैदा होगी, क्योंकि हम अब तक एक महत्वपूर्ण तेल भंडार का निर्माण नहीं कर सके हैं। भारत का रणनीतिक तेल भंडार कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में तीन भूमिगत स्थानों पर है, जिसमें दस दिनों तक खपत के लायक कच्चा तेल है। अतिरिक्त क्षमता के लिए योजना बनी है, पर अब तक निर्माण नहीं हुआ है।

खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता की वजह से तेल की कीमतें मौजूदा 60 डॉलर प्रति बैरल से 70 डॉलर प्रति बैरल तक हो सकती हैं और कहने की जरूरत नहीं कि युद्ध की स्थिति में तेल की कीमतें कितनी बढ़ सकती हैं। ग्लोबल ब्रोकरेज फर्म नोमुरा के अनुसार, कीमतों में हर 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी से हमारी जीडीपी में 0.2 प्रतिशत की कमी आ सकती है और मुद्रास्फीति में 30 बेसिस पॉइंट की बढ़ोतरी हो सकती है। इसके अलावा, अगर रुपये में एक साथ मूल्यह्रास होता है, तो प्रति पांच फीसदी मूल्यह्रास से मुद्रास्फीति में 20 बेसिस पॉइंट की बढ़ोतरी होगी। संक्षेप में, यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक बुरी खबर होगी।

भारत को अपने सबसे निकटस्थ स्रोत ईरान से तेल आयात करने से रोकने के बाद अमेरिका अब इराक के साथ भी ऐसा करने की राह पर बढ़ सकता है, जो पिछले दो वर्षों में हमारे तेल आयात (20 फीसदी) का सबसे बड़ा स्रोत था। ट्रंप ने इराक को धमकी दी है कि अगर उसने इराक स्थित 5,000 से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को वापस जाने के लिए बाध्य किया, तो अमेरिका इराक पर कठोर प्रतिबंध लगा देगा। बेशक सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत जैसे अन्य तेल आपूर्तिकर्ता हैं, लेकिन फारस की खाड़ी की अनिश्चित स्थिति में उन तक पहुंचना एक समस्या हो सकती है।

इसके अलावा एक और कारक है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। सऊदी प्रायद्वीप में 70 लाख से ज्यादा भारतीय नागरिक काम करते हैं और सालाना 40 अरब डॉलर अपने देश में भेजते हैं। भारत को यहां दो तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उस क्षेत्र में युद्ध होने से वहां की अर्थव्यवस्था तबाह हो सकती है, जिसके चलते भारतीय नागरिकों को अपने आकर्षक रोजगार को छोड़कर देश लौटना पड़ सकता है। इसके अलावा भारत को उन्हें जल्दबाजी में वहां से निकालने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है, जैसा कि उसे 1990 में कुवैत के इराकी हमले के दौरान दो लाख और 2015 में यमन से छह हजार नागरिकों को निकालना पड़ा था।

प्रधानमंत्री मोदी ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात तक पहुंच बनाने के लिए इस क्षेत्र में बहुत सारे व्यक्तिगत प्रयास किए हैं। वह उनके विशाल संप्रभु धन का लाभ उठाना चाहते हैं, जो भारत में बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर धन का स्रोत हो सकता है। ये दोनों देश भी अपने तेल से इतर भविष्य के हिस्से के रूप में भारत को देखते हैं और भारत को अपने स्वाभाविक भागीदार के रूप में विकसित होते देखना चाहते हैं। हालांकि युद्ध और संघर्ष उन सपनों की राह में रोड़ा बन सकते हैं।

लंबे समय से पश्चिमी प्रतिबंध झेलने के कारण ईरान के पास उस तरह की अतिरिक्त संपत्ति नहीं है और न ही वहां प्रवासी भारतीय हैं। पर उसके पास विशाल तेल एवं गैस भंडार, एक महत्वपूर्ण भूराजनीतिक क्षेत्र, प्रतिभाशाली व शिक्षित आबादी और विशाल बाजार है। वह लंबे समय से भारत को एक प्रमुख भागीदार के रूप में देखता है और उसने अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने के लिए पाकिस्तान की नाकाबंदी को दरकिनार करने के लिए चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए भारत को आमंत्रित किया। एक ऐसा समय था, जब ईरानी और भारतीय नीति की समानता ने हमें 1990 के दशक में अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी ताकतों के समर्थन में सहयोग करने की अनुमति दी थी।

लेकिन भारत के लिए ईरान के साथ संबंध बनाए रखने के लिए एक अनुकूल नीति तैयार करना मुश्किल हो गया है, यहां तक कि अमेरिका भारत पर 'अधिकतम दबाव' भी बनाए हुए है। अब चिंता इस बात की है कि अगर अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध होता है, तो भारत को बिना कुछ हासिल किए कोई पक्ष लेने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, जिसके बदले में भारत को केवल दर्द ही मिलेगा।

 -लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं

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