संसद के बजट सत्र से पहले विपक्षी एकजुटता का संदेश देने के लिए आयोजित बैठक अंतर्विरोधों को ही उजागर कर गयी। संसद के शीतकालीन सत्र से ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और नेशनल रजिस्टर ऑफ पापुलेशन (एनआरपी) के विरोध में देश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शन चल रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया समेत कुछ राज्यों के विश्वविद्यालय परिसरों में भी इन मुद्दों पर छात्रों का मुखर विरोध सामने आया है। कहीं-कहीं यह विरोध हिंसक भी हुआ है तो जवाब में पुलिसिया दमन की शिकायतें भी सामने आयी हैं। कहना नहीं होगा कि नागरिकता की पहचान से जुड़ी उपरोक्त तीनों प्रक्रियाओं पर केंद्र सरकार और उसकी अगुअा भाजपा को घेरे जाने के जवाब में दूसरी ओर से समर्थन में भी सुर मुखर हुए हैं और प्रदर्शन भी। देश के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में शुमार जेएनयू में नकाबपोश हिंसा के मूल में तो कारण फीस वृद्धि और रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया जैसे मुद्दे रहे हैं, लेकिन राजनीतिक दलों की सक्रियता के बाद वहां भी नागरिकता-निवासियों की पहचान से जुड़े केंद्र की भाजपानीत राजग सरकार के तीनों फैसले भी एजेंडे पर आ गये हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक ही था कि विपक्षी दल संसद के बजट सत्र में सरकार को इन विवादों समेत तमाम मुद्दों पर घेरने की कवायद करें। आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और बेलगाम महंगाई जैसी चुनौतियों को भी ध्यान में रखें तो कहा जा सकता है कि मोदी सरकार अपने शासनकाल के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा सोमवार को दिल्ली में बुलायी गयी विपक्षी दलों की बैठक इसी विपक्षी एकजुटता का संदेश देने की कवायद का हिस्सा थी। बेशक इस बैठक में 15 दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया, लेकिन उससे बड़ी खबर यह रही कि तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, द्रमुक, टीडीपी, आप और शिवसेना सरीखे महत्वपूर्ण दल इससे दूर ही रहे। इन दलों ने अलग-अलग कारणों से बैठक से दूर रहने के संकेत दिये हैं, पर कुल मिलाकर जो संदेश गया है, वह विपक्षी अंतर्विरोंधों का ही है।
मसलन, बसपा सुप्रीमो मायावती ने राजस्थान में अपने दल के छह विधायकों को कांग्रेस द्वारा तोड़ लिये जाने के विरोध में बैठक में न आने की बात कही। अशोक गहलोत सरकार को किसी संभावित संकट से बचाने के लिए राजस्थान में बहुमत बढ़ाने की कांग्रेस की बेचैनी समझी जा सकती है, लेकिन गैर भाजपाई खेमे के दलों में ही सेंधमारी से परस्पर विश्वास बढ़ने के बजाय घटेगा ही, यह समझ पाना मुश्किल नहीं होना चाहिए। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में, सपा से अप्रत्याशित गठबंधन की बदौलत ही सही, बसपा अब भी उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस से बहुत बड़ी पार्टी है। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश सरीखे पड़ोसी राज्यों में भी उसका (सीमित ही सही) जनाधार है। निश्चय ही भाजपा के विरुद्ध लड़ाई में वह कांग्रेस की असरदार सहयोगी साबित हो सकती है, लेकिन राजस्थान सरीखी सेंधमारी के चलते तो वह सहयोग संभव नहीं। बेशक मायावती भारतीय राजनीति के अविश्वसनीय किरदारों में से एक है, लेकिन तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद अपने परंपरागत जनाधार पर उनकी बरकरार पकड़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हां, मुंह इस सच से भी नहीं मोड़ा जा सकता कि खासकर उत्तर प्रदेश में मायावती कतई नहीं चाहेंगी कि कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़ी हो पाये। कारण भी बहुत साफ है कि बसपा जिस दलित-मुस्लिम जनाधार पर खड़ी है, वह दशकों तक कांग्रेस का परंपरागत जनाधार रहा है। अगर कांग्रेस मजबूत होती दिखी तो बदलते परिदृश्य में, खासकर अल्पसंख्यक मतदाताओं का मन बदलने में देर नहीं लगेगी, और मात्र दलित वोट बैंक के बल पर मायावती की बड़ी राजनीति संभव नहीं।
दरअसल कांग्रेस-सपा के खट्टे-मीठे रिश्तों के मूल में भी यही जटिल राजनीतिक समीकरण है। सपा का मुख्य जनाधार मंडल से मुखर हुआ अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी रहा है, जिसमें से अब मुख्यत: यादव ही उसके पास बचे हैं, जो अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ मिल अनेक सीटों पर विजयी समीकरण बनाते हैं। सपा को भी यही डर है कि मजबूत कांग्रेस मुस्लिम मतों को आकर्षित कर सकती है, जिसका परिणाम सपा की कमजोरी के रूप में आयेगा। ऐसे में भाजपा-विरोध के मुद्दे पर एकमत होते हुए भी कांग्रेस-सपा-बसपा का एक साथ आ पाना शायद ही कभी संभव हो पाये। अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की बात करें। इसमें दो राय नहीं कि लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के शून्य पर सिमट जाने के बाद वहां के मुख्यमंत्री एवं पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के मौन हो जाने पर ममता ही केंद्र सरकार, उसकी नीतियों और भाजपा की सबसे मुखर आक्रामक आलोचक रह गयी हैं। पश्चिम बंगाल में वह जिस तरह घूम-घूम कर एनआरसी और सीएए के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रही हैं, वैसा कोई दूसरा विरोधी दल नहीं कर पा रहा। इसके बावजूद इन्हीं मुद्दों पर सोनिया द्वारा आयोजित बैठक में खुद आना तो दूर, अपना प्रतिनिधि तक भेजना जरूरी नहीं समझा, तो जाहिर है कि मामला नीतियों से ज्यादा नेतृत्व का भी है। मूलत: कांग्रेसी ममता ने लंबे समय तक आलाकमान के दरबारियों से अपमानित होने के बाद अपनी अलग पार्टी बनायी और लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार, तीन दशक से भी ज्यादा समय से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा को बेदखल कर सरकार भी बनायी। पिछले साल लोकसभा चुनाव तक कहा जा रहा था कि ममता सरीखे वरिष्ठ नेता राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते, लेकिन इस बार तो वह सोनिया गांधी द्वारा बुलायी गयी बैठक में भी नहीं आई। इसके निहितार्थ कांग्रेस को समझने होंगे।
हालांकि विशुद्ध सत्ता केंद्रित हो गयी भारतीय राजनीति में विचारधारा, नीति, सिद्धांत अब लगभग अप्रासंगिक होकर रह गये हैं, लेकिन फिर भी एक हद तक माना जा सकता है कि आप और अरविंद केजरीवाल शायद ही कभी भाजपा के साथ खड़े हों। इसके बावजूद वह भी सोनिया की बैठक में नहीं आये। याद रहे कि यह वही केजरीवाल हैं जो पिछले साल लोकसभा चुनाव में दिल्ली में और फिर विधानसभा चुनाव में हरियाणा में कांग्रेस से गठबंधन के लिए आतुर थे। अब अगर सहमति वाले मुद्दों पर भी वह कांग्रेस के साथ नहीं खड़े दिखना चाहते तो उसके मूल में भी चुनावी राजनीति ही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक माह से भी कम समय रह गया है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में लगातार हार के बावजूद भाजपा एक बार फिर सत्ता की दावेदारी के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है। बेशक केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता कांग्रेस से ही छीनी थी, लेकिन चुनावी समीकरण बताते हैं कि त्रिकोणीय मुकाबला ही आप के लिए फायदेमंद रहेगा। आप और कांग्रेस का वोट बैंक एक जैसा ही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन का प्रयोग बताता है कि जरूरी नहीं कि एक का वोट बैंक दूसरे को ट्रांसफर हो जाये। हां, यह अवश्य हो सकता है कि एक-दूसरे से एलर्जी रखने वाला वोट तीसरे को ट्रांसफर हो जाये। दिल्ली में आप की सत्ता में वापसी का रास्ता तभी खुलता है, जब कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़कर अपना जनाधार बढ़ाये। पिछले साल लोकसभा चुनावों में पस्त होने और आंध्र प्रदेश की सत्ता भी गंवा बैठने से पहले टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू भी खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कटु आलोचक रहे हैं, लेकिन वह भी बैठक में नहीं आये। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के शिकार नायडू बदली परिस्थितियों में भी कांग्रेस से क्यों दूर रहे—समझना जरूरी है। महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली शिवसेना ने हालांकि संदेश न मिलने को बैठक में अनुपस्थिति का कारण बताया है, लेकिन कांग्रेस को यह समझना होगा कि सावरकर सरीखे मुद्दों पर अवांछित टिप्पणियों से अपने ही मित्र दल की मुश्किलें बढ़ाना दूरदर्शी राजनीति नहीं है। द्रमुक की नाराजगी भी तमिलनाडु के कुछ कांग्रेसी नेताओं के व्यवहार को लेकर है। जाहिर है,कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी तो बनना चाहती है, पर वैसा परिपक्व आचरण-व्यवहार नहीं कर पा रही जबकि वह खुद अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।
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