Tuesday, 9 October 2018

Motivation: सिविल सर्विस आखिर क्यूं? Why Civil Services?

कुछ दिन पहले मैने किसी का पोस्ट पर पॅढा, की वो सिविल सर्विस ‘मलाई खाने’ के लिये देना चाहते है. उस पोस्ट को देखकर मुझे नही समझ आया की मैं दुखी हूं या शॉक्ड. मैं इतनी पढाई करके इतनी समझदार और सशक्त तो हूं कि कोई irrational, पुरी दुनिया मे अच्छाई की उम्मिद लगा कर नही खडी हूं. इतनी फुर्सत ही किसको है यहाँ! कि कोई ये फिकर करे की कौन कैसे सोचे!

लेकिन एक शिक्षक होने के नाते, मैं जब लोगो को ऐसे इन्सान बनते देख़्ती हूं तो दुख होता है. और जब ये लोग काबिल, समझदार, कळ के सिविल सर्वेंट बच्चे हो तो तक्लीफ बढ जाती है. खेर वो मेरा मसला है. उस पोस्ट ने मुझे जिस सिविल सर्वेंट की याद दिलाइ है, उसकी काहानी आप सबके लिये. पढ कर सोचे, अगर सही लगे तो. वरना ignorance से बडा ब्लिस तो कुछ है नही.

रिज़र्वेशन को ‘जबरदस्ती मलाई खिलाया जाना’ मानने वाले व्यक्ति ने ‘रिज़र्वेशन’ और डेमॉक्रेसी को कितना  समझा है, यह कम से कम मेरे लिये सवालीया है. रिज़र्वेशन एक खास ऐतिहासिक विसंगती का परिणाम है, और आवश्यकता है, तब तक जब तक की यह विसंगती पूरी तरह  खतम ना हो जाए. जब तक किसी देश मे कोई एक व्यक्ति भी  दबा और  पीछडा है, तब तक रिज़र्वेशन जैसे पूरे सिस्टम की जरूरत है. और डेमॉक्रेसी कब, और किस देश मे सबको समान लाभ देती रही है? शायद कहीं नही. और यही डेमॉक्रेसी की सुंदरता है. उसका रेलवेन्स है. वो कमजोर को ,ज्यादा, बहूत ज्यादा, और अगर जरुरत पडे तो ‘at ते cost’ ऑफ मेजॉरिटी भी, लाभ और अधिकार देने का जरिया बनाती है. चाहे सारे ‘जनरल’ (मेजॉरिटी) को फ़ाइदा ना हो, पर एक ‘कमजोर/ दलित/ (माइनोरिटी) वंचित ना हो फायदे से. यह है डेमॉक्रेसी मे रिज़र्वेशन की भूमिका. अगर वक्त मिळे तो कभी पढिएगा Aizaz Ahmad को. कभी पढिएगा aaisha jalal को. कभी पढिएगा mahasveta देवी को. और तब आपको शायद यह पता चलेंगा की रिज़र्वेशन ‘मलाई’ से बहूत, बहूत बडी चीज है.

एक सिविल सर्वेंट व्यक्ति या सिविल सर्विस को अपना करियर चुनने वाले व्यक्ति से एक आम आदमी के तौर मे कम से कम मेरी ऊम्मिद बहूत ज्यादा है. उससे मैं बहूत ज्यादा विषय की समझ के साथ-साथ सामाजिक विसंगती, उनके ऐतिहासिक जरूरत और रिज़र्वेशन जैसे उपायो को समझने की उम्मिद करती हूं. वो ना केवळ इनकी थियरी को रटें, बळकी उनके सरोकार को समझे. इसी उम्मिद के साथ यह लेख आप सबके लिये.

UPSC (या कोई भी लक्ष्य) कोई पागलपन, कोई सनकपन की वजह से नही होना चाहिए. किसी भी लक्ष्य के पीछे एक rock-solid मज़बूत purpose होना चाहिए.


हम कोई exam क्यूँ दे रहे हैं. ये analysis बहुत ज़रूरी है.

अगर ये ‘क्यूँ’ पैसा है तो बहुत सारे तरीके हैं पैसे कमाने के. और काफ़ी अच्छे तरीके. अगर ये ‘क्यूँ’  ज़िंदगी मे स्टेबिलिटी है, तो मुझे नही लगता की UPSC कोई स्टेबिलिटी दे पाती है. इतने ट्रॅन्स्फर्स, इतनी ज़िम्मेदारी, इतनी रिगरस लाइफस्टाइल शायद ही स्टेबल और  सुकून भरी है. अगर ये ‘क्यूँ’ दुनिया के सामने स्टेटस है, तो वहाँ भी मुझे तो नही लगता की पूरी दुनिया इंडिया के किसी एक गाँव मे काम कर रहे IAS वेगेरेह को जान पाती है.

शायद अगर आप एग्ज़ॅम टॉप करते हैं तो फोटो अख़बार मे आती है, कुछ लोग या बहुत सारे लोग आपकी सफलता और मेहनत से रश्क करते हैं. आस पड़ोस वाले आपकी मेहनत की मिसालें देते हैं. पर ये सब कुछ दिन चलता है. अगले साल नये लोग इस लाइमलाइट का हिस्सा बनते हैं.

दुनिया मे हर एग्ज़ॅम की, उसके रिज़ल्ट की यही नियती है. किसी एक साल के रिज़ल्ट पर दुनिया, या लाइमलाइट नही रुकती. हां फोरम या ऐसे क्लोज़ ग्रूप, आपके पड़ोसी, आपके जूनियर्स, या सीनियर्स ज़रूर आपको जानते हैं. आपके काम को इज़्ज़त देते हैं. पर ऐसा क्लोज़ नेटवर्क या जाने वालों मे ‘स्टेटस’ लगभग हर करियर आपको देता है. अगर आप जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमे अच्छा करते हैं. अगर आप अपने फील्ड के मास्टर हैं, तो ये स्टेटस रुकता नही आपके पास भी आने से.

तो फिर आपका ‘क्यूँ’ क्या है? ये समझना बहुत ज़रूरी है. अगर आपको लाल बत्ती (जोकि अब ग़ैरक़ानूनी है), या आम आदमी से उपर उठ जाने की फीलिंग (जो की सिर्फ़ साइकोलॉजिकल होती है, एक आइडीयालजी पर बेस्ड) इस परीक्षा की तरफ आकर्षित करती है, तो आपको अपनी पर्सनॅलिटी पर सवाल उठाना चाहिए.

आम आदमी से अलग होना हमारे मन मे छुपे सेन्स ऑफ SUPERIORITY के आकर्षण को दिखाता है. अगर इतिहास की तरफ देखें तो यह सो कॉल्ड ‘सेन्स ऑफ सूपीरियारिटी’ कभी कास्ट पर बेस्ड रही है, कभी जेंडर पर बेस्ड रही है, कभी किसी रिलिजन, कभी किसी विचारधारा या कभी एकनामिक कॅपिटल पर बेस्ड रही है. और इस ‘सेन्स ऑफ सूपीरियारिटी’ को लेकर हम सबने कई लड़ाइयाँ लड़ी होंगी. लड़कियों ने लड़कों के बराबर हक के लिए, दलित ने ब्राह्मण जितना अधिकार पाने के लिए, मुसलमान या किसी भी माइनोरिटी ने हिंदूँ के बराबर लीगल राइट्स के लिए. छोटे शहरों के बच्चों ने दिल्ली या दूसरे बड़े शहरों के  बच्चों जितना रेस्पेक्ट पाने के लिए. हमने अगर ना भी लड़ी हों तो इस इतिहास से हम वाकिफ़ तो ज़रूर हैं कम से कम. इस लाइट मे यह  जानना बहुत ज़रूरी है खुद के बारे मे की ‘क्यूँ’ बनना चाहते हैं हम दूसरों से ‘सुपीरियर’ इस एग्ज़ॅम के द्वारा? इसके पीछे दूसरों को ‘नीचा’ दिखाने की दबी हुई DISGUISED डिज़ाइर ही तो हुई! और जहाँ तक मुझे पता है UPSC ये नही है. नहीं होना चाहिए. इन फॅक्ट कोई भी लक्ष्य, कोई भी लड़ाई इसलिए नही लड़ी जानी चाहिए कि हम आम आदमी से उपर उठ जाएँ.

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सब्ज़ी के ठेले वाले, घर पर काम करने वाली बाई, कबाड़ बेचने वाले मोहल्ले के कबाड़ी, घर का बाथरूम सॉफ करने वाले कर्मचारी, ठेलों पर चाट गोलगप्पे बेचने वाले, आइस्क्रीम बेचने वाले बच्चे ये लोग हमसे दूर हो जाएँ. हमे देखकर अपनी फूटी किस्मत पर रोएँ. हमसे डरें. हमसे रश्क करें. हमसे खुद को नीचा समझें. ये ही तो है हमारे छुपे, डिस्गाइज़्ड ‘सेन्स ऑफ सूपीरियारिटी’ का रिज़ल्ट.

हालाँकि मेरे कई दोस्त IAS हैं, और मैं किसी की भी एक इंसान के तौर पर इज़्ज़त नही करती. लेकिन एक शॅक्स है जिसकी मैं दिल से इज़्ज़त करती हूँ. और शायद उसकी ही कहानी मुझे UPSC का TRUE PURPOSE दिखा पाती है.

यह इन्सान ना केवल अपने प्रोफेशनल एफीशियेन्सी के लिये जाना जाता रहा है, बल्कि  कई केसस मे (खासकर माननीय मधु कोडा जी के केस मे)  काफी सक्रिय भूमिका निभा चुका है. अपने काम के प्रति एक ऐसी निष्ठा है उसके भीतर कि जबरदस्त दिलेरी के साथ जीता रहा है. उसके बेबाक्पन और पूरी शिददत से अपने उत्तर दायित्वो को निभाते रॅहेने के कारण उसे हर बार इधर से उधर ट्रान्स्फर कर दिया जाता रहा है. लेकिन ये शक्स जहाँ ही पहूंचा दिया जाता है, वही पीच्हला भूळकर, मस्त अपनी ड्यूटी निभाने लग जाता है. जिस पोज़िशन पर उसको पहूंचा कर शायद बहूत कम लोगो ने सोचा होगा की कुछ संकल्प, कुछ उत्तर्दयित्व वहां से भी पुरे किये जा सकते है, वो फिर  परेशान हो जाते हैं, और फिर उसका ट्रान्स्फर हो जाता है. पर उसकी मस्ती, उसका बेबाक्पन, उसकी शिददत, शायद ही कम होती है.

लेकिन यह व्यक्ति जितना ही अपने  सन्कल्पो मे दृढ है, ऊतना ही सेन्सिटिविटी से भरा है अपने आस पास की आम जनता से. अगर इसने अपने घर के आगे एक धोबी को रह्ने की जगह दे रखी है, तो उसकी बेटी के IIT कानपुर मे admission होने पर पूरा खर्चा देता रहा है. एक बार इसकि काम वाली बाई जब अपने शराबी पति द्वारा पीटी गई, और पोलीस थाने वालो ने थाने से यह कह्कर भगा दिया की उसके पास उस जिले का आवास प्रमाणपत्र नही है. तो उस बाई के लिये इस व्यक्ति ने थाना प्रभारी की अकल ठिकाणे लगाई है. अपने काम काज के  दौरान यदि कमजोर, बिना किसी आवाज की जनता की सशक्त आवाज अगर यह व्यक्ति बना है तो यह अपने घर पर कबाड बेचने आने वाले पन्नू काका की बिटिया की शादी मे भी गया है. आम आदमी की आवाज बनने का जो मौका सिविल सर्विस इन्सान को देता है, शायाद वही इसका ‘क्यूं’ है. और होना चाहिए, अगर नही है तो. एक आम, कमजोर, डरा हुआ गांव और तहसीलो का व्यक्ति अपने सिविल सर्वेंट्स की तरफ एक आवाज की बुलन्दि के लिये देखता है. अगर आप उस आम आदमी की आवाज बनने का बीडा नही उठाना चाहते हैं, उसके लिये कई ट्रॅन्स्फर्स, कई और परेशानियां नही झेलना चाहते हैं, आराम और सुकून से शाम 5 बजे घर आकर अपनी बाई, कबाड वाले, धोबी और ऐसे कई दबे, पिचके, निरिह लोगो को भूल जाना चाहते हैं, तो माफ कीजिएगा, आप सिविल सर्वेंट बनने के काबिल नही है.

एक सिविल सर्वेंट आम जनता और सरकार के बीच की वो कडी है जिसकि तरफ ना केवळ आम जनता देखती है, बळकी सरकार भी उसपर ही निर्भर करती है.

और आज के समाज मे, जिस corruption मे हम सब जी रहे हैं, हमे ऐसे सिविल सर्वेंट्स की आवश्यकता और भी ज्यादा है.  पैसे, शोहरत, स्टेटस, यह सब कुछ आपको किसी भी करियर मे मिल सकता है, लेकिन कमजोर आम आदमी तक डेमॉक्रेसी को पहूंचाने का शायद सिविल सर्विस एक सशक्त माध्यम है. बहूत ही .

और सभी तैयारी करने वालो का ‘क्यूं’ यही मीडियम बनना होना चाहिए. हो सकता है आपमे से बहुतो को परीक्षाए सिरफ  परीक्षाए लगती है, पर यॅकीन मानिये अगर आपके लक्ष्य का कोई  मजबूत मुद्दा नही है, तो आप सिर्फ एक रेस के घोडे हैं, और आप आम आदमी की इज्जत कमाने वाले सिविल सर्वेंट कभी नही बन पाएंगे. और अगर बन गये तो हर उस करप्ट सिविल सर्वेंट की तॅरह लोग और इतिहास सिर्फ आपसे घृणा करेगा.

यह लेख मेरा अपना विचार है. हो सकता है आपमे से  बहूतो को यह कडवा लगे, लेकिन एक साहित्य से जूडा व्यक्ति इस बात के लिये बहूत कम जाना जाता है की उसने कितनी मीठी और मन ळूभाने वाली बाते कहीं है.

धन्यवाद 🙂
This Article is contributed by a ForumIAS User VSH_DU2015. She is currently pursuing her PhD in English at University of Leeds, UK. She joined ForumIAS a few years ago when she was an M.Phil scholar at University of Delhi and entertained the idea of preparing for CSE. But, the moment she passed her M.Phil and bought all books, she subscribed to websites like ForumIAS ???? 

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