जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने का था पूरा प्लान, लेकिन टेस्ट में ही फट गया बम और...!
विष्णु शर्मा
एक ऐसा क्रांतिकारी भी दिया जो बमों से खेलते थे। मंजिल उसकी भी वही थी, फर्क सिर्फ ये था कि वो ना केवल बम बनाने का मास्टर था, बल्कि बम के दम पर देश को आजादी दिलाना चाहता था। इतना ही नहीं जब गांधीजी ने हिंसा का इस्तेमाल करने के खिलाफ ‘कल्ट ऑफ बम’ थ्यौरी दी, तो इस क्रांतिकारी ने भी जवाब में ‘फिलॉसफी ऑफ बम’ लिख डाली और वही फिलॉसफी उस दौर में चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, राजगुरु और अशफाक उल्ला खान जैसे देश भर के बड़े क्रांतिकारियों की संस्था हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन को चाहने वाले लाखों युवाओं की प्रेरणा का दस्तावेज बन गई।
नाम था भगवती चरण बोहरा, जितने क्रांतिकारी विचारों के थे भगवती, उससे एक कदम आगे थीं उनकी पत्नी दुर्गावती, जिन्हें सारे क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के नाम से जानते थे। गुजराती परिवार से ताल्लुक रखने वाले भगवती लाहौर में पैदा हुए थे। ग्यारह साल की थीं दुर्गा और उनकी शादी भगवती से कर दी गई। उस वक्त तक अपने गौरवशाली इतिहास के बारे में भारत में ज्यादा कोई नहीं जानता था। हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, अशोक के शिला या स्तंभ लेख, संगम कालीन इतिहास, गुप्तों का स्वर्ण युग, चोल, हर्ष, मौर्य, चाणक्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज की इंडिका, उपनिषद आदि पर विद्वानों के बीच चर्चा होना शुरू ही हुआ था। यहां तक कि भारतीय इतिहास को लोग राजाओं का इतिहास ही समझते थे। बुद्ध के समय गण और महाजनपद के बारे में भी आम जनता तब तक अनजान थी। ऐसे में वो सब एक गौरव के तौर पर बच्चों के बीच स्कूलों में, कॉलेजों में पढ़ाया नहीं जा रहा था, वैसे भी देश में उस वक्त अंग्रेजी एजुकेशन पर जोर था और अंग्रेजों से पहले मुगलों ने फारसी, इस्लामिक शिक्षा को बढ़ावा दे रखा था। ऐसे में देश के क्रांतिकारी प्रेरणा लेने के लिए रूस और फ्रांस की क्रांति के पुरोधाओं से, उनके सोशलिस्ट या कम्युनिस्ट विचारों से भी प्रेरित हो रहे थे। यहां तक कि नेपोलियन से हजारों साल पहले पैदा हुए समुद्रगुप्त की वीर गाथाओं के बारे में लोगों को पता चला तो इतहासकारों ने उन्हें भारत का नेपोलियन कहा, ना कि नेपोलियन को समुद्रगुप्त।
भगवती चरण बोहरा ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर रूसी सोशलिस्ट रिवोल्यूशन की तर्ज पर एक स्टडी सर्कल बनाया। भगवती चरण बोहरा पढ़ने लिखने वाले व्यक्ति थे, विचार जहां से मिलें, उनको पढ़ना, उसको जीवन में उतारना, साथियों से बांटना, चर्चा करना और कैसे समाज हित और देश हित में काम किया जाए, ये भगवती का काम था। ऐसे में 1926 में जब नौजवान भारत सभा बनी तो उसके प्रचार का काम भगवती के हवाले कर दिया गया, उसका मेनीफेस्टो भी भगवती ने बनाया। इसी तरह बिस्मिल, लाहिड़ी, अशफाक उल्ला और रोशन सिंह को काकोरी केस में फांसी के बाद 1928 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का जब चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के रूप में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में फिर से गठन हुआ तो भगवती को ही उसके प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। एचएसआरए के मेनीफेस्टो को भी भगवती ने ही आजाद के सहयोग से तैयार किया जो कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जमकर बांटा गया और पढ़ा गया। गांधीजी और उनकी अहिंसा की नीतियों में भरोसे के बावजूद तमाम कांग्रेसी नेता इन क्रांतिकारियों को काफी पसंद करते थे।
भगवती भगत सिंह से जुड़े तमाम क्रांतिकारी कार्यों से जुड़े हुए थे, चाहे वो जेपी सांडर्स की हत्या हो या फिर असेंबली में बम फेंकने की घटना, बटुकेश्वर दत्त के साथ केस में उनको भी पार्टी बनाया गया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की गिरफ्तारी के बाद लाहौर की बम फैक्ट्री पर रेड के दौरान सुखदेव, किशोरी लाल और जयदेव भी 1930 में गिरफ्तार हो गए। लाहौर में एचएसआर का एक धड़ा आतिशी चाकर के नाम से अलग होकर काम करने लगा, अब एचआरएसए की जिम्मेदारी आजाद, यशपाल, कैलाशपति और भगवती के सिर पर ही आ गई थी।
उन्हें क्रांतिकारियों का दिमाग माना जाता था, लेकिन एक और महारत उनके अंदर थी, बम बनाने की। 1929 में उन्होंने लाहौर की कश्मीर बिल्डिंग में रूम नंबर 69 किराए पर लिया और उसमें एक छोटी सी बम फैक्ट्री खड़ी कर दी। इरादा था भारत के ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन पर हमला करने के लिए बम बनाने का, इससे पहले 1912 में रास बिहारी बोस और विश्वास इस तरह का हमला वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग पर कर चुके थे। दिन चुना गया 23 दिसंबर 1929, लॉर्ड इरविन पर बम तब फेंका गया जब वो दिल्ली से आगरा के बीच ट्रेन में सवार था, किस्मत से गलत बोगी पर बम फेंकने से वो बच गया। उस वक्त वायसराय दिल्ली गांधीजी से ही मिलने स्पेशल ट्रेन से आ रहा था, धमाका इतना जबरदस्त था कि ट्रेन की दो बोगियां टूट कर अलग हो गईं।
नाकामयाबी से क्रांतिकारी पहले ही परेशान थे,उस पर गांधी ने एक बयान देकर उनको और परेशान कर दिया। गांधी ने भगवान को धन्यवाद दिया कि इरविन की जान बच गई, बयान देकर गांधीजी लाहौर चले गए। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में उन्होंने फिर एक बयान दिया, : “Freedom can never be attained by exploding bombs on an innocent man. I regard it as a most outrageous crime.” । क्रांतिकारियों को अंग्रेजी वायसराय को ‘इन्नोसेंट’ कहना काफी बुरा लगा। गांधी यहीं नहीं रुके, अधिवेशन के बाद जब अहमदाबाद पहुंचे तो अखबार यंग इंडिया के 2 जनवरी के एडीशन में एक आर्टीकल लिखा ‘कल्ट ऑफ बम’। जिसमें गांधी ने बम समेत तमाम हिंसावादी तरीकों की आलोचना की, उन्होंने बम जैसे तरीकों से मिली आजादी पर सवाल उठाए, ऐसे तरीकों को कायरतापूर्ण बताया। गांधी सबके लिए पूज्य थे, उन पर सीधे कोई सवाल नहीं उठाता था, लेकिन भगवती चरण बोहरा ने तथ्यों के आधार पर पहली बार गांधी को जवाब देने की ठान ही ली। चंद्रशेखर आजाद ने भी इस जवाब को तैयार करने में उनकी मदद की। उस लेख का नाम रखा गया ‘फिलॉसफी ऑफ बम’। हालांकि भगत सिंह के परिजनों ने ये भी कहा कि उस लेख को फायनल टच देने के लिए भगत सिंह के पास जेल भी भेजा गया था। उस जवाबी लेख के कुछ अंश आप यहां पढ़ सकते हैं, और जान सकते हैं कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ क्रांतिकारी युवाओं के तेवर और गांधी से नाराजगी भी—“ “No man, can claim to know a people’s mind by seeing them from the public platform and giving them Darshan and Updesh… Has Gandhi during recent years mixed in the social life of the masses? Has he sat with the peasant round the evening fire and tried to know what he thinks? Has he passed a single evening in the company of a factory labourer and shared with him his vows?” इस लेख के आखिरी पैराग्राफ में लिखा गया था, “There is no crime that Britain has not committed in India. Deliberate misrule has reduced us to paupers, has ‘bled us white’. As a race and a people we stand dishonoured and outraged. Do people still expect us to forget and to forgive? We shall have our revenge – a people’s righteous revenge on the tyrant. Let cowards fall back and cringe for compromise and peace. We ask not for mercy and we give no quarter. Ours is a war to the end – to Victory or Death”.
साफ जाहिर था कि उस वक्त के क्रांतिकारी कांग्रेसी तौर तरीकों को कायरता समझते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों ने भारत में अपना राज कायम करने के लिए तमाम क्रूर, अमानवीय और हिंसात्मक तरीके अपनाए हैं, तो उनके साथ दया का कोई सवाल ही नहीं है। हम भी दया नहीं मांगेंगे, लड़ेंगे या तो जीतेंगे या फिर मरेंगे। 25 साल के नौजवान ने गांधीजी की बम थ्यौरी का जोरदार जवाब दिया था। देश भर के युवाओं के बीच ‘फिलॉसफी ऑफ बम’ को लेकर काफी चर्चा हुई। सबसे दिलचस्प बात ये थी कि इस लेख ‘फिलॉसफी ऑफ बम’ के पम्फलेट छपवाए गए, और उनको साबरमती आश्रम के बाहर चिपका दिया गया ताकि गांधीजी तक भी पहुंच जाए उनकी बात। लेकिन गांधीजी ने कुछ सोचकर इसका कोई जवाब नहीं दिया और दांडी मार्च की तैयारियों में जुट गए। इधर युवाओं को ये भी लग रहा था कि पूरे देश ने गांधी से गाधी-इरविन पैक्ट में भगत सिंह की रिहाई की अपील की, लेकिन गांधीजी ने पैरोकारी से मना कर दिया। हालांकि ये पूरी तरह ना सच था और ना ही गलत। हालांकि गांधी-नेहरू के विरोध का खामियाजा इन क्रांतिकारियों को इस रूप में भी भुगतना पड़ा कि आज आपको भूले से भी भगवती चरण बोहरा का एक स्मारक या मूर्ति या किसी यूनीवर्सिटी में स्टडी चेयर शायद ही देखने को मिले, उनके नाम पर ना किसी योजना का नाम मिलेगा और ना ही किसी अवॉर्ड का।
खैर, जब प्रिवी काउंसिल में अपील भी खारिज हो गई, मदन मोहन मालवीय के अपील फाइल करने के भी भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी रुकने के कोई संकेत नहीं मिले तो गुस्से में भगवती चरण बोहरा ने एक बार फिर बम बनाने का फैसला किया और इस बार इरादा जेल तोड़कर भगत सिंह को छुड़ाने का था, 28 मई 1930 का दिन था। केवल 25 साल कुछ महीनों के थे उन दिनों भगवती चरण बोहरा। लाहौर में रावी के उसी तट पर उन्होंने उस बम को टेस्ट करने की योजना बनाई, जिस पर नेहरू ने पिछली साल दिसंबर में पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए तिरंगा फहराया था। वो बम अचानक फट गया और भगवती चरण बोहरा घायल हो गए और उनकी मौत हो गई। आजादी के मतवाले भगवती ने मरते वक्त कहा था, “काश मेरी मौत दो दिन और टल जाती तो मुझे बड़ी कामयाबी मिल जाती, तो मेरी ये ख्वाहिश अधूरी ना रहती।“ अपने पीछे वो पत्नी दुर्गा और बेटे सचिन्द्र को छोड़ गए। एचआरएसए की पूरी जिम्मेदारी अब चंद्रशेखर आजाद के सिर पर रह गई, वो भी इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए हमेशा आजाद रहने की जिद पर आखिरी गोली से खुद को मारकर भगत सिंह से ठीक 24 दिन पहले ही दुनिया को अलविदा कह गए।
भगवती चरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती तो क्रांतिकारियों के बीच उनसे भी ज्यादा मशहूर थीं, वो सारे क्रांतिकारियों की काफी मदद करती थीं। पति की मौत के वक्त भी वो अंग्रेज कमांडर हेली पर बम फेंकने के जुर्म में जेल में तीन साल की सजा काट रही थीं। सभी तरह के कार्यक्रमों में उनकी सक्रिय भूमिका रहती थी। जब जॉन पी सांडर्स को मारने के बाद लाहौर से भगत सिंह ने भागने की योजना बनाई तो दुर्गा भाभी की हिम्मत के चलते ही वो बच पाए।
सांडर्स कांड के दो दिन बाद सुखदेव दुर्गा भाभी के घर किसी सूटेड बूटेड युवक को लेकर पहुंचे और उसको अपना दोस्त बताया। जब दुर्गा नहीं पहचानीं, तब उन्हें बताया कि ये भगत सिंह हैं और पहचान छुपाने के लिए बाल काट दिए हैं। फिर वो लोग रेलवे स्टेशन पहुंचे। फर्स्ट क्लास की दो सीट्स पर भगत सिंह और उनकी पत्नी के रूप में दुर्गा और उनकी गोद में उनका बच्चा था। जबकि राजगुरू एक नौकर के रूप में उनका सामान उठाए हुए थे। जिसे थर्ड क्लास की टिकट दी गई। पहले कानपुर पहुंचे, फिर लखनऊ के लिए ट्रेन ली। वहां से हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़ी, राजगुरू बनारस में उतर गए। हावड़ा में सीआईडी सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेनों के मुसाफिरों पर नजर रखे हुए थी, इसलिए ये लोग बच गए। कुछ दिन हावड़ा में रहने के बाद अपने बच्चे के साथ दुर्गा भाभी भगत सिंह को सुरक्षित पहुंचा कर लौट आईं।
दुर्गा ने बाद में भगत सिंह का केस लड़ने में मदद करने के लिए अपने जेवर बेचकर तीन हजार रुपए भी क्रांतिकारियों को दिए थे, यहां तक कि भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद लॉर्ड हेली पर भी बम फेंक दिया था, वो तो बच गया लेकिन उसके साथी मर गए। दुर्गा भाभी को तीन साल की सजा भी हुई। छूटने के बाद भी, पति की मौत के बाद भी वो क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ी रहीं। देश आजाद होने के बाद उन्होंने गरीब बच्चों के लिए लखनऊ में स्कूल खोला और बाद में एक आम नागरिक की तरह गाजियाबाद में रहने लगीं। 15 अक्टूबर 1999 को 92 साल की उम्र में उनकी मौत हुई। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर गहरा प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी।
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