इंसान ने पृथ्वी पर रहने वाले अन्य प्राणियों का जीना मुहाल कर दिया है। वर्ल्ड वाइल्ड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और लंदन की जूलॉजिकल सोसायटी (ज़ेएसएल) द्वारा जारी रिपोर्ट ‘लिविंग प्लैनेट’ के मुताबिक 1970 से 2014 के बीच कशेरुकी (रीढ़ वाले) प्राणियों की 60 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी है। 2010 तक इनकी आबादी 48 प्रतिशत बची थी। जाहिर है, इनका तेजी से खात्मा हो रहा है और इसके लिए हम जिम्मेदार हैं
दुनिया भर के 59 विशेषज्ञों के समूह ने यह रिपोर्ट तैयार करने के लिए अपने अध्ययन में पक्षी, मछली, स्तनधारी, उभयचर और सरीसृप की अलग-अलग करीब चार हजार प्रजातियों को शामिल किया। स्टडी में पाया गया कि मनुष्य की आबादी पिछले पचास सालों में दोगुनी हुई है, जिसका असर पृथ्वी के अन्य जंतुओं पर पड़ रहा है। अफ्रीकी हाथी जैसी प्रजातियों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। पिछले दस साल में ही इनकी आबादी एक तिहाई कम हो गई है।
ताजे पानी में रहने वाले जीवों के लिए खतरा तेजी से बढ़ रहा है। नदियों और झीलों के प्रदूषण की वजह से 83 फीसद जलीय जीव खत्म हो चुके हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर इन्हें संरक्षित करने के लिए तत्काल जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो इनकी कई और जातियां विलुप्त हो जाएंगी, जिससे मनुष्य के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो जाएगा।
दुनिया भर के पर्यावरणवादी लगातार यह दोहराते रहते हैं कि जैव विविधता संकट में है, इसे बचाने की जरूरत है, पर हम पर्यावरण और परिवेश से संबंधित मामलों को महज एक अकादमिक बहस मानकर इनसे मुंह फेर लेते हैं, या इस पर सेमिनार, नुक्कड़ नाटक, मैराथन दौड़ आयोजित करके अपना कर्तव्य समाप्त मान लेते हैं। जबकि जैव विविधता के संरक्षण के लिए पूरी जीवन-पद्धति में बुनियादी बदलाव की जरूरत है। पर्यावरण से संबंधित जो कानून बने हैं, उनका सख्ती से पालन करना होगा। विकास योजनाओं का स्वरूप ऐसा रखना होगा, जिससे प्रकृति को कम से कम नुकसान हो।
पिछले कुछ समय से निर्माण उद्योग ने प्रकृति और पर्यावरण का सबसे ज्यादा कबाड़ा किया है। मनुष्य ने अपने रहने का तो इंतजाम कर लिया लेकिन पशु-पक्षियों को दरबदर कर दिया। शहरों का रहन-सहन ऐसा है कि गौरैया समेत कई पक्षी हमारे देखते-देखते ओझल हो गए। जाहिर है, सभ्यता के इस मोड़ पर ठहरकर सोचना होगा। मनुष्य इस पृथ्वी पर अकेले नहीं जी सकता। उसे प्राणि जगत की जरूरत है। पशुओं की प्रजातियों के खत्म होने से खाद्य श्रृंखला गड़बड़ा सकती है और दूसरे कई तरह के संकट पैदा हो सकते हैं। पशु-पक्षियों के प्राकृतिक निवास को बचाने के लिए जंगलों, नदियों और पहाड़ों का संरक्षण जरूरी है। विकास का जीडीपी-केंद्रित नजरिया इसके खिलाफ जाता है। तरक्की नापने का पैमाना हम वक्त रहते बदल सकें तो शायद कहीं कुछ उम्मीद बनती दिखे।
दुनिया भर के 59 विशेषज्ञों के समूह ने यह रिपोर्ट तैयार करने के लिए अपने अध्ययन में पक्षी, मछली, स्तनधारी, उभयचर और सरीसृप की अलग-अलग करीब चार हजार प्रजातियों को शामिल किया। स्टडी में पाया गया कि मनुष्य की आबादी पिछले पचास सालों में दोगुनी हुई है, जिसका असर पृथ्वी के अन्य जंतुओं पर पड़ रहा है। अफ्रीकी हाथी जैसी प्रजातियों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। पिछले दस साल में ही इनकी आबादी एक तिहाई कम हो गई है।
ताजे पानी में रहने वाले जीवों के लिए खतरा तेजी से बढ़ रहा है। नदियों और झीलों के प्रदूषण की वजह से 83 फीसद जलीय जीव खत्म हो चुके हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर इन्हें संरक्षित करने के लिए तत्काल जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो इनकी कई और जातियां विलुप्त हो जाएंगी, जिससे मनुष्य के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो जाएगा।
दुनिया भर के पर्यावरणवादी लगातार यह दोहराते रहते हैं कि जैव विविधता संकट में है, इसे बचाने की जरूरत है, पर हम पर्यावरण और परिवेश से संबंधित मामलों को महज एक अकादमिक बहस मानकर इनसे मुंह फेर लेते हैं, या इस पर सेमिनार, नुक्कड़ नाटक, मैराथन दौड़ आयोजित करके अपना कर्तव्य समाप्त मान लेते हैं। जबकि जैव विविधता के संरक्षण के लिए पूरी जीवन-पद्धति में बुनियादी बदलाव की जरूरत है। पर्यावरण से संबंधित जो कानून बने हैं, उनका सख्ती से पालन करना होगा। विकास योजनाओं का स्वरूप ऐसा रखना होगा, जिससे प्रकृति को कम से कम नुकसान हो।
पिछले कुछ समय से निर्माण उद्योग ने प्रकृति और पर्यावरण का सबसे ज्यादा कबाड़ा किया है। मनुष्य ने अपने रहने का तो इंतजाम कर लिया लेकिन पशु-पक्षियों को दरबदर कर दिया। शहरों का रहन-सहन ऐसा है कि गौरैया समेत कई पक्षी हमारे देखते-देखते ओझल हो गए। जाहिर है, सभ्यता के इस मोड़ पर ठहरकर सोचना होगा। मनुष्य इस पृथ्वी पर अकेले नहीं जी सकता। उसे प्राणि जगत की जरूरत है। पशुओं की प्रजातियों के खत्म होने से खाद्य श्रृंखला गड़बड़ा सकती है और दूसरे कई तरह के संकट पैदा हो सकते हैं। पशु-पक्षियों के प्राकृतिक निवास को बचाने के लिए जंगलों, नदियों और पहाड़ों का संरक्षण जरूरी है। विकास का जीडीपी-केंद्रित नजरिया इसके खिलाफ जाता है। तरक्की नापने का पैमाना हम वक्त रहते बदल सकें तो शायद कहीं कुछ उम्मीद बनती दिखे।
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