08 August 2018
राज्यों के बजट से राजकोषीय घाटे में सुधार के संकेत
स्रोत: द्वारा ए के भट्टाचार्य: बिज़नेस स्टैण्डर्ड
देश के 29 राज्यों की तरफ से इस साल पेश किए गए बजट का समेकित आकार केंद्रीय बजट की तुलना में 37 फीसदी अधिक है। वित्त वर्ष 2018-19 के लिए केंद्र के 24.42 लाख करोड़ रुपये के बजट की तुलना में राज्यों के बजट का आकार करीब 33.59 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। महज सात साल पहले 2011-12 में केंद्रीय बजट का आकार राज्यों के बजट से काफी अधिक था। लेकिन उसके बाद से राज्यों के बजट में बढ़ोतरी होती रही। पिछले साल राज्यों के बजट का आकार 36 फीसदी अधिक था जबकि मोदी सरकार के पहले साल 2014-15 में राज्यों का बजट आकार केंद्र से 16 फीसदी अधिक था। पिछले सात वित्त वर्षों में राज्यों के बजट में 161 फीसदी की जबरदस्त उछाल आई है। लेकिन राज्यों के वित्तीय संसाधन जुटाने और खर्च करने के तरीकों के बारे में बहुत कम विश्लेषण हुए हैं। इसकी एक वजह यह है कि राज्यों का बजट पेश करने का कोई मानकीकृत स्वरूप नहीं होने से तुलनात्मक आंकड़े नहीं मिल पाते हैं।
पिछले कई वर्षों से भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) राज्यों के बजट का सालाना अध्ययन करता रहा है। आरबीआई ने 2017-18 के संशोधित बजट अनुमानों के अलावा 2018-19 के बजट में दर्ज आंकड़ों को भी शामिल किया है। यह एक बड़ा कदम है और राज्यों के बजट के बारे में सामयिक आंकड़े मुहैया कराने में मददगार होगा। ऐसा होने से राज्यों के बजट के बारे में तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सकेगा। अब हमें केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर कुल सरकारी घाटे के बारे में सटीक अनुमान के लिए एक या दो साल का इंतजार नहीं करना होगा।
राज्यों एवं केंद्र का सम्मिलित राजकोषीय घाटा वर्ष 2014-15 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.7 फीसदी तक पहुंच गया और अगले दो वर्षों में यह सात फीसदी भी हो गया। इसकी वजह यह थी कि इस दौरान केंद्र का घाटा कम होने के बावजूद राज्यों का बजट घाटा बढ़ा था। लेकिन यह रुझान बदल रहा है। केंद्र एवं राज्यों दोनों के राजकोषीय घाटे में अब गिरावट के आसार हैं। पहले ही कुल सरकारी घाटा 6.6 फीसदी पर आ चुका है और मौजूदा वित्त वर्ष में इसके 5.9 फीसदी पर आ जाने की संभावना है। हालांकि शिथिलता बरतने की कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन इस तरह के आंकड़ों की उपलब्धता होने से अधिक सूचनापरक बहस एवं सार्वजनिक वित्त की बेहतर समीक्षा हो सकेगी।
हाल के आरबीआई अध्ययन से इस तरह की कई बजटीय प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। लेकिन पिछले साल और मौजूदा साल के राज्यों के बजट से तीन प्रमुख निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, वर्ष 2017-18 में राज्यों का कुल सकल राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.1 फीसदी रहा जो लगातार तीसरे साल तीन फीसदी के विवेकपूर्ण स्तर से अधिक था। विशेष दर्जे वाले राज्यों (पूर्वोत्तर के आठ राज्य, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड) का राजकोषीय घाटा 6.6 फीसदी पर रहना चिंता का विषय होना चाहिए। राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा इसी के चलते तीन फीसदी के विवेकपूर्ण स्तर से ऊपर पहुंचा है। दूसरी तरफ सामान्य दर्जे वाले राज्य 2.9 फीसदी के स्तर पर ही रहे हैं।
हालांकि 2018-19 के राज्यों के बजट बताते हैं कि राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर स्थिति बेहतर हुई है। इन 29 राज्यों ने सम्मिलित राजकोषीय घाटा जीडीपी का 2.9 फीसदी रहने का अनुमान रखा है। विशेष दर्जे वाले राज्यों ने भी केवल 3.4 फीसदी रिकवरी का ही लक्ष्य रखा है जबकि सामान्य राज्यों ने 2.6 फीसदी का बजट घाटा रहने की बात कही है। लेकिन ये आंकड़े किस हद तक विश्वसनीय हैं? आरबीआई के अध्ययन का दूसरा निष्कर्ष यही है कि घाटों के अनुमान और उनके वास्तविक स्तर में परेशान करने वाला फासला है। विशेषकर, 2014-15 और 2017-18 की अवधि में राजकोषीय घाटे का कम अनुमान लगाया गया जिससे राजकोषीय फिसलन की स्थिति बनी। यह अध्ययन अन्य चिंताजनक मुद्दों की तरफ भी ध्यान आकर्षित करता है। बजट राजस्व घाटे ने पहले भी अनुमानित स्तर को पीछे छोड़ा है और 2016-17 के बाद से आई फिसलन व्यय गुणवत्ता में आए ह्रास और पूंजीगत व्यय के बरक्स राजस्व के अनुपात में वृद्धि का इशारा करती है। राज्यों के लिए निहायत ही जरूरी है कि वे सार्वजनिक वित्त प्रबंधन में विवेकपूर्ण तरीके अपनाएं।
तीसरा और अंतिम निष्कर्ष वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के क्रियान्वयन एवं राज्यों के राजस्व पर उसके दीर्घावधि असर से संबंधित है। वर्ष 2017-18 में राज्यों का अपना कर राजस्व जीडीपी का 6.6 फीसदी रहना था लेकिन संशोधित अनुमानों के मुताबिक यह 6.3 फीसदी ही रहा। आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि जीएसटी के तहत रिफंड के मामलों का लंबित रहना इसकी वजह हो सकती है। सभी राज्यों ने जीएसटी संबंधी समस्त आंकड़े मुहैया भी नहीं कराए हैं जिससे राज्यों के राजस्व पर इस नई कर प्रणाली के पूरे असर का अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। इस बारे में असली तस्वीर तो 2018-19 के आंकड़ों से ही साफ हो पाएगी।
वैसे जीएसटी के संभावित लाभों को नकारने में दो कारक हो सकते हैं: चालू वित्त वर्ष में वेतन आयोग की विभिन्न अनुशंसाओं को चरणबद्ध तरीके से लागू करना और कई राज्यों में किसानों की कर्ज माफी के लिए योजनाओं को लाना। राज्यों के कुल राजस्व में वेतन एवं भत्तों के मद में होने वाले व्यय की हिस्सेदारी पहले ही 19.1 फीसदी से लेकर 54.6 फीसदी तक है जबकि 13वें वित्त आयोग ने इसके लिए 35 फीसदी की उच्चतम सीमा तय की है। इसके अलावा कई राज्यों में किसानों के कर्ज माफ करने से पिछले साल जीडीपी में 0.27 फीसदी का ह्रास हुआ था और इस साल भी इसके 0.2 फीसदी रहने का अनुमान है। अगर जीएसटी के लाभों को बनाए रखना है और राजकोषीय घाटे में कमी के लक्ष्य को हासिल करना है तो राज्यों को वेतन व्यय और कृषि कर्ज माफी व्यय पर पैनी नजर रखनी होगी।
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