एक देश,एक साथ चुनाव
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लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सलाह लंबे समय से दी जाती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार को गंभीरता से आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सलाह लंबे समय से दी जाती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार को गंभीरता से आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। इस सिलसिले में नीति आयोग, विधि आयोग और इस मामले से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने भी विचार किया है। अभी विधि आयोग ने सरकार को अपनी सिफारिशें भेजने से पहले विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ तीन दिवसीय चर्चा शुरू की। इसमें कुछ दलों ने देश भर में एक साथ चुनाव कराने पर सहमति जताई, जबकि ज्यादातर दलों ने इसे असंभव और अव्यावहारिक विचार बताया। जाहिर है, इस पर आम राय नहीं बनने से इस विचार को अमली जामा पहनाना संभव नहीं होगा। दरअसल, देश भर में एक साथ चुनाव कराने पर इसलिए बल दिया जा रहा है कि इससे चुनावों पर होने वाला खर्च कम होगा और निरंतर चलने वाली चुनाव प्रक्रिया से निर्वाचन आयोग, राजनीतिक दलों, प्रशासनिक अधिकारियों आदि को राहत मिलेगी। इसके साथ विकास कार्यों में बार-बार पैदा होने वाले गतिरोध से मुक्ति मिलेगी। मगर व्यावहारिक स्तर पर ऐसा करा पाना बहुत कठिन है।
नीति आयोग ने सुझाव दिया था कि देश भर में चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए। इसके लिए कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार और कुछ के कार्यकाल में कटौती करने की जरूरत पड़ सकती है। मगर दिक्कत यह है कि जिन विधानसभाओं के कार्यकाल कुछ समय पहले ही शुरू हुए हैं, उन्हें फिर से नए चुनाव में धकेल देने से विवाद की गुंजाइश बनी रहेगी। इसलिए संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि आधी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराए जाएं और बाकी के लोकसभा की मध्यावधि में। यह सुझाव काफी हद तक व्यावहारिक माना जा रहा है। मगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में कई सैद्धांतिक और वैधानिक दिक्कतें भी हैं। विधानसभाओं के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, जिनमें लोग पार्टी के बजाय कई बार स्थानीय नेता या क्षेत्रीय दलों को उनके कामकाज के आधार पर तरजीह देते हैं। लोकसभा के साथ उनके चुनाव कराने से न सिर्फ लोगों के सामने भ्रम की स्थिति पैदा होगी, बल्कि इससे राज्यों के राजनीतिक अधिकारों में भी बाधा उत्पन्न होगी, जोकि संघीय ढांचे के अनुरूप नहीं होगा। फिर सबसे बड़ी अड़चन यह है कि देश भर में एक साथ चुनाव कराने को लेकर संविधान में कोई नियम नहीं है, इसलिए इसके लिए संविधान संशोधन करना होगा, जो कि मौजूदा स्थितियों में संभव नहीं लग रहा।
यह सही है कि अगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था बनती है तो चुनाव खर्च और भ्रष्टाचार में काफी हद तक कमी आएगी और प्रशासन को बेवजह परेशानियों से मुक्ति मिलेगी और वह विकास कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकेगा। पर यह इस बात की गारंटी नहीं है कि दोनों चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था कितने समय तक बनी रह पाएगी। किन्हीं स्थितियों में अगर लोकसभा या कोई विधानसभा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग हो जाती है, तो उसका मध्यावधि चुनाव लंबे समय तक टालना संभव नहीं होगा। 1967 के बाद के अनुभवों से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए फिलहाल चुनाव खर्च में कटौती के उपायों पर स्वतंत्र रूप से और गंभीरतापूर्वक विचार की जरूरत एक बार फिर रेखांकित होती है।
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