दूसरी हरितक्रांति की आवश्यकता
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भूमिका - आज हमारे देश में कृषि की पैदावार और उसके विभिन्न प्रकार के अनुरक्षण तथा विकास आदि के लिए अनेक वैज्ञानिक शोध, विश्लेक्षणो और तकनीकी परिवर्तनों आदि पर सरकार द्वारा गंभीरता से ध्यान दिया जा रहा है ताकि हमारे देश में कृषि उत्पादन में और अधिक सुधार के साथ, उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि तथा फ़सल को किस तरह सुरक्षित रखा जाये जिससे देश में लोगो के लिए खाद्यान्न की कमी न हो और इस क्षेत्र में मज़बूत स्थिति बन सके । आज हमारे देश में कृषकों की स्थिति ज्यादा बद्तर और खस्ता हो गयी है, इसके कारण कई है जिनसे उनके जीवन-यापन में गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो रही है, और जिससे वे अपनी जान देकर आत्महत्या जैसे घोर जघन्य और घृणित कार्य कर रहें है । आज महंगाई दिनों दिन बढती जा रही है आम आदमी के लिए अपनी प्राथमिक ज़रूरतों की पूर्ती करना मुश्किल होता जा रहा है । कोई नहीं जानता की इस बढती महंगाई से कब छुटकारा मिलेगा। चाहे चीनी हो दाल हो या सब्जी की कीमत आसमान छु रही है । लेकिन समस्या को देख कर चिल्लाते रहने से समस्या का खात्मा हरगिज़ नहीं हो सकता, ज़रुरत है समस्या के समाधान की । दरअसल चीज़ों के दाम मांग और आपूर्ति पर टिके होते हैं । अगर आपूर्ति कम है तो चीज़ों के दाम में भी तेज़ी से बढ़ोतरी होगी । अब देश के भविष्य की चिंता करते हुए दूसरी हरित क्रांति को बढ़ावा देकर अधिक से अधिक अनाज की पैदावार की जानी चाहिए, जिससे मंहगाई पर अंकुश हो तथा गरीब अपनी भूख की अग्नि को कम से कम पैसा लगा के शांत कर सके। अतः इस बात की आवश्यकता है कि कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत सुधारों को अधिक कारगर ढंग से लागू कर कृषि क्षेत्र का और अधिक विकास किया जाये और किसानों को उनकी मेहनत के हिसाब से कीमत मिल सके और वे सम्मान से अपनी जिंदगी जी सके और देश की सवा अरब आबादी की अन्न की व्यवस्था में अपना योगदान दे सके। जो देश की आर्थिक व्यवस्था को ज्यादा मज़बूती प्रदान कर देश को ज्यादा आत्म संबल बना सके । इसलिए आज हमारे देश में दूसरी हरित क्रांति के लिए जोरदार पहल की शुरुआत के लिए प्रयास किये जा रहे है, जो बढ़ती जनसँख्या की दृष्टी से आज की महती आवश्यकता है, जिससे कृषि क्षेत्र में परंपरागत तरीके के अलावा आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों और सरकार की कृषि नीतियों में जरूरी परिवर्तनो से ही संभव हो सकता है ।
देश में वर्ष १९६७ के बाद प्रथम हरित क्रांति काल में कृषि के क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है। कुल कृषि क्षेत्र बढ़ा है, फ़सल के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है, सिंचित क्षेत्र बढ़ा है, रासायनिक खादों के उपयोग में वृद्धि हुई है तथा आधुनिक कृषि यन्त्रों का उपयोग होने लगा है। इन सब बातों के होते हुये भी अभी तक देश में कृषि का विकास उचित स्तर तक नहीं पहुँच पाया है, क्योंकि यहाँ प्रति हेक्टेअर कृषि उत्पादन अन्य विकसित देशों की तुलना में कम है। अभी अनेक कृषि उत्पादों का आयात करना पडता है। क्योंकि उनका उत्पादन मांग की तुलना में कम है। कृषि क्षेत्र का अभी भी एक बढ़ा भाग असिंचित है। कृषि में यन्त्रीकरण का स्तर अभी भी कम है, जिससे उत्पादन लागत अधिक आती है। कृषकों को विभागीय सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलती हैं, जिससे कृषि विकास में बाधा उत्पन्न होती है। अतः इस बात की आवश्यकता है कि कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत सुधारों को अधिक कारगर ढंग से लागू कर कृषि क्षेत्र का और अधिक विकास किया जाये।
प्रथम हरित क्रांति का स्वरुप -
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इसके पहले की हम दूसरी हरित क्रांति पर विचार करें उससे पहले पहली हरित क्रांति को भी संक्षिप्त में जानना आवश्यक है । सन् १९४०-६० के मध्य कृषि क्षेत्र में हुए शोध विकास, तकनीकि परिवर्तन एवं अन्य कदमों की श्रृंखला को संदर्भित करता है जिसके परिणाम स्वरूप पूरे विश्व में कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसने हरित क्रांति के पिता कहे जाने वाले नौरमन बोरलोग(नोबल पुरस्कार विजेता, जिन्होंने दुनिया की खाद्य समस्या को हल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया) के नेतृत्व में संपूर्ण विश्व तथा खासकर विकासशील देशों को खादान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया। उच्च उत्पादक क्षमता वाले प्रसंसाधित बीजों का प्रयोग, आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल, सिंचाई की व्यवस्था, कृत्रिम खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग आदि के कारण संभव हुई इस क्रांति को लाखों लोगों की भुखमरी से रक्षा करने का श्रेय दिया जाता है। भारत में हरित क्रांति की शुरुआत सन १९६६-६७ से हुई। हरित क्रांन्ति से अभिप्राय देश के सिंचित एवं असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाले संकर तथा बौने बीजों के उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि करना था । भारत में गेहूं की नई कि़स्म के 18 हजार टन बीज आयात किए, कृषि क्षेत्र में जरूरी सुधार किए, कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से किसानों को जानकारी उपलब्ध कराई, सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं और कुंए खुदवाए। किसानों को दामों की गारंटी दी और देखते ही देखते भारत अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा करने लगा ।
हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप उत्पादन बढ़ा और खाद्यान्नों मे आत्मनिर्भरता आई। व्यवसायिक कृषि से कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। गेहूँ, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फ़सलों के प्रति हेक्टेअर उत्पादन एवं कुल उत्पादकता में काफ़ी वृद्धि हुई । इस विकास को कृषि में तकनीकि एवं संस्थागत सुधार रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, उन्नतशील बीजों के प्रयोग में वृद्धि, देश में सिंचाई सुविधाओं का तेजी के साथ विस्तार, पौध संरक्षण आदि के रूप में देखा जा सकता है। बहुफ़सली कार्यक्रम से एक ही भूमि पर वर्ष में एक से अधिक फ़सल उगाकर, अन्य शब्दों में भूमि की उर्वरता शक्ति को नष्ट किये बिना, अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया गया। इसके साथ ही आधुनिक कृषि उपकरणों, जैसे- ट्रैक्टर, थ्रेसर, हार्वेस्टर, बुलडोजर तथा डीजल एवं बिजली के पम्पसेटों आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिससे कृषि क्षेत्र के उपयोग एवं उत्पादकता में वृद्धि हुई। कृषकों में व्यवसायिक साहस की क्षमता के उद्देश्य से देश में तकनीकि प्रशिक्षण के लिए कृषि सेवा केन्द्र स्थापित करने की योजना लागू की गई। सरकारी नीति के अन्तर्गत कृषि उद्योग निगमों की स्थापना की गई जिसने कृषि उपकरणों व मशीनरी की पूर्ति तथा उपज प्रसंस्करण एवं भण्डारण को प्रोत्साहन दिया । विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय बीज परियोजना भी प्रारम्भ की गई, इसके तहत कृषि फार्म तथा राष्ट्रीय बीज निगम, राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य कृषि उपज का विपणन, प्रसंस्करण एवं भण्डारण करना था। मृदा परीक्षण व भूमि संरक्षण कार्यक्रम से रासायनिक खादों एवं उत्तम बीजों के प्रयोग की सलाह से मिट्टी का परीक्षण व कृषि योग्य भूमि को क्षरण से रोकने तथा ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाकर कृषि योग्य बनाया गया। सरकार की कृषि नीति के अन्तर्गत उच्च शिक्षा के लिये 4 कृषि विश्वविद्यालय, 39 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और इम्फाल में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 53 केन्द्रीय संस्थान, 32 राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, 12 परियोजना निदाशाल 64 अखिल भारतीय समन्वय अनुसन्धान परियोजनायें, 527 कृषि विज्ञान केन्द्र हैं, जो शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। कृषि शिक्षा एवं प्रशिक्षण की गुणवत्ता बनाये रखने के लिये विभिन्न संस्थाओं के कम्प्यूटरीकरण और इन्टरनेट की सुविधा प्रदान की गई। हरित क्रान्ति का सबसे बड़ा लाभ विशेषकर गेहूँ, बाजरा, धान, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई। 2008-2009 तक खाद्यान्न और व्यवसायिक दृष्टि से खेती में 1951-1952 के मुकाबले देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन और प्रति हेक्टेअर उत्पादकता में भी पर्याप्त सुधार हुआ। इसी तरह पटसन, गन्ना, आलू तथा मूंगफली आदि व्यवसायिक फ़सलों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई। वर्तमान समय में देश में बाग़बानी फ़सलों, फलों, सब्जियों तथा फूलों की खेती को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। हाँ, भारत मे बुरे मौसम आदि के कारण खाद्यान्न उत्पादनों में कुछ व्यवधान भी हुआ, जो यह सिद्ध करता है कि देश में कृषि उत्पादन अभी भी मौसम पर निर्भर करता है।
दूसरी हरित क्रांति और नयी राष्ट्रीय कृषि नीति -
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केन्द्र सरकार ने 'नयी राष्ट्रीय कृषि नीति' की घोषणा 28 जुलाई, 2000 को की थी। इस नीति में सरकार ने 2020 तक कृषि के क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य रखा है। नयी कृषि नीति का वर्णन 'इन्द्रधनुष क्रान्ति' के रूप में किया गया है, जैसे- 'हरित क्रान्ति' (खाद्यान्न उत्पादन), 'श्वेत क्रांति' (दुग्ध उत्पादन), 'पीली क्रांति' (तिलहन उत्पादन), 'नीली क्रांति' (मत्स्य उत्पादन), 'लाल क्रांति' (मांस/टमाटर उत्पादन), 'सुनहरी क्रांति' (सेब उत्पादन), 'भूरी क्रांति' (उर्वरक उत्पादन), 'ब्राउन क्रांति' (गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोत), 'रजत क्रांति' (अण्डे/मुर्गी) एवं 'खाद्यान्न श्रंखला क्रंति' (खाद्यान्न/सब्जी/फलों को सड़ने से बचाना) को एक साथ लेकर चलना होगा, इसी को 'इन्द्रधनुषी क्रान्ति' कहा गया। कृषि प्रधान देश भारत में राष्ट्रीय आय का पचास प्रतिशत भाग कृषि पर आधारित हैं। स्वतंत्र भारत की पंचवर्षीय योजनाओं की पूर्ति के लिए विदेशों से कुछ लेना पड़ा और कुछ देना भी पड़ा। कृषि से हमें खाद्यान्न की प्राप्ति हेतु अन्य उद्द्योगों के कच्चे माल का भी उत्पादन बढ़ाना पड़ा। कच्चा माल विदेशों को भेजा गया और उसके बदले में अन्य वस्तुएँ प्राप्त की। फलतः खाद्यान्न के उत्पादन में कमी आने लगी। उत्पादन बढ़ाने के प्रयास किए गए किन्तु कुछ सफलता मिली। विशाल संख्या वाले देश मे प्रति वर्ष दो प्रतिशत की वृध्दि भी वर्तमान खाद्य संकट का दूसरा मुख्य कारण है। धरा वही,उत्पादन वही,पर खाने वालों की संख्या प्रति वर्ष बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में खाध्यान्न की पूर्ति के लिए हमें विदेशों से सहायता लेनी पड़ती है। खाध्यान्न संकट का तीसरा कारण हमारे देश पर दैवी प्रकोप है। कोई वर्ष ऐसा नही जाता जब हरी भरी लाखों एकड़ फसल बाढ़ का ग्रास न बन जाती हो। यदि एक प्रान्त में बाढ़ है, तो दूसरा सूखे से प्रभावित है। कहीं वर्षा है,तो कहीं ओले और कहीं फसल को नष्ट करने वाले कीटानुओं की भरमार। खाध्यान्न संकट का प्रमुख कारण भारतीयों का नैतिक पतन और उसमें राष्ट्रीयता का अभाव है। इनमें सामाजिक लाभ व राष्ट्र हित की भावना का नितान्त अभाव है। फलतः मार्केट में कोई भी वस्तु उचित मूल्य पर प्राप्त नहीं हो सकती। वर्तमान खाध्य स्थिति की इस गम्भीरता का दायित्व मुनाफाखोर व काला बाज़ार में माल बेचने वाले वर्ग पर जाता है। देश में अन्न का अभाव कर देना अकाल की स्थिति बना देना, भावों का चढ़ा देना आदि इनके बायें हाथ का खेल है। भारत सरकार ने खाद्द्यान्न संकट को दूर करने और ऐसे भ्रष्ट लोगों से देश की जनता को बचाने के लिए उत्पादन बढ़ाने के प्रयास किए हैं। सिंचाई के लिए नहरें,नलकूपों की तथा कृषकों को रासायनिक खाद व सरकारी भण्डारों से अच्छे बीज देने की व्यवस्था की गई है।आज नई कृषि क्रांति की जरुरत है, जिससे खाद्द्यान्न व्यवस्था पूर्ण हो सके ।
दूसरी हरित क्रांति का शुभारंभ -
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भारत में अक्सर यह सुना जाता है कि अब दूसरी हरित क्रांति लाने का समय आ गया है। यह एकदम भ्रामक बात है, क्योंकि कृषि में अगला कदम 1960 के दशक के मध्य में हुई हरित क्रांति के मुकाबले कहीं ज्यादा जटिल, खर्चीला और समय लेने वाला होगा । हरित क्रांति की शुरुआत अपेक्षाकृत आसान थी, यह सिंचाई, ग्रामीण बिजली और सड़कों के मामले में पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश के पहले से ही उन्नत जिलों और दक्षिण-पूर्व के तटीय क्षेत्रों में फैली । इसके अलावा पश्चिमोत्तर में खेतों की चकबंदी के कारण बिजली से चलने वाले निजी ट्यूबवेलों की मांग तेजी से बढ़ रही थी। सरकार की इन सफलताओं के बावजूद इतने गरीब और कुपोषित लोग क्यों हैं? 1980 के आसपास पहली बार खतरे की घंटी सुनी गई । सड़कें और बिजली की कमी से विकास बाधित होने लगा । सरकारी निवेश के अभाव और खर्च जारी रहने से बिजली की आपूर्ति घटने लगी और सड़कों की दशा खराब हो गई। 1980 और 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों में कृषि के क्षेत्र में सरकारी निवेश और उससे जुड़ा खर्च कम हो गया, जिसकी वजह से कृषि का विकास थम गया। संभावित और वास्तविक सिंचाई के बीच का अंतर 1984-85 के 70 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2008-09 में 1.40 करोड़ हेक्टेयर तक पहुंच गया। हरित क्रांति की खामियां अभी तक चिंता का विषय बनी हुई हैं, जैसे कि रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित इस्तेमाल, कीटनाशकों का दुरुपयोग, और ऐसे सिंचित ६०% जल की बर्बादी, जिसे बचाया जा सकता था । इसके अलावा 30 फीसदी फल और सब्जियों की बर्बादी, समुचित मार्केटिंग का न होना और शीतभंडारों की कमी भी चिंता का विषय हैं । वर्ष 2004 में सरकार का ध्यान किसानों की ओर गया, जिसके बाद उत्पादन बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए गए, लेकिन काम बहुत जटिल, ज्यादा और खर्चीले थे. लक्ष्य यह था कि कीमतें घटाने में मदद की जाए। हमारे देश में वर्ष 2010-11 में अन्न का रेकॉर्ड 241 मिलियन टन उत्पादन हुआ, लेकिन भविष्य में अन्न की बढती मांग देखते हुए खाद्य क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए दूसरी हरित क्रांति की ज़रूरत है । महत्वपूर्ण फसलों का उत्पादन बीते वर्ष में रेकार्ड स्तर तक पहुँच गया है, गेहूँ, मक्का औऱ दालों के बेहतर उत्पादन का उत्पादन हुआ, साथ ही तिलहन उत्पादन में भी रेकार्ड वृद्धि हुई है, जो किसानों औऱ वैज्ञानिकों के प्रयासों की वजह से ही ये संभव हो पाया है । वर्ष 2020-21 तक भारत को 281 मिलियन टन अनाज की ज़रूरत होगी औऱ इसके लिए भारत को कृषि क्षेत्र में उत्पादन को दो फ़ीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से और बढ़ाना होगा । दूसरी हरित क्रांति के लिए हमें चार जरूरी कारक चाहिए- हमें ऐसी टेक्नॉलाजी चाहिए जो उपज में कई गुना ज्यादा वृद्धि कर सके। हमें बेहतर सुविधाएं चाहिए, जैसे कि बिजली, सड़क आदि। पहली हरित क्रांति से अनाज के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ और हमारे गोदामों के पेट भरे। यह सच है आज भारतीय किसान से ज्यादा परावलम्बी दूसरा कोई नहीं है। वह जमीन, पानी, बीज, खाद से लेकर बिजली, कीटनाशक, दूसरी रासायनिक दवाएं, बाजार जाने के परिवहन तक के लिए दूसरों का मोहताज है। नयी हरित क्रांति का नया सूत्र है - स्वावलम्बी खेती : स्वावलम्बन के लिए खेती! पहली हरित क्रांति ने इसकी जड़ पर ही प्रहार किया था, दूसरी हरित क्रांति इसे जड़ समेत बचाएगी।
मनरेगा से दूसरी हरित क्रांति -
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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का इस्तेमाल किए जाने से भारत में दूसरी हरित क्रांति लाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। मनरेगा कानून के लागू होने से मनरेगा में कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करने की जबर्दस्त क्षमता है जिसका कि हमने आज की तारीख में पूरी तरह दोहन नहीं किया है। इसमें बहुत सारी संभावनाएं हैं। इसमें न सिर्फ गांवों में सामुदायिक संपत्ति बढ़ाने की संभावना है बल्कि इसमें लघु व मध्यम किसानों को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने, भूमि विकसित करने और कृषि को बढ़ावा देने की भी बहुत संभावना है। कृषि में आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को जोड़ कर किसानों की उपज को गई गुना बढ़ाया जा सकता है। इस योजना को और ज्यादा कारगर बनाने के लये व उचित ढंग से लागू करने की दिशा में आ रही चुनौतियों में अक्सर भ्रष्टाचार और योजना के लिए आवंटित धन का गलत तरीके से इस्तेमाल तथा सरकार सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के आधुनिक साधनों के जरिए इसकी कमियों को कम करने के लिए कदम तथा समय पर और नियमों के मुताबिक सोशल ऑडिट होना जरूरी है। राष्ट्रीय स्तर पर मनरेगा योजना में महिलाओं की भागीदारी हालांकि पुरुषों के लगभग बराबर है लेकिन अभी भी कई राज्य हैं जहां या तो सूचना के अभाव या कार्यस्थलों पर सुविधाओं के अभाव के चलते महिलाएं भागीदारी करने में सक्षम नहीं हो रही हैं। वामपंथी आतंकवाद से प्रभावित जिलों में यह योजना सशक्तिकरण का एक शक्तिशाली माध्यम बन गई है। लोगों को सीधा आर्थिक फायदा पहुंचाने के अलावा इस योजना ने हमको बहुत से अप्रत्यक्ष लाभ भी दिए हैं। मनरेगा योजना का लक्ष्य केवल उत्पादन में वृद्धि करना नहीं, बल्कि इसमें खाद्यान्न सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, कृषि विकास का समावेषी मानवीय आधार, महिलाओं की व्यापक भागीदरी, किसानों की आमदनी में वृद्धि, रोजगार के सृजन तथा मजदूरों के पलायन पर रोक और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व उपयोग को शामिल किया गया है । भारत में दूसरी हरित क्रांति संभव है, लेकिन यह पूरी खेती प्रणाली पर विचार, एकीकृत दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए । इसमें कोई शक नहीं कि दूसरी हरित क्रांति के हमारे सपने को पूरा करने में मनरेगा एक बड़ी भूमिका निभा सकती है।
उपसंहार -
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सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून लाया है। जाहिर है इसके लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होगी इसलिए दूसरी हरित क्रांति को लागू किए जाने पर जोर दिया जा रहा है। 2020-21 तक भारत को 28.1 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी और इसके लिए भारत को कृषि क्षेत्र में उत्पादन को दो फीसद प्रतिवर्ष के हिसाब से और बढ़ाना होगा। कृषि विकास की महत्वाकांक्षी पंचवर्षीय कृषि रोडमैप योजना को देश के सभी राज्यों को अपनाना चाहिए। कृषि उत्पादन और विकास के लिए एक संपूर्णतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कृषि रोडमैप बनाया है। प्रथम हरित क्रांति में जो कृषि के प्रतिकूल प्रभाव पड़े थे उसे ध्यान में रखते हुए सरकार ने बेहतर इंद्रधनुषी क्रांति का विकल्प चुना है। इसके अलग से बजटीय प्रावधान किया गया। राष्ट्रीय किसान आयोग ने कृषि ऋण समस्या के साथ देश की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिए त्वरित गति देने पर जोर दिया है। देश में सहकारी व्यवस्था को मजबूत करना जरूरी हो गया है ताकि किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य मिल सके। देश की खाद्यान्न उत्पादकता को बढ़ाने के लिए सरकार ने सात राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दो साल पहले पूर्वी भारत में ब्रिंगिंग ग्रीन रिवोल्यूशन इन ईस्टर्न इंडिया बीजीआरईआई कार्यक्रम शुरू किया था। पहली हरित क्रांति के दौरान देश में पैदा होने वाले करीब 370 तरह के प्रचलित अनाजों की उपेक्षा की गई जिससे उनका उत्पादन और उपलब्धता पर असर पड़ा। इससे खेती की तकनीकें और फसल चक्र भी टूटा और पोषण की असुरक्षा भी बढ़ी है। मौजूदा सरकारी भंडारण नीति के तहत केवल गेहूं और चावल की ही खरीद होती है जबकि ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी, रागी, चना, दलहन की खरीद नहीं की जाती। इससे पूरे देश में खाद्य सुरक्षा और खाद्य संस्कृति दोनों को गहरा नुकसान पहुंचा है।
नई हरित क्रांति की दिशा में कुछ गंभीर प्रयास जरूरी है। आने वाले दस वर्षों के लिए कृषि भूमि एवं कृषक को प्राथमिकता पर रखना पड़ेगा, क्योंकि अबी तक ऐसा कुछ भी ठोस कदम अब तक नजर नहीं आया है। हम अपनी जैविक खेती को अपनाकर बढ़ सकते हैं। इस हरित क्रांति के लिए बीजों की उन्नत प्रणाली पर शोध भी एक गंभीर मुद्दा है। वैश्विक तापमान में वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में यदि फसल चक्र बदला, जिसकी पूरी संभावना है, तब क्या पद्धति एवं उपाय होंगे जो कृषि भूमि एवं कृषक के हितों का संरक्षण करेंगे। हाल के कुछ वर्षों में भारत में कहा गया कि प्रथम हरित क्रांति से फसलों की विविधता पर असर पड़ा है और एग्रो कैमिकल्स पर निर्भरता भी काफी बढ़ी है, जिनसे जमीन में जहर घुल जाता है और जिसका फायदा अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनिया ले रही हैं। ऑर्गेनिक फार्मिंग की दीर्घकालिकता पर विश्व हर साल 8.2 करोड़ टन कैमिकल फर्टीलाइजर के जरिये पौधे के विकास के लिए जरूरी नाइट्रोजन की आपूर्ति करता है। अगर इस नाइट्रोजन के स्रोत को बदला जाए तो इसके लिए तीन अरब टन मवेशियों की खाद की जरूरत होगी। इसके लिए हमें मवेशियों की मौजूदा संख्या को छह गुना बढ़ाना होगा। इससे क्या समस्या पैदा हो सकती है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 2050 तक विश्व की जनसंख्या के दस अरब होने का अनुमान है, ऐसे में वैश्विक खाद्य उत्पादन को भी दोगुना करना होगा। अतः नई हरित क्रांति की दिशा में हमें भी सार्थक पहल की नितांत आवश्यकता है ।
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