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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने बड़बोलेपन, बदमिजाजी तथा अप्रत्याशित आचरण के लिए विख्यात हो चुके हैं. इन गुणों की सूची में आप अहंकार तथा अज्ञान को भी जोड़ सकते हैं. इसीलिए उत्तरी कोरिया के तुनकमिजाज, सनकी वंशवादी तानाशाह किम जोंग-उन के साथ सिंगापुर में उनकी शिखर वार्ता के बारे में कुछ भी तर्कसंगत निष्कर्ष निकालना असंभव ही है.
जब से इस मुलाकात का प्रस्ताव उन्होंने सार्वजनिक बनाया, तभी से लालबुझक्कड़ी गरम है. क्या वास्तव में अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के दबाव में इस सुलह की पेशकश को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए हैं, या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति को छकाने का नायाब दांव किम ने लगाया है? सिंगापुर वाली मुलाकात से पहले ट्रंप ने अपनी चिरपरिचित मुद्रा में यह धौंसभरी धमकी दी कि अगर किम ने देर की, तो वह मुलाकात रद्द कर सकते हैं.
दूसरी तरफ किम ने यह संदेश दिया कि उन्हें अमेरिका की मदद की जरूरत नहीं. वह परमाणु शस्त्र संपन्न देश हैं, जो अपनी संप्रभुता की रक्षा बखूबी कर सकते हैं. पड़ोसी दक्षिणी कोरिया के वर्तमान राष्ट्रपति उत्तरी कोरिया से बेहतर रिश्तों की वकालत करते रहे हैं और किम की दक्षिणी यात्रा के बाद से यह संभावना बढ़ी है कि अब विभाजित रिश्तों में सामान्यीकरण की रफ्तार लगातार तेज होगी. इस भूभाग में तनाव का कारण आपसी विवाद नहीं, वरन् अमेरिकी सैनिकों की तैनाती ही है.
एक बात और ध्यान देने की है. उत्तरी कोरिया से सीधे संपर्क स्थापित कर ट्रंप ने यह दिखलाने की कोशिश की है कि वह किम के प्रमुख समर्थक-संरक्षक चीन को मध्यस्थ मानने को अनिवार्य नहीं समझते.
निश्चय ही यह घटनाक्रम चीन को रास आनेवाला नहीं. अब तक उत्तरी कोरिया को संयमित आचरण की सलाह देने की जिम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय समुदाय चीन को ही सौंपता रहा है. अमेरिका के इस उतावले राजनय से जापान तथा फिलीपींस का शंकित होना स्वाभाविक है, जो दुर्घटनावश भी उत्तरी कोरिया के एटमी हथियारों के शिकार बन सकते हैं.
वास्तव में ट्रंप तथा किम की वार्ता का विश्लेषण इन दो देशों के उभयपक्षीय संबंधों के संदर्भ में नहीं, बल्कि ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के विधिवत, सुनियोजित ध्वंस वाले अमेरिकी राजनय की पृष्ठभूमि में ही किया जाना चाहिए.
कुछ ही समय पहले ट्रंप ने चीन के खिलाफ सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगाये हैं. चीन ही नहीं भारत को भी यह चेतावनी दी जा चुकी है कि वह विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था के अनुसार आचरण नहीं कर रहा है, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ेगा. ट्रंप अपने को महानायक ही नहीं महामानव सामझते हैं. अपने अनुभवी सलाहकारों को दुतकारते हुए उन्होंने इस्राइल में अमेरिकी दूतावास को जेरुसलम में स्थानांतरित कर हिंसात्मक उपद्रवों का विस्फोट कराया जिसमें 60 से अधिक फिलिस्तीनी आंदोलनकारी मारे गये. इसी तरह पुतिन के साथ कभी गरम कभी नरम वाली अमेरिकी नीति सभी को असमंजस में डालती रही है.
अटलांटिक बिरादरी के अपने संधिमित्रों को भी वह सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. इसका सबसे ताजा उदाहरण जी-7 की बैठक है, जहां कनाडा के ट्रूडो को ट्रंप ने कमजोर और बेईमान कह डाला. फ्रांस के मैक्रों, जर्मनी की एंजेला मैर्केल तथा जापान के शिंजो एबे या ब्रिटेन की थेरेसा मे, किसी के साथ उनके संबंध मधुर नहीं रहे. ये सभी घोषणा कर चुके हैं कि अमेरिका की खुदगर्ज ‘प्रोटेक्शनिस्ट’ नीतियों का विरोध ईंट का जवाब पत्थर से वाली शैली में करेंगे.
ट्रंप कह चुके हैं कि वह पर्यावरण विषयक सर्वसहमति को स्वीकार नहीं करते. पेरिस सम्मेलन का समझौता निर्जीव हो गया है. ईरान के साथ ओबामा के शासनकाल में संपन्न परमाण्विक करार को भी वह रद्द कर चुके हैं.
मेरा मानना है कि इस घड़ी ट्रंप के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसी नाटकीय चमत्कारी सफलता को दर्ज करा अपनी नेतृत्व क्षमता के प्रदर्शन की है. उनके खिलाफ न्यायिक जांच हों या संवैधानिक व्यवस्था में सेंधमारी तथा भ्रष्टाचार के आरोप, वह अभी कटघरे से बाहर नहीं निकल पाये हैं.
रही बात किम की, सो उनके पास गंवाने को न साख है न लाख! ऐसे में अपनी छवि को मानवीय बनाने का इससे अच्छा मौका उन्हें क्या मिल सकता था भला? कुल मिलाकर ये दोनों महानुभाव मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशून्य और आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं, जिनके बारे में सार्थक टिप्पणी कोई मनोचिकत्सक ही कर सकता है, समाजशास्त्री नहीं!
हां, सिंगापुर इस बात का श्रेय ले सकता है कि वह सभी प्रकार के राजनयिकों-नेताओं को वार्ता स्थल के लिए आकर्षित कर सकता है. बिना किसी को नाराज किये. भारत के राष्ट्रहित इस मुलाकात की सफलता-असफलता से प्रभावित होनेवाले नहीं हैं.
ट्रंप अकेले ऐसे नेता नहीं, जिसने अपनी सनक या तानाशाही तुनकमिजाजी की जिद में अपने राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाने के साथ सुस्थिर विश्व व्यव्स्था को भी तहस-नहस कर दिया हो. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर का यहूदी वंशनाशक आचरण हो या सोवियत संघ में स्तालिन द्वारा बलात् साम्यवादी हठधर्मी को उपराष्ट्रवादी अल्पसंख्यकों पर थोपना, इसी के उदाहरण हैं.
साल 1950 में सत्ता ग्रहण करने के बाद माओ भी दानवाकार अधिनायक ही थे. खासकर महान सांस्कृतिक क्रांति के दौरान जिस रक्त रंजित उथल-पुथल का सूत्रपात उन्होंने किया, वह आज के ट्रंप की जैसी हरकत थी.
संक्षेप में, न तो माओ को पुराने साथी सोवियत संघ की चिंता थी, न ही अंतरराष्ट्रीय कानून या विश्व व्यवस्था की. यह नतीजा निकालना नादानी होगा कि ऐसे नेता अपवाद होते हैं या विकृत राजनीतिक प्रणाली में ही पैदा या असरदार होते हैं . ईराक में सद्दाम, सीरिया में असद या लीबिया में गद्दाफी को बदनाम करना आसान रहा, क्योंकि ये देश महाशक्तियां नहीं थे.
आज जब हम ट्रंप और किम की शिखर वार्ता की चर्चा कर रहे हैं, तो यह ध्यान रखना चाहिए कि किम के कांधे पर यदि चीन का वरदहस्त न होता तो उत्तर कोरिया कभी के घुटने टेक चुका होता. देखना यह है कि इस मुलाकात के बाद चीन की प्रतिक्रिया क्या रहती है? यह भी साफ है कि किम को अपना समकक्ष अपने जैसा नेता घोषित कर ट्रंप ने खुद अपना कद बौना किया है. चमत्कारी राजनयिक सफलता महंगी हीन साबित होगी .
सौजन्य – प्रभात खबर।
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